Sunday, January 29, 2012

नए तिब्बत की कविता - ८


दगा

तेनजिन त्सुंदे

हमारे घर,
हमारे गाँव, हमारे देश को बचाने की कोशिश में
मेरे पिता ने अपनी जान गंवाई.
मैं भी लड़ना चाहता था.
लेकिन हम लोग बौद्ध हैं.
शांतिप्रिय और अहिंसक.
सो मैं क्षमा करता हूँ अपने शत्रु को.
लेकिन कभी कभी मुझे लगता है
मैंने दगा दिया अपने पिता को.

2 comments:

  1. जब दोनों ही तरह से संस्कृति जा रही हो तो पिता की राह चलना श्रेयस्कर..

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  2. बहुत बेहतरीन कविताये जिसमे तिब्बत के यातना को अभिब्यक्त किया गया है कवि के भीतर बेचैनी का भव है .हमे यह कविताये बताती है कि अपने देश से अलग हो कर दूसरे तरह का जीवन जीना कितना कठिन है, लेकिन हम कविताओ के जरिये अपनी बात दूर तक पहुचा सकते है है . ये कविताये हृदयविदारक है. इसमे कवि की पीडा दिखाई देती है

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