Monday, August 5, 2013

पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई – मन्ना डे का इंटरव्यू – भाग १


मन्ना डे का असली नाम है प्रबोध चन्द्र डे. १ मई १९१९ को जन्मे मन्ना दा ने हिन्दी और बंगाली के अलावा गुजराती, मराठी, मलयालम, कन्नड़, असमिया, भोजपुरी, अवधी, पंजाबी, मैथिली, कोंकणी, सिंधी और छत्तीसगढ़ी में पार्श्वगायन किया है. १९४२ में आई फ़िल्म ‘तमन्ना’ से उन्होंने अपने पार्श्वगायन करियर का आग़ाज़ किया था. वे अब तक कोई चार हज़ार गाने रेकॉर्ड करा चुके हैं. पद्मश्री, पद्मभूषण और दादा साहेब फाल्के जैसे उच्चतम सम्मान पा चुके मन्ना दा अपने जीते जी एक गाथा बन चुके हैं.

इस साल ८ जून को उन्हें बंगलौर के एक अस्पताल में भरती कराया गया और ९ तारीख़ को उनकी मृत्यु की अफवाहें तक फैलना शुरू हुईं. लेकिन उनका इलाज कर रहे चिकित्सकों ने इन अफवाहों को विराम देते हुए बताया कि वे बेहतर हैं और वेंटीलेटर पर हैं. ५ जुलाई को उन्हें वेंटीलेटर से हटा लिया गया और अब वे पहले से कहीं बेहतर हैं. हमारी प्रार्थना है मन्ना दा शतायु हों.

लिटलइण्डिया डॉट कॉम ने मन्ना दा का एक इंटरव्यू २००३ में लिया था. आज वहीं से साभार उस का हिन्दी अनुवाद मैं आपके लिए पेश कर रहा हूँ.

भारत के पुरुष गायकों में वे सम्भवतया अंतिम लिविंग लेजेंड हैं जिनकी आवाज़ की नक़ल कर पाना किसी के भी बूते की बात नहीं रही. आज जबकि पुराने समय के हर गायक के क्लोन देखने को मिल जाते हैं इस गायक की निखालिस अतुलनीय आवाज़ वर्षों से वैसी ही बनी हुई है. ८४ की आयु में भी वे पूरी तरह चुस्त और तंदुरुस्त हैं और इसका प्रमाण उन्होंने हाल ही में अटलांटा की रोबिन रैना फाउंडेशन के लिए गरीब बेसहारा बच्चों के वास्ते धन जुटाने हेतु आयोजित एक कंसर्ट में लगातार चार घंटे गा कर दिया.

लिटल इण्डिया को दिए इस एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में शालीन कपड़े पहने मन्ना दा संगीत से भरे अपने जीवन और कम्पोज़र और गायक के तौर पर अपने करियर के बारे में तो बताते ही हैं, वे इस बात को भी रेखांकित करते चलते हैं कि अपने हिस्से का पूरा श्रेय न मिलने के बावजूद किस जिंदादिली और विनम्रतापूर्ण ह्यूमर के साथ उन्होंने अपने हरेक फ़र्ज़ को अंजाम दिया.

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बड़े होने और संगीत की आपकी शुरुआती स्मृतियाँ कैसी हैं?

अपने शुरुआती दिनों में अपने विख्यात चाचा के.सी. डे की वजह से मैं हमेशा संगीत से घिरा रहता था. लेकिन जब वे १३ की आयु में अपनी दृष्टि गँवा बैठे और अपने जीवनयापन के लिए संगीत का सहारा लेने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं बचा. परिवार में किसी और का रुझान संगीत की तरफ नहीं रहा. एक सज्जन ने उन्हें सहारा दिया क्योंकि उनकी निगाह में मेरे चाचा एक म्यूजिकल जीनियस थे, जो कि वे थे भी, और उन्हें बड़े उस्तादों के चरणों में बैठकर संगीत सीखने का मौका मुहैय्या करवाया.

बदले में चाचा ने अपना अर्जित ज्ञान मुझे और मेरे स्वर्गीय भाई को दिया, लेकिन इसके पहले उन्होंने साफ साफ शब्दों में हमें बतला दिया था कि उस तरह की संगीत शिक्षा के लायक बन पाने के लिए हमारे भीतर उत्कंठा होनी चाहिए और यह भी कि हमें उसके लिए कड़ी मेहनत करना होगी.

इसके अलावा हमारे परिवार की कोई म्यूजिकल हिस्ट्री नहीं है; हाँ यह बात दीगर है कि अलाउद्दीन खान साहब, स्वर्गीय विलायत खान के पिता इनायत खान जैसे और कई संगीतकार हमारे घर आते रहते थे क्योंकि ये सब मेरे चाचा के समकालीन थे.

हमारा संयुक्त परिवार था तब, जो अब भी है, और मेरे पिता, चाचा और मैं उसी घर में पैदा हुए थे. तब भी मेरे पिता और मेरे बड़े चाचा जो एक इंजीनियर थे और परिवार के सारे फ़ैसले ख़ुद ही ले लेने के हिमायती भी, ने साफ़ साफ़ कह दिया था कि मुझे पहले अपनी पढ़ाई पूरी करनी होगी और वे चाहेंगे कि मैं वकालत पढूं. अंडर ग्रेजुएट की पढ़ाई के बाद मेरे सामने दो रास्ते थे – वकालत या संगीत. मैंने संगीत को चुन लिया. मेरे पिता इस से बहुत ख़ुश नहीं हुए पर मेरे चाचा ने मेरा बहुत समर्थन किया और मुझे सिखाना शुरू कर दिया. के. सी. डे ने कभी शादी नहीं की, सो मैं उनके बेटा जैसा बन गया, और जब तक मैं ज़रूरी चीज़ों का समर्पण करने को तैयार था, वे मुझे मेरे हर सपने को पूरा करने की राह तक ले जाने को तत्पर रहने वाले थे. तब तक मैंने संगीत की कोई औपचारिक दीक्षा कहीं से नहीं ली थी.

जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ अन्य बंगाली परिवारों की तरह संगीत हमारे बड़े होने का हिस्सा था, सो मैं संगीत की ध्वनियों के साथ ही सोया और जागा करता था, और चेतन-अचेतन दोनों तरह से संगीत को आत्मसात करने की कोशिश करता था. इसलिए जब मेरे चाचा ने मुझे सिखाना शुरू किया, मैं पूरी तरह से नौसिखुवा नहीं था.  

तो क्या आपको संगीत सीखने के दौरान उस कड़े अनुशासन से भी गुजरना पड़ा जिसके तहत गुरु अपने चेलों को बाकायदा सज़ा दिया करते थे – गुरुओं द्वारा दिए जाने वाली सजाओं के ऐसे तमाम किस्से सुनने को मिलते हैं जैसे मिसाल के लिए अली अकबर खान को पेड़ से बाँध दिया गया था.

माफ़ कीजिये इस तरह की अप्रोच को मैं बहुत महत्व नहीं देता. मेरे चाचा काम निकलवाने के मामले में कठोर थे ज़रूर पर निर्दय और क्रूर तो हर्गिज़ नहीं. वे अनुशासन के हिमायती थे औए जिस दिन मैंने गायक बनने का फ़ैसला किया उन्होंने मुझे एक तानपूरा दिया और वे उम्मीद करते थे कि मैं उस पर भरपूर मेहनत करूंगा. मुझे मुक्केबाजी और कुश्ती जैसे आउटडोर खेलों का बड़ा शौक था और पतंग उड़ाना भी अच्छा लगता था. मैं अपने को ख़ासा बहादुर समझता था और जब भी संगीत का अभ्यास करने के बजाय मैं खेल रहा होता था तो वे मुझे डांट अवश्य लगाते थे लेकिन उस तरह नहीं जैसे कई दूसरे अपने छात्रों के साथ करते थे. उनकी चिंता प्रेम से उपजती थी और वे चाहते थे मैं अपना ध्यान सही जगह लगाऊँ.

लोगों को सुगम संगीत से परिचित कराने वालों में वे एक पायनियर की हैसियत रखते थे. हाँ और बहुत सारे लोगों को तो यह तक मालूम नहीं था कि मेरे चाचा शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित थे और ध्रुपद, धमार, ख़याल, ठुमरी, टप्पा और ग़ज़ल गाया करते थे. वे खासे वर्सेटाइल थे और उन दिनों जब हर कोई शास्त्रीय संगीत ग़ा रहा था वे सुगम संगीत गाया करते थे. यह उनका मास्टर स्ट्रोक था. मुझे आज तक यह समझ में नहीं आता कि उन्हें इस बात का कैसे भान हुआ कि शास्त्रीय संगीत को समझने वाले सीमित होते हैं और यह कि संगीत को सरल बना देने से उनके श्रोताओं में अच्छी वृद्धि होगी और ऐसा हुआ भी. उन्होंने अपने संगीत को ऐसे खांचे में ढाला कि आम आदमी भी उसे समझ सके और उस के साथ आइडैन्टीफाई कर सके. परिणामतः बंगाल में उन्हें पूजा जाता था. जब उन्होंने भारतीय फिल्मों में गाना शुरू किया वे सारे भारत में रातोंरात प्रसिद्ध हो गए. मुझे उनके साथ कराची जाने की याद है. जब वे अपने लोकप्रिय गाने जैसे ‘मन की आँखें खोल बाबा’ या ‘तेरी गठरी में लागा चोर मुसाफिर’ गाना शुरू करते थे तो सारी ऑडिएंस उनके साथ गाना शुरू कर देती थी. वह अपने आप में अविस्मरणीय अनुभव था.

हालांकि आप के पास भी क्लासिकल संगीत की अथाह रेंज है आप ख़ुद सुगम संगीत को ज़्यादा पसंद करते हैं.

एक मज़बूत बुनियाद के लिए क्लासिकल की ट्रेनिंग ज़रूरी है लेकिन ईमानदारी से कहूं तो मैं शास्त्रीय गायन के लिए बना ही नहीं था. मेरी इस तथ्य में ज़्यादा रूचि नहीं कि आप बैठकर एक ही राग को दो-तीन घंटों तक गाते रहें. उसमें बहुत दोहराव होता है और श्रोताओं के धैर्य की खासी परीक्षा हो जाती है. के. सी. डे मेरे जीवन पर प्रभाव डालने वाले पहले व्यक्ति थे और बिलकुल शुरुआत से मेरी गायन शैली उन्हीं के गायन पर ढली है. ऐसा लगता है कि चीज़ों को समझ लेने की मेरी क्षमता भी ठीकठाक थी और उनके बजाए पीसेज को मैं टेबल पर जस का तस दोहरा सकता था और वैसे ही ग़ा भी लेता था. मेरे चाचा अपने दोस्तों को लेकर बड़े सतर्क रहते थे और चाहते थे कि मैं भी वैसा ही बनूँ. वे नहीं चाहते थे कि मैं रुचिहीन लोगों के साथ उठूं-बैठूं. अच्छा प्रभाव और सम्पूर्ण मित्रताएं बहुत ज़रूरी होती थीं और नैन आज तक इस बात का अनुसरण करता हूँ.

आपने कलकत्ता छोड़ा और गायन के क्षेत्र में हाथ आजमाने बंबई चले गए. कैसी रही वह यात्रा?

कलकत्ते का संगीत मुझे परेशान करने लगा था. वहां रबीन्द्र संगीत के अलावा कुछ था ही नहीं सो मैंने बंबई जाने का फ़ैसला किया अलबत्ता मुझे नहीं पता था कि यह सब इतना मुश्किल होगा. पहली बात तो यह थी कि बंगाली होने के नाते मैं एक बाहरी आदमी था और मुझे इस तरह के कमेंट्स सुनने को मिलते थे कि अरे बंगाली बाबू वापस बंगाल जाओ, अपने रसगुल्ले खाओ और वहीं रहो. मैं अपने चाचा के साथ गया था सो चीज़ें उतनी दुश्वार नहीं थीं. मैंने पांच साल तक उनके असिस्टेंट का काम किया और उस ज़माने के हिसाब से मुझे ५०० रूपये का शाही वेतन मिला करता था.


२२-२३ की आयु में मुझे अपना पहला ब्रेक मिला जब मैंने फ़िल्म ‘रामराज्य’ के लिए “ऊपर गगन विशाल” गाया और तुरंत मुझ पर एक धार्मिक गायक का ठप्पा लगा दिया गया. था तो मैं बीसेक साल का पर मुझे लगातार फिल्मों में बूढ़े दाढ़ी वाले किरदार निभाने के ऑफर मिला करने लगे. मेरे लिए यह खासा मुश्किल समय था. जाने माने फ़िल्म मेकर बिमल रॉय के लिए मैंने “चली राधे रानी अंखियों में पानी” गाया. वह बड़ा हिट हुआ और बिमल रॉय ने पूछा “मन्ना तुमने स्क्रीन पर वह गाना देखा है?” जब मैंने न में जवाब दिया तो वे बोले कि मुझे उसे देखना चाहिए कि उसे देखकर दर्शक किस कदर प्रभावित हो रहे हैं.  सो मैंने वैसा ही किया और क्या देखा – एक कोई बूढा दढ़ियल आदमी उस गीत को ग़ा रहा था. मैं तो ग़ुस्से में पगला ही गया. मैं दोहरी मनः स्थिति में था – वापस कलकत्ता चला जाऊं या वहीं रहकर संघर्ष करता रहूँ.

(जारी) 

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