Tuesday, October 1, 2013

मगर आंय-बांय-शांय कोई बात न हो


क्या करूं

-वीरेन डंगवाल


क्‍या करूं 
कि रात न हो 

टीवी का बटन दबाता जाऊं देखूं खून-खराबे या नाच-गानों के रंगीन दृश्‍य 

कि रोऊं धीमे-धीमे खामोश 
जैसे दिन में रोता हूं 

कि सोता रहूं 
जैसे दिन-दिन भर सोता हूं 

कि झगड़ूं अपने आप से 
अपना कान किसी तरह काट लूं 
अपने दांत से 

कि टेलीफोन बजाऊं 
मगर आंय-बांय-शांय कोई बात न हो

1 comment:

प्रदीप कांत said...

क्‍या करूं
कि रात न हो

छोटी सी कविता का पहला ही सवाल बेहद महत्वपूर्ण है।

कवि कितनी शिद्दत से चाहता हैं कि बुराई का प्रतीक अँधेरा आए ही ना।