Tuesday, August 12, 2008

थोड़ा कहना ज्यादा समझना पेश है- 'घुंघरू टूट गए'

पिछले सप्ताह भर से मेरे कंप्यूटर बाबू और इंटरनेट बबुआ के दुश्मनों की तबीयत नासाज -सी चल रही है. मन होता है चल पड़ते हैं, थोड़ा बहुत कामकाज भी कर लेते हैं नहीं तो तसव्वुरे जानां किए हुए औंधे पड़े रहते हैं. बड़ी मिन्नत-खुशामद करनी पड़ रही है बाबू जी की और बबुआ जी की. दोनों ने मिलकर जी हलकान कर रखा है. अभी -अभी तीन विशेषज्ञ आए थे सो बीमारों की तबीयत कुछ संभली है, मुंह पे थोड़ी रौनक आई है. सोचा क्या किया जाय. ध्यान में आया कि अपनी पसंद का एक गीत क्यों न सुनवा दिया जाय ताकि कुछ चैन पड़े. सो, हे मित्रो ! प्रस्तुत है आबिदा परवीन का गाया यह मधुर गीत जिसे अपन और कई गायकों के स्वर में भी सुन चुके हैं।

खैर, थोड़ा कहना ज्यादा समझना पेश है- 'घुंघरू टूट गए'
मोहे आई न जग से लाज
मैं इतना ज़ोर से नाची आज
के घुंघरू टूट गए
कुछ मुझ पे नया जोबन भी था
कुछ प्यार का पागलपन भी था
हर पलक मेरी तीर बनी
और ज़ुल्फ़ मेरी ज़ंजीर बनी
लिया दिल साजन का जीत
वो छेड़े पायलिया ने गीत
के घुंघरू टूट गए

धरती पे न मेरे पैर लगे
बिन पिया मुझे सब ग़ैर लगे
मुझे अंग मिले अरमानों के
मुझे पंख मिले परवानों के
जब मिला पिया का गांव
तो ऐसा लचका मेरा पांव
के घुंघरू टूट गए

4 comments:

  1. ये गीत बचपन में शायद पंकज उधास की आवाज में सुना था। इस आवाज में सुनकर मजा ही आ गया। शुक्रि‍या आपका ।

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  2. मजा आ गया.. शुक्रि‍या...!!

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