
आज से लगभग बीसेक बरस पहले ( १९८६ में ) इंटीग्रेटेड फ़िल्म्स के बैनर तले एक बेहद खूबसूरत उर्दू फिल्म आई थी जिसका नाम था - 'अंजुमन'. १४० मिनट की यह फिल्म लखनऊ की दस्तकारी और उससे जुड़ी दुनिया के रूप-रंग को लेकर बुनी गई थी. तब तक समांतर सिनेमा का दौर खत्म नहीं हुआ था . हमारे फिल्मकारों को तब तक नएपन के अन्वेषण से इतना गुरेज भी नहीं था. मुजफ्फर अली निर्देशित इस 'अंजुमन' में एक खास तरह का नयापन था जिसे सराहा गया. मुजफ्फर अली और शोभा डॊक्टर द्वारा निर्मित 'अंजुमन' में संगीत दिया था खैयाम साहब ने . इसी फिल्म की एक ग़ज़ल प्रस्तुत है जिसे लिखा है नामचीन शायर शहरयार ने और स्वर है समर्थ अभिनेत्री ( और गायिका भी ) शबाना आजमी का. तो आइए सुनते हैं यह ग़ज़ल -
तुझसे होती भी तो क्या होती शिकायत मुझको .
तेरे मिलने से मिली दर्द की दौलत मुझको .
जिन्दगी के भी कई कर्ज हैं बाकी मुझ पर ,
ये भी अच्छा है न रास आई मुहब्बत मुझको .
तेरी यादों के घने साए से रुखसत चाहूं ,
फिर बुलाती है कहीं धूप की शिद्दत मुझको .
सारी दुनिया मेरे ख्वाबों की तरह हो जाए ,
अब तो ले दे के यही एक है हसरत मुझको .
तुझसे होती भी तो क्या होती शिकायत मुझको .
तेरे मिलने से मिली दर्द की दौलत मुझको .
जिन्दगी के भी कई कर्ज हैं बाकी मुझ पर ,
ये भी अच्छा है न रास आई मुहब्बत मुझको .
तेरी यादों के घने साए से रुखसत चाहूं ,
फिर बुलाती है कहीं धूप की शिद्दत मुझको .
सारी दुनिया मेरे ख्वाबों की तरह हो जाए ,
अब तो ले दे के यही एक है हसरत मुझको .
नायाब ग़ज़ल सुनवाने का शुक्रिया।
ReplyDeleteबौफ़्फ़ाइन!
ReplyDeleteभाई कमाल. आख़िर मिल गया. एक मुद्दत से धूंध रहा हूँ "अंजुमन" के गाने. भाई, इस फ़िल्म के और गाने भी ..............."मैं राह कब से नै ज़िन्दगी की तकती हूँ ....." और एक दोगाना जो अभी याद नहीं आ रहा. वो सब ? उनका भी जुगाड़ करें सर जी.
ReplyDeleteयार, सुबह और इस तरह दिन तो ठीक से कट जाने दिया करो। सुबह-सुबह उदास कर दिया...
ReplyDeletekya baat hai..shukriyaa bahut
ReplyDeleteShabana azmi aur itana sundar geet...! thanks..unka ye khubsurat roop bhi dikhane ke liye.
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन गजल सुनवाई आपने
ReplyDeleteधन्यवाद
वीनस केसरी