Sunday, March 7, 2010
ऐसे मे कैसे बढेंगे बाघ
लगभग सोलह साल बीत गये पता ही नही चला और शायद पता ही नही चलता अगर उस बूढी हो चली शेरनी शंकरी के बुढापे को रिकार्ड बुक मे दर्ज़ कराने का सिलसिला न शुरू हुआ होता। शंकरी को इस समय देश ही नही एशिया की सबसे ज्यादा उम्र वाली शेरनी माना जा रहा है। हालांकि एक और शेर महाराज असम मे है जो सत्ताईस के हो चुके हैं मगर वो शेर हैं और ये शेरनी।
शंकरी! आज तो सब उसे इसी नाम से जानते हैं। उसका ये नाम भी पड़ा था अख़बार वालों की आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण्। शंकरी तब छः साल की जवान थी और यंहा से सवा सौ किलोमीटर दूर मैनपुर के जंगलों मे शिकारियों के बिछाये जाल मे फ़ंस कर घायल हो गई थी, उसका पंजा बुरी तरह घायल हो गया था और उस समय उसने दहाड़-दहाड़ कर न केवल जंगल बल्कि आसपास के गांवो और क़स्बों को भी दहला दिया था।
उस समय गरियाबंद का युवा पत्रकार फ़ारूक़ मेमन अपनी जान की परवाह न करते हुये शेरनी के करीब तक़ जा पहुंचा था और उसने घायल शेरनी के सैकड़ो फ़ोटो खींचे थे।उसकी एक फ़ोटो को डब्ल्यू डब्ल्यू एफ़ ने चुना और प्रकाशित भी किया था। जंगल विभाग वाले भी आनन-फ़ानन वंहा पहुचे थे और जंगल की शेरनी को यंहा राजधानी के छोटे से चिड़ियाघर मे बाकी उम्र गुज़ारनी पड़ गई।
आज वो उम्र के अंतिम पड़ाव पर है और फ़िर भी तंदुरूस्त। सोलह साल पहले फ़ारूक़ ने खबर दी थी एक शेरनी के घायल होने की। उसे रायपुर लाया गया तब सारे अख़बार वाले उसे देखने पंहुचे थे। उसका एक पंजा आधा काटना पड़ा और शायद इसी कारण से उसे जंगल वापस नही भेजा गया। तब वो बेहद खूंखार थी और आक्रामक़ भी। कुछ अख़बार वालों ने उसका नाम माया रख दिया और इस बात से मेरा साथी एहफ़ाज़ रशीद बेहद नाराज़ हुआ। उसने मुझसे कहा भैया इसका नाम अपन भी अलग रखेंगे। मैने इस बात पर सहमति दी और मकर संक्रांति के दिन यहां लाये जाने के कारण उसे शंकरी नाम दे दिया गया। बाकि अख़बार वाले कुछ समय तक़ माया लिखते रहे और पता नही कैसे उन्होने खामोशी ओढ़ ली,मगर हम लोगों ने उसे शंकरी का नाम दिला कर ही दम लिया।
खैर सवाल इस बात का नही है कि उसका नाम शंकरी है या माया। सवाल इस बात का है कि आखिर क्यों वो अकेले ही रही?वो भी एक दो नही सोलह साल? क्यों उसकी जोड़ी बनाने की कोशिश नही की गई? क्यों उसके लिये शेर की व्यवस्था नही की गई या उसे शेर के पास क्यों नही भेजा गया? क्या उसकी जोड़ी बनाकर लुप्त होने की कगार पर पहुंच रही प्रजाति की संख्या मे इजाफ़ा नही किया जा सकता था?क्या यहां के जंगल विभाग वालों को पता नही था कि शेर कम हो रहे हैं? क्या इस बारे मे चिंता करने का उन्हे कभी समय ही नही मिला? क्या सिर्फ़ उसकी बढती उम्र को रिकार्ड मे दर्ज़ कराना ही काफ़ी है?
सोलह साल! कम नही होता इतना समय। अगर इच्छाशक्ति होती तो? खैर अब तो सिर्फ़ इस बात से ही छत्तीसगढ के जंगल दफ़्तर वाले खुश हैं कि उनके इलाके मे देश की सबसे बूढी शेरनी रहती है। वो शेरनी जिसे जवानी मे उन्होने जंगल से लाया था और बिना अपने परिवार या प्रजाति को बढाने का मौका दिये उसे बूढा कर डाला। वे अब उसकी सुध ले रहें है ताक़ी वो बिना रिकार्ड बुक मे नाम दर्ज़ कराये कंही चल न बसे। क्या इस देश मे सिर्फ़ रिकार्ड ही महत्वपूर्ण है? क्या कागज़ो पर रिकार्ड बनाने ही सब कुछ है? दूसरों की क्या कहूं मैंने खुद शंकरी को इन सोलह सालों मे कई बार देखा मगर इस बारे मे कभी ख्याल तक़ नही आया कि वो इतनी बूढी हो चली है। वो तो नेशनल लुक अख़बार के युबा रिपोर्टर ठाकुरराम यादव ने उसके बुढी होने की खबर छापी तो पता चला कि हमारे समय की जवान खूबसुरत शंकरी बुढी हो गई है बिना अपनी प्रजाति की संख्या बढाये। ऐसे मे कैसे बढेंगे बाघ और बढेंगे नही तो बचेंगे कैसे? मेरी तो समझ से परे है।
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7 comments:
अनिल भाई शंकरी से हम भी मिल चुके है लेकिन सही है यह खयाल कभी किसी के दिमाग मे नही आया कि उसकी वंशवृद्धि के लिये कुछ किय जाये । हो सकता है किसीन प्रयास भी किया हो और वह ललफीताशाही के कारण निरर्थक साबित हुआ हो । लेकिन बाके जगह वालो को इससे सबक तो लेना चाहिये ।
khayaal umda tha. kokas ji ki tippadi ko repeat karta hoon.
khayaal umda tha. kokas ji ki tippadi ko repeat karta hoon.
"अनिल जी बहुत दुख हुआ पढ़कर ........लेकिन हो सकता है कि शंकरी के 3 शावक हुए हों (सरकारी रिकार्डों में) और आपको पता ही न चला हो....."
प्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com
प्रणव जी छत्तीसगढ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र बस्तर मे तो पिछली बार शेरों की गिनती ही नही हो सकी।शंकरी जंहा पकडाई थी वो राजधानी से 100 किलोमीटर दूर का जंगल है,वंहा अब शेर नज़र नही आते।शेरों को दवा और दिखावे के नाम पर खतम किया जाता रहा।जंगल के शेर सबसे ज्यादा तो आलिशान महलों और कोठियों के ड्राईंग रूम मे सज़ गये है।अब भी वक़्त है जंगल के राज़ा को बचाने का।वैसे न केवल शेर छत्तीसगढ की राजकीय पक्षी पहाडी मैना भी विलुप्त हो रही है और कुछ जंगलों मे यंहा की शान वनभैंसा भी खतम हो रहा है।लिखूंगा इस पर किसी दिन।ये तो गनीमत है कि छत्तीसगढ मे फ़िलहाल जंगल बचे हुये हैं,वो भी पता नही कब तक़?
वंशवृद्धि के बारे में अवश्य कुछ किया जाना चाहिए!
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प्यार बढ़ता ही रहेगा ... ... .
दरअसल , कुँए में ही भांग घुली है और ये सब उसी के असरात हैं . अच्छा लगा आपका ये सरोकार अनिल भाई !
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