कल आपको राजेश शर्मा की कविता से परिचित करवाया था. आज उनकी एक और कविता. प्रभुदयाल की छवि को लेकर लिखी उनकी एक और कविता कल पढ़िये.
हम, प्रभुदयाल और हंसती हुई औरत
एक.
उसकी हंसी
उस हद के बाद शुरू होती है
जहां साबुत कुछ भी नहीं था
तिनका-तिनका राख़ था
जैसे प्रभुदयाल जमाता है
गोदाम में गेहूं की बोरियां
वसे ही फूंस पर फूंस की जमी
हज़ारों झोपड़ियों का ख़ाक था
साबुत वहां कुछ भी नहीं था
तिपाई पर रखे दादा के
बूढ़े चश्मे का एक शीशा
उसे मिल गया था
चारपाई के पीछे टंगी गणेश के
चित्र की सूंड़ अवश्य ही
उस चितकबरी हवा में
छटपटा रही थी
लेकिन उसकी लाल-हरी धोती ने
चरम दृश्य में रंग भरे थे
और चूल्हे के पास रक्खी
दाल की पोटली
उस महाभंडारण के काम आ गयी थी
वहां साबुत कुछ भी न था
आग के बाद वहां साबुत
कुछ भी न था
उसकी हंसी
उस हद के बाद शुरू होती है.
दो.
वह हंस रही थी
उसकी गोद में एक बच्चा था जो
सिर्फ़ इसलिए रो रहा था कि
उसे मां का दूध नहीं मिला था
पर वह हंस रही थी
मां हंस रही थी
सारी की सारी झोपड़पट्टी राख
हो चुकी थी
उसने हंसते-हंसते दाईं ओर
हाथ फैअलाया
उसके हाथेक हांडी लगी
आग में पकी करैत हांडी
अपनी ग्यारहवीं मंज़िल से उतरकर
तब प्रभुदयाल जी आए
उसका हाल पूछने
पुलिस थी
फ़ौज थी
फाटा था
वह हंस रही थी
और उसकी गोद का बच्चा
रो रहा था
भैया आप कहां रहते हो?
ग्यारह बन के कुंएं में!
ग्यारह कोस दूर!
ग्यारह मंज़िल पर!
यह क्या होता है
अब प्रभुदयाल जी हंसे-बोले
औरत! यह जो तुम्हारी हांडी है
इसके ऊपर दो हज़ार हांडी जमा जाओ
फिर गर्दन उलटकर देखो
ऊपर मैं ही दिखाई पड़ूंगा.
तीन.
मैंने एक हज़ार मीटर ज़मीन
अभी खरीदी है
मैं उठाऊंगा अपने वर्चस्व को
ऊंचा उस पर
मेरा दोस्त अपने दाहिने दुनिया के
दुखों को देखने के लिए
अपना स्टडीरूम बनवा रहा है
यहीं कहीं बूढ़े-उदास कांपते घुतने हैं
हवा से तेज़ भागती बच्चों की हंसी
और देर रात की सिसकियां हैं
अपनी आराम्कुर्सियों पर पसरे इन्हें
हम किताबों में खोज रहे हैं
यहीं अपनी करैत हांडी को
एक हाथ और बच्चे को दूसरे हाथ
पर लिए
राख के बिस्तरे से वह औरत
उठ खड़ी हुई थी
कोई बताए!
आगे कहीं ज़मीन होगी
कोस, दो कोस, दस कोस दूर
जहां ईंट न हो
गारा न हो
चूना न हो
जहां मेरी दो हज़ार हांडियों से
नीचे उतरता प्रभुदयाल न हो
प्रभुदयाल न हो
सिर्फ़ ज़मीन हो ...
3 comments:
Ultimate !
बेहद गहन रचना।
संवेदनात्मक कविताये।
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