Thursday, February 28, 2013

कुम्भ की तस्वीरें - रोहित उमराव के कैमरे से - ५










किसी धावक की तरह पार नहीं करना चाहता यह छोटा सा जीवन



दौड़

-कुमार अम्बुज 

मुझे नहीं पता मैं कब से एक दौड़ में शामिल हूँ
विशाल अंतहीन भीड़ है जिसके साथ दौड़ रहा हूँ मैं
गलियों मेंसड़कों परघरों की छतों परतहखानों में
तनी हुई रस्सी पर सब जगह दौड़ रहा हूँ मैं
मेरे साथ दौड़ रही है एक भीड़
जहाँ कोई भी कम नहीं करना चाहता अपनी रफ्तार

मुझे ठीक-ठीक नहीं मालुम मैं भीड़ के साथ दौड़ रहा हूँ
या भीड़ मेरे साथ
अकेला पीछे छूट जाने के भय से दौड़ रहा हूँ
या आगे निकल जाने के उन्माद में
मुझे नहीं पता मैं अपने पड़ौसी को परास्त करना चाहता हूँ
या बचपन के किसी मित्र को
या आगे निकल जाना चाहता हूँ किसी अनजान आदमी से
मैं दौड़ रहा हूँ बिना यह जाने कि कौन है मेरा प्रतिद्वंद्वी

जब शामिल हुआ था दौड़ में
मुझे दिखाई देती थीं बहुत सी चीजें
खेतपहाड़जंगल
दिखाई देते थे पुलनदियाँखिलौने और बचपन के खेल
दीखते थे मित्रोंरिश्तेदारों और परिचितों के चेहरे
सुनाई देती थीं पक्षियों की आवाजें
समुद्र का शोर और हवा का संगीत

अब नहीं दिखाई देता कुछ भी
न बारिश   न धुंध
न खुशी   न बेचैनी
न उम्मीद  न संताप
न किताबें  न सितार
दिखाई देते हैं सब तरफ एक जैसे लहुलुहान पाँव
और सुनाई देती हैं सिर्फ उनकी थकी और भारी
और लगभग गिरने से अपने को सँभालती हुईं
धप धप्प धप्प् सी आवाजें

तलुए सूज चुके हैं सूख रहा है मेरा गला
जवाब दे चुकी हैं पिंडलियाँ
भूल चुका हूँ मैं रास्ते
मुझे नहीं मालूम कहाँ के लिए दौड़ रहा हूँ और कहाँ पहुँचूँगा
भीड़ में गुम चुके है मेरे बच्चे और तमाम प्यारे जन
कोई नहीं दिखता दूर-दूर तक जो मुझे पुकार सके
या जिसे पुकार सकूँ मैं कह सकूँ कि बसबहुत हुआ अब

हद यह है कि मैं बिलकुल नहीं दौड़ना चाहता
किसी धावक की तरह पार नहीं करना चाहता यह छोटा सा जीवन
नहीं लेना चाहता हाँफती हुईं साँसें
हद यही है कि फिर भी मैं खुद को दौड़ता हुआ पाता हूँ
थकान से लथपथ और बदहवास

Wednesday, February 27, 2013

कुम्भ की तस्वीरें - रोहित उमराव के कैमरे से - ४











पर भी मुझे विश्वास करना होगा निराशाऍं अपनी गतिशीलता में आशाऍं है



परचम

-कुमार अम्बुज 

हर चीज इशारा करती है
तालाब के किनारे अँधेरी झाड़ियों में चमकते हैं जुगनू
दुर्दिनों के किनारे शब्द
मुझे प्यास लग आयी है और यह सपना नहीं है
जैसे पेड़ की यह छाँह मंजिल नहीं है
एक आदमी उधर सूर्यास्त की तरफ जा रहा है
वह भी इस जीवन में यहॉं तक चलकर ही आया है
यह समाज जो आखिरकार एक दिन आज़ाद होगा
उसकी संभावना मरते हुए आदमी की आँखों में है
मृत्यु असफलता का कोई पैमाना नहीं है

वहाँ एक फूल खिला हुआ है अकेला
कोई उसे छू भी नहीं रहा है
किसी दुपहरी में वह झर जाएगा
लेकिन देखो वह खिला हुआ है
एक पत्थर भी वहाँ किसी की प्रतीक्षा में है
सिर्फ संपत्तियाँ उत्तराधिकार में नहीं मिलेंगी
गलतियों का हिसाब भी हिस्से में आएगा
यह जीवन है धोखेबाज पर भी मुझे विश्वास करना होगा
निराशाऍं अपनी गतिशीलता में आशाऍं है

मैं रोज परास्त होता हूँ
इस बात के कम से कम बीस अर्थ हैं
वैसे भी एक-दो अर्थ देकर
टिप्पणीकार काफी कुछ नुकसान पहुँचा चुके हैं
गिनती असंख्य को संख्या में न्यून करती चली जाती हैं
सतह से जो चमकता है वह परावर्तन है
उसके नीचे कितना कुछ है अपार
शांत चपल और भविष्य से लबालब भरा हुआ

Tuesday, February 26, 2013

कुम्भ की तस्वीरें - रोहित उमराव के कैमरे से - ३











वे इतनी पूजनीय हैं कि अस्पृश्य हैं



साध्वियाँ

-कुमार अम्बुज

उनकी पवित्रता में मातृत्व शामिल नहीं है
संसार के सबसे सुरीले राग में नहीं गूँजेगी
उनके हिस्से की पीड़ा

परलोक की खोज में
इसी लोक में छली गयीं वे भी आखिर स्त्रियाँ हैं
जिनसे हो सकती थी वसंत में हलचल
वे हो सकती थीं बारिश के बाद की धूप
या दुनिया की सबसे तेज धाविकाएँ
कर सकती थीं नये आविष्कार
उपजा सकती थीं खेतों में अन्न
वे हो सकती थीं ममता का अनथका कंठ
जिसकी लोरी से धरती के बच्चों को
आती हैं नींद

मगर अब वे पवित्र सूखी हुयी नहरें हैं
धार्मिक तेज ने सोख लिया है
उनके जीवन का मानवीय ताप
वे इतनी पूजनीय हैं कि अस्पृश्य हैं
इतनी स्वतंत्र हैं कि बस
एक धार्मिक पुस्तक में कैद हैं

उनका जन्म भी
किसी उल्लसित अक्षर की तरह हुआ था
और शेष जीवन
एक दीप्त-वाक्य में बुझ गया

Monday, February 25, 2013

कुम्भ की तस्वीरें - रोहित उमराव के कैमरे से - २












चँदेरी के सपने में दिखायी देते हैं मुझे


चँदेरी

-कुमार अम्बुज

चँदेरी मेरे शहर से बहुत दूर नहीं है
मुझे दूर जाकर पता चलता है
बहुत माँग है चँदेरी की साड़ियों की

चँदेरी मेरे शहर से इतने करीब है
कि रात में कई बार मुझे
सुनायी देती है करघों की आवाज
चँदेरी की दूरी बस इतनी है
जितनी धागों से कारीगरों की दूरी

मेरे शहर और चँदेरी के बीच
बिछी हुयी है साड़ियों की कारीगरी
एक तरफ से साड़ी का छोर खींचो
तो दूसरी तरफ हिलती हैं चँदेरी की गलियाँ

गलियों की धूल से
साड़ी को बचाता हुआ कारीगर
सेठ के आगे रखता है अपना हुनर
चँदेरी मेरे शहर से बहुत दूर नहीं है
मुझे साफ दिखायी देता है सेठ का हुनर

मैं कई रातों से परेशान हूँ
चँदेरी के सपने में दिखायी देते हैं मुझे
धागों पर लटके हुये कारीगरों के सिर

चँदेरी की साड़ियों की दूर-दूर तक माँग है
मुझे दूर जाकर पता चलता है