देखिये उनके ब्रश आपसे क्या कह रहे हैं. और महाकवि फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का की कविता पढ़ते हुए थोड़ा और डूबिये इस हरे में.

उनींदा प्रेम
हरे, कितना तुझे प्यार करता हूं हरे
हरी हवा, हरी टहनियां
समुन्दर में वो रहा जहाज़
और पहाड़ के ऊपर वह घोड़ा ...
उस स्त्री की कमर के घेरे के गिर्द छाया
अपने छज्जे में स्वप्न देखती है वह
हरी देह, हरे ही उसके केश
और आंखों में ठण्डी चांदी
हरे, कितना तुझे प्यार करता हूं हरे
बंजारे चांद के नीचे
दुनिया की हर चीज़ उसे देख सकती है
जबकि वह नहीं देख सकती किसी को भी.
हरे, किस कदर तुझे चाहता हूं हरे
भोर की सड़क दिखाने वाली
परछाईं की मछली के साथ
पाले से ढंके सितारे गिरते हैं.
जैतून का पेड़ रगड़ता है अपनी हवा को
टहनियों के अपने रेगमाल से
और एक चालाक बिल्ली सरीखा वह जंगल,
सरसराता है अपने कड़ियल रोंए
मगर कौन आएगा? और कहां से आएगा?
वह स्त्री अब भी अपने छज्जे में
हरी देह, हरे ही उसके केश
सपने देखती हुई कड़वे समुन्दर में.
मेरे दोस्त! मैं चाहता हूं अपना
घोड़ा बेचकर उसका मकान ख़रीद लूं
ज़ीन बेचकर ले लूं उसका शीशा
चाकू बेचकर उसका कम्बल.
मेरे दोस्त, मैं आया हूं वापस काबरा के द्वार से
ख़ून रिसता हुआ मुझसे
-अगर यह संभव होता लड़के,
तो मैं मदद करता इस व्यापार में तुम्हारी.
लेकिन अब मैं मैं नहीं हूं
न मेरा घर रह गया है मेरा घर.
-मेरे दोस्त मैं चाहता हूं
शालीनता से मर जाऊं अपने बिस्तर पर.
और मरूं लोहे के कारण, अगर संभव हो तो
और नफ़ीस ताने बाने वाले कम्बलों के बीच.
क्या तुम देखते नहीं यह घाव
मेरी छाती से मेरे गले तक?
-तुम्हारी सफ़ेद कमीज़ में उग आए हैं
प्यासे, गहरे भूरे गुलाब.
तुम्हारा रक्त फूटकर उड़ने लगा है
खिड़की की चौखट के किनारों पर.
लेकिन अब मैं मैं नहीं हूं
न मेरा घर रह गया है मेरा घर.
मुझे कम से कम उंचे छज्जे तक तो
चढ़ पाने की इजाज़त दो.
चढ़ने दो मुझे! चढ़ने दो मुझे
ऊपर उस हरे छज्जे तलक.
चन्द्रमा की उसकी रेलिंग
जिसके बीच गड़गड़ाता बहता है पानी.
ख़ून की एक लम्बी लकीर पीछे छोड़ते
आंसुओं की एक लम्बी लकीर पीछे छोड़ते
दोनों चढ़ना शुरू करते हैं
ऊंचे छज्जे
की तरफ़.
छत पर कांपीं
अंगूर की लताएं.
एक हज़ार स्फटिक ढोल बजे
भोर की रोशनी के साथ.
हरे, कितना प्यार करता हूं तुझे हरे,
हरी हवा, हरे छज्जे.
दोनों दोस्त चढ़े ऊपर
और कड़ी हवा ने भर दिया
उनके मुंहों में एक विचित्र घुलामिला स्वाद
पोदीने, तुलसी और पित्त का.
मेरे दोस्त, कहां है वह स्त्री - बताओ मुझे -
कहां है वह तुम्हारी कड़वी स्त्री?
कितनी दफ़ा उसने तुम्हारा इन्तज़ार किया!
कितनी दफ़ा तुम्हारा इन्तज़ार वह करती थी,
अपने ठण्डे चेहरे और काले केशों के साथ
इस हरे छज्जे पर!
पानी की टंकी के मुहाने पर
वह जिप्सी लड़की झूल रही थी,
हरी देह, हरे उसके केश
और आंखें ठण्डी चांदी!
चन्द्रमा के पाले का एक कण
उठाए रखे था उसे पानी की सतह के ऊपर.
रात और अंतरंग हो गई
किसी छोटे बाज़ार की तरह.
और
धुत्त पुलिसिये
दरवाज़ा पीट रहे थे.
हरे, कितना तुझे प्यार करता हूं हरे
हरी हवा, हरी टहनियां
समुन्दर में वो रहा जहाज़
और पहाड़ के ऊपर वह घोड़ा ...

*गार्सिया लोर्का का गिटार
बहुत ज़बरदस्त कविता और सजीली पेन्टिंग्स हैं. यहां पहाड़ भी इसी रंग के हो रहे हैं आजकल. रवीन्द्र व्यास जी को बधाइयां.
ReplyDeleteकिसी बड़े कवि की रचना है ! 'हरे कोने' को तो जज़्ब करना है ।
ReplyDeleteक्या कहने ! पेंटिंग और कविता दोनो के !!विनीता ने सही कहा, आजकल तो हमारे पहाड़ों का हरा देखिए !
ReplyDeleteहरियाली का स्वाद ..बेहद गीला , सुन्दर !
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ReplyDeleteआपने इस महान और मार्मिक कविता के साथ मेरी पेंटिंग्स लगाकर इन्हें भी मेरे लिए अविस्मरणीय बना दिया है।
ReplyDeleteचित्र और कविता दोनों ही जीवन के गान हैं...
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रक्षा-बंधन का भाव है, "वसुधैव कुटुम्बकम्!"
इस की ओर बढ़ें...
रक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकानाएँ!
यार रवि, कर क्या रहे हो? सुंदर.
ReplyDeleteऔर कविता भी लाजवाब.
बहुत ही सुन्दर पेंण्टिंग हैं । बन्द कमरे सें पावस चला आया ।
ReplyDeletedono hi laajavab..
ReplyDeleteद्विवेदीजी आभार। गीत, तुम्हारी प्रतिक्रिया से हौसला बढ़ा है। विष्णुजी जल्द ही कुछ और पेंटिंग्स देखने को मिलेंगी। पारुलजी आपके प्रति गहरा आभार।
ReplyDelete" हरा रँग" हर तरफ छा कर आँखोँ को सुकून दे रहा है रविन्द्र जी को बधाई कविता भी बढिया हैँ !
ReplyDelete- लावण्या
विनीताजी, अफलातूनजी, शिरीषभाई, प्रत्यक्षाजी और लावण्याजी, सबके प्रति गहरा आभार।
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