क्या करूं
-वीरेन डंगवाल
क्या
करूं
कि रात न हो
टीवी का बटन दबाता जाऊं देखूं खून-खराबे या नाच-गानों के रंगीन दृश्य
कि रोऊं धीमे-धीमे खामोश
जैसे दिन में रोता हूं
कि सोता रहूं
जैसे दिन-दिन भर सोता हूं
कि झगड़ूं अपने आप से
अपना कान किसी तरह काट लूं
अपने दांत से
कि टेलीफोन बजाऊं
मगर आंय-बांय-शांय कोई बात न हो
कि रात न हो
टीवी का बटन दबाता जाऊं देखूं खून-खराबे या नाच-गानों के रंगीन दृश्य
कि रोऊं धीमे-धीमे खामोश
जैसे दिन में रोता हूं
कि सोता रहूं
जैसे दिन-दिन भर सोता हूं
कि झगड़ूं अपने आप से
अपना कान किसी तरह काट लूं
अपने दांत से
कि टेलीफोन बजाऊं
मगर आंय-बांय-शांय कोई बात न हो
1 comment:
क्या करूं
कि रात न हो
छोटी सी कविता का पहला ही सवाल बेहद महत्वपूर्ण है।
कवि कितनी शिद्दत से चाहता हैं कि बुराई का प्रतीक अँधेरा आए ही ना।
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