Monday, August 23, 2010

गिर्दा को नमन



.....कल जनकवि - लोकगायक गिर्दा नहीं रहे। आज अखबार में उनके बारे बहुत कुछ छपा है । कल और आने वाले कल के दिनों में बहुत कुछ  लिखा जाएगा , छपेगा । आज और अभी अपनी ओर से कुछ लिखना संभव नहीं है। बस दो उद्धरण ; एक किताब से और दूसरा इसी ठिकाने की अपनी एक पुरानी पोस्ट से...

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* ...उस दिन वो रास्ते में अपना झोला लटकाये,बीड़ी सुलगाये - बुझाये दिखाई दिए। मैं घबराया कि आज मारा गया। गिरदा से कैसे बात करूँगा समझ में न आया। जी०एम०ओ०यू० स्टेशन से पहले मैं और सफ़दर जा रहे थे। सफ़दर भी झोला लटकाये था। मैंने कहा अच्छा है दोनो झोलेदारों को मिला दिया जाय। मैंने सफ़दर को गिरदा से मिलाया। सफ़दर ने अपने अन्दाजे - बयां यानी गर्दन कंधे पर टिका पूरी बत्तीसी निकाल गिरदा के हाथ को झिंझोड़ना शुरू किया,दो तीन बार वेरीग्लेड तू सी यू,..आपसे मिलकर बड़ी खुशी हुई...आदि कहा। पर गिरदा तो खो गए थे। वो सोच में खो गए, सफ़दर के हाथ को लिए - दिए, पर दयनीयता से घिघियाते हुए सफ़दर ने ग्लेड टू सी यू ...कहा तो फिर वो झटके से वापस आए फिर आहिस्ता से अपने धीरे - धीरे बोलने के अंदाज से बोले - " ये तो मैं नहीं कह सकता कि आपसे मिलकर खुशी हुई पर मुझे लगा कि मैं हल्का हो गया हूँ...।" सफ़दर सन्न रह गया उसने मुझे देखा, पर बाद में उसकी तुरंत बुद्धि ने भाँप लिया कि मुकाबला तगड़ा है। बाद में उसकी बात पर उसने कहा - " बड़ा अजीब आदमी है यार वह। बोलता है आपसे मिलकर ऐसा लगा कि जैसे हल्का हो गया हूँ। अरे कोई मैं संडास हूँ जो मुझसे मिलकर वह हल्का हो गया ?"

खैर उस दिन एक मिठाई की दो-मंजिली दुकान में जिसे हम राज्य सभा कहते थे दोनों का का बड़ जोरदार मुकाबला हुआ। एक कह रहा है हवा में हाथ मार- मार कर -"मुझे लगता है मैं आपको समझा नहीं पा रहा यानी पेट में तो आ रहा है पर मुँ ह में..." दूसरा बीच में रोककर अपने को न समझ पाने के दोषारोपण से अपमानित समझता जोर - जोर से हाथ झटक कर कह रहा है - " नहीं - नहीं, मैं समझ रहा हूँ आप कहिए..." एक कह रहा है- "मैं टूट रहा हूँ।" दूसरा कह रहा है मैं जुड़ रहा हूँ"। चाय ,काफी, रसगुल्ले के दौर पर दौर चल रहे थे। मुझे मालूम था कि बिल तो मुझे देना है इसलिए टूट - जुड़ तो मैं रहा था। पर भाषा की उस मार - पिटाई, द्रविड़ प्राणायाम, कसरत में शब्द भाषा के बाण,तोप , गोलियाँ चल रही थीं। अभिव्यक्ति, माध्यम, अबस्यलूट, महसूसना, युग मूल्य, प्रतिबद्धता, अभिव्यक्ति का भय...तरह- तरह के शब्दों से मैं परिचित हुआ। 'सड़ापन', 'पचापन',..'दुहरी विसंगतियाँ' ...'समझदानी'। मेरी समझ में नहीं आया कि सफ़दर कैसे - कैसे इस शुद्ध हिन्दी भाषायी खेल में जम - जमकर पट्टेबाजी दिखा रहा था। गिरदा की सुरीली आवाज , लोक संगीत, नगाड़े खामोश हैं। उसकी अभिव्यक्ति ने सफ़दर को मोह लिया। बाद में उसने कहा - यार अदमी है तो ये गावदी..। पर पकड़ भी साले की है जबरदस्त। खासकर लोकसंगीत में गजब की इमेज है पठ्ठे की, औरिजनल एप्रोच है पर आज अच्छी धुलाई कर गया कमबख़्त , मेहरबानी तुम्हारी।

- प्रभात कुमार उप्रेती की १९९१ में प्रकाशित पुस्तक 'सफ़दर एक आदम कद इंसान' / यात्री प्रकाशन ,बी- १३१, सादतपुर ,दिल्ली -११००९४ से साभार / पृष्ठ - १२२ और १२३

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** `कविता की दोपहर´ का एक आयोजन सी0 एल0 टी0 में था । यहां पहली बार एक नया नाम सुना - 'नेरूदा' । फिजिक्स के प्राफेसर अतुल पाण्डे संचालन कर रहे थे जो अब हमसे कई करोड़ प्रकाशवर्ष दूर चले गये है। उन पर एक बहुत ही अच्छी , बहुत ही संवेदनशील कविता अशोक पाण्डे ने लिखी है । कई बार सुनाई दिया वही नया नाम -' नेरूदा' । पहाड़ पर रहते हुए अब तक मुझे अच्छी तरह पता चल गया था कि `दा ´ एक आदरसूचक संबोधन है - दादा या दाज्यू का लघु संस्करण या कि भाषाविज्ञान की शब्दावली में कहें तो प्रयत्न लाघव । मैं स्वयं इस संबोधन का प्रयोग करने का आदी होता जा रहा था और कुछ जूनियर छात्रावासियों के लिए `दा´ बन चुका था । मैं बड़ी देर से सोच रहा था कि 'नेरूदा' आसपास के कोई बड़े कवि होंगे क्योकि मंच पर बैठै उन्ही के जैसे नाम वाले 'गिरदा' या 'गिर्दा' अपनी बुलंद खनकदार आवाज में `किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी कौन आजाद हुआ , कौन आजाद हुआ ´ गा रहे थे । यह भी लगा कि 'नेरूदा' और 'गिरदा' भाई- भाई तो नहीं ? सच कहूं वह तो लड़कपन की बात थी लेकिन आज 'नेरूदा' और 'गिरदा' सचमुच भाई- भाई लगते हैं ।

- 'हवा के तमाम किस्से हैं : कविता की नदी में धंसान ' / सिद्धेश्वर सिंह
( २७ अक्टूबर २००७ को 'कबाड़ख़ाना' पर प्रकाशित एक पोस्ट का अंश )
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( चित्र:  उत्तराखंड डब्ल्यू एस से साभार।)

6 comments:

  1. नमन एवं श्रृद्धांजलि!

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  2. गिरदा के निधन की ख़बर सुनकर पहले झटका लगा, फिर लगा, उन्होंने अच्छी ज़िंदगी जी, उनके गीतों में हमारे लिए सोचने-समझने का पूरा संसार है। कोसी नदी पर उनका गीत और ज्यता एकदिन तो आवैं...मुझे बहुत पसंद हैं।

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  3. बहुत बहुत श्रद्धान्जलि।

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  4. झोला लटकाए, हाथ लहरा-लहरा कर जनगीत गाते गिर्दा की छवि उन्हें जानने वाले हर व्यक्ति की यादों में हमेशा बसी रहेगी।

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  5. खेद ये है की कुछ दिनों पहले तक इनके बारे में नहीं जानती थी और अब जानती हूँ तो...

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