
उर्दू के बड़े शायर शिकेब जलाली की एक ग़ज़ल से कुछ अशआर पेश हैं:
जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के
मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद
गो जानता हूँ नक्श नहीं ये सिलेट के
दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादसा हुआ
फेंका था उसने संग गुलों में लपेट के
फव्वारे की तरह न उगल दे हरेक बात
कम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के
ग़ज़ल के किये आभार अशोक भाई ...
ReplyDeleteKeeop the good qwork going.
जाती है धूप उजले परों को समेट के
ReplyDeleteज़ख्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के
वाह क्या लिखा है।
waah.........itni behtreen gazal padhwane ka shukriya.
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteअद्भुत शेर!!!
बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteफव्वारे की तरह न उगल दे हरेक बात
ReplyDeleteकम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के
सत्य वचन... यथार्थ...
आभार,अशोक भैया।
ReplyDeletekhoob !
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