Friday, March 20, 2009

मैं उस व्यक्ति की तरह हँसा जो बस रोता रहा हो

मैं नहीं जानता प्रकृति क्या है
मैं उसे गाता हूं
मैं, पहाड़ की चोटी पर
सफ़ेदी किए हुए एक घर में रहता हूं
जो सबसे अलग है
और यही मेरी परिभाषा है




ये पंक्तियां पुर्तगाल के महाकवि फ़र्नान्दो पेसोआ की हैं. हाल ही में मैंने आपको उसकी कविताओं की एक बानगी दिखलाने की कोशिश की है. फ़र्नान्दो पेसोआ (१८८८-१९३५) का व्यक्तित्व जितना विराट था उस से कहीं ज्यादा विराट उसका कृतित्व है। साहित्य की हर विधा में कलम चलाने वाले इस जीनियस लेखक ने विश्व साहित्य को जितना समृद्ध किया वह बड़े बड़े लेखकों के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है।

कुल मिलाकर पेसोआ ने छियासी नामों से रचनाएं कीं और अपनी मृत्यु के बाद जिन 27085 पाण्डुलिपियों को वह अपने सन्दूक में छोड़ गया उनके प्रकाश में आने के बाद से आज उसका शुमार सर्वकालीन महानतम कवियों में किया जाता है।

अपने सैंतालीस साल के संक्षिप्त जीवन में पेसोआ ने अपना कद किसी भी जीवित व्यक्ति से बड़ा बनाया और यह अकारण ही नहीं है कि आज पेसोआ को पुर्तगाल का सर्वकालीन महानतम कवि माना जाता है।


आज मैंने करीब दो पन्ने पढ़े

आज मैंने करीब दो पन्ने पढ़े
एक रहस्यवादी कवि की किताब से
और मैं उस व्यक्ति की तरह हँसा जो बस रोता रहा हो

बीमार दार्शनिक होते हैं रहस्यवादी कवि
और दार्शनिक पागल होते हैं

क्योंकि रहस्यवादी कवि कहते हैं कि फूलों को एहसास होता है
वे कहते हैं कि पत्थरों में आत्मा होती है
और नदियों को चाँदनी में उद्दाम प्रसन्नता होती है
लेकिन फूलों को एहसास होने लगे तो वे फूल नहीं रह जायेंगे-
वे लोग हो जायेंगे
और अगर पत्थरों के पास आत्मा होती
तो वे जीवित लोग होते, पत्थर नहीं,
और अगर नदियों को होती उद्दाम प्रसन्नता चाँदनी में
तो वे बीमार लोगों जैसी होतीं

आप फूलों, पत्थरों और नदियों की
भावनाओं की बात तभी कर सकते हैं
जब आप उन्हें नहीं जानते
फूलों, पत्थरों और नदियों की आत्माओं के बारे में बात करना
अपने बारे में बात करना है - अपने संदेहों के बारे में
शुक्र है खुदा का, पत्थर बस पत्थर है
और नदियाँ बस नदियाँ
और कुछ नहीं
फूल बस फूल

जहाँ तक मेरा सवाल है
मैं लिखता हूं अपनी कविताओं का गद्य
और मैं सन्तुष्ट हूं
क्योंकि मैं जानता हूं
कि मैं प्रकृति को बाहर से समझता हूं
मैं उसे भीतर से नहीं समझता
क्योंकि पृथ्वी के भीतर कुछ नहीं होता
वरना वह प्रकृति ही नहीं रह जायेगी.

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*पेसोआ पर लगी हालिया पोस्ट्स के लिंक:

मेरी कविता हवा की उठान की तरह नैसर्गिक है
पर्याप्त अध्यात्म है बिल्कुल न सोचने में भी

6 comments:

  1. इनकी ये कविता पढ़कर ही एक पल में एहसास हो जाता है कि वह कितने महाकवि थे ...और कितने अलग ...वास्तव में उन्होंने साहित्य को एक धार दी ...एक ऊंचाई दी

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  2. बहुत अच्छा लगा पढकर...

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  3. हांजी!
    हांजी!

    - सरेस मोरिया

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  4. पढ़ा तो पेसोआ को पर टिप्पणी कुछ और कर रही हूं। नीलोफर जी का शिरीष जी के प्रति रवैया देखकर ऐसा लगता है कि वे उनसे कोई निजी दुर्भावना रखती हैं। उन्होंने तो बस एक चिट्ठी पोस्ट की। उनके नाम को बिगाड़ना और इस तरह की अभद्रता करना - मुझे नहीं लगता कि नीलोफर जी कोई स्त्री हैं! उनकी भाषा स्त्रियों की गरिमा के प्रतिकूल और लफंगों वाली भाषा है। क्या नीलोफर जी सचमुच औरत हैं? - उनके विवरण में जाकर भी कुछ हाथ नहीं लगता, सिवाय तोतोचान नामक एक निरर्थक ब्नाग के। जैसे नीलोफर जी ने अपनी पिछली पोट की टिप्पणी अगली पोस्ट में लगाई, वैसे ही मैं भी ऐसा ही कर रही हूं, आशा है माफ करेंगे।

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  5. बहुत अच्छी कविताएं। इधर की आपकी कुछ पोस्ट बेहद उम्दा हैं भाई। शुक्रिया।

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