Saturday, February 2, 2013

एक दिन में नहीं बन गयी वर्णमाला


एक दिन में

-हरीश चन्द्र पांडे

दन्त्य को दाँतों का सहारा

जितने सघन होते दाँत
उतना ही साफ़ उच्चरित होगा
दाँत छितरे हो तो सीटी बजाने लगेगा

पहले पहल
किसी सघन दाँतों वाले मुख से ही फूटा होगा
पर ज़रूरी नहीं
उसी ने दाख़िला भी दिलवाया हो वर्णमाला में को 
सबसे अधिक चबाने वाला
ज़रूरी नहीं, सबसे अधिक सोटने वाला भी हो

यह भी हो सकता है 
असमय दन्तविहीन हो गये
या आड़े-तिरछे दाँतों वाले ने ही दिया हो वर्णमाला को
अभाव न ही दिया हो भाव

क्या पता किसी काट ली गयी जुबान ने दिया हो
अचूमे होठों ने दिया हो
प्यासे कण्ठ ने दिया हो
क्या पता अभवों के व्योंम से ही बनी हों
सारी भाषाओं की वर्णमालाएँ 
और एक दिन में ही नहीं बन होगी कोई भी वर्णमाला...

ध्वनि शुरू हो इस यात्रा में
वर्णमाला तक
आये होगें कितने पड़ाव
कितना समय लगा होगा
कितने लोग लगे होगें !

दिये होंगे कुछ शब्द जंगलों ने कुछ घाटियों ने 
कुछ बहाव ने दिये होंगे कुछ बाँधों ने
कुछ भीड़ के एकान्त ने दिये होंगे
कुछ धूप में खड़े पेड़ों की छाँव ने
कुछ आये होंगे अपने ही अन्तरतम से
और कुछ सूखे कुओं की तलहटी से
कुछ पैदाइशी किलकारी ने दिये होंगे 
कुछ मरणान्तक पीड़ा ने 
सुनी गयी होंगी ये सारी ध्वनियाँ सारी आवाज़ें 
सुनने वाला ही तो बोला करता है

पहली बार बोलने से पूर्व 
जाने कितने दिनों तक 
कितने लोगों को सुनता है एक बच्चा
जाने कितने लोग रहे होगें
कितने दिनों तक 
शब्दों को सुनने ही से वंचित

न सुनने ने भी दिये होगें कितने-कितने शब्द

एक दिन में नहीं बन गये अक्षर
एक दिन में नहीं बन गयी वर्णमाला
एक दिन में नहीं बन गयी भाषा
एक दिन में नहीं बन गयी पुस्तक 

लेकिन 
एक दिन में नष्ट किया जा सकता है कोई भी पुस्तकालय

3 comments:

Rahul Singh said...

अंतिम पंक्ति ने पूरा स्‍वाद बिगाड़ दिया कविता का, प्रवाह में स्‍वाभाविक अंतिम पंक्तियां होनी थीं- एक दिन में नष्ट किया जा सकता है कोई भी पुस्तकालय, लेकिन शब्‍द नहीं.

Rajendra kumar said...

बहुत ही सार्थक अभिव्यक्ति।

Rajesh Kumari said...

बिलकुल सही कहा बहुत सुन्दर सार्थक विचारणीय एक अलग तरह की अभिव्यक्ति बहुत पसंद आई