Friday, October 31, 2014

राजनीति जब भागती है तब उसके पैरों से छलछंद की घूल उठती है



मेरे स्कूल बिड़ला विद्यामंदिर, नैनीताल में मेरे सबसे प्रिय गुरुओं में एक श्री राजशेखर पन्त की फेसबुक वॉल से एक पोस्ट शेयर कर रहा हूँ.

अब तो हटना ही चाहिये खेलों की दुनिया से इन नेताओं को

राजशेखर पंत

जयशंकर प्रसादके प्रसिद्ध नाटक ध्रुवस्वामिनी की एक पंक्ति है – “राजनीति जब भागती है तब उसके पैरों से छलछंद की घूल उठती है”. संदर्भ भले ही बदल गये हों पर हकीकत आज भी सौ फीसदी यही है. खेल के मैदान और उस पर दौड़़ने वाले खिलाड़ी की बागडोर जब किसी नेता या राजनीति से जुड़े शख्स के हाथ में होती है तब विजय का उल्लास, उपलब्घि की संतुष्टि, पराजय से जन्मी कशमकश और आत्म-विश्लेशण या फिर खेल भावना और नेतृत्व की क्षमता के स्थान पर दिखायी देता है पद का दुरुपयोग, प्रतिभा की उपेक्षा, करदाता के पैसे से विदेशों में मौजमस्ती और शराब के नशे में गाड़ी चलाने या यौन उत्पीड़न जैसे आरोपों के चलते सारे देश को शर्मसार करने वाली धिनौनी और लिजलिजी हरकतें ... बात यहीं पर खत्म नहीं होती होती. खेल के मैदान पर तब नजर आते हैं वो चेहरे जिनके लिए सरकारी खर्चे पर दुनिया की सैर करना, सुविघाओं को भोगना ज्यादा अहम होता है. तब ओलंपिक या किसी अंर्तराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में जाने वाले खिलाडि़यों के दल से बड़ी हो जाती है उन आफीशियल्स की सेना जो इनके साथ जाती है, और लगे हाथों राजनीति के कुछ घुरंधर खिलाड़ी अपने बच्चों के स्कूल के प्रिसिंपिल्स को भी ग्लासगो की सैर करा लाते हैं. ग्रासरूट लेवल पर प्रतिभाओं की खोज और उन्हैं बढ़ावा देने जैसी बातें तब एक सजावटी सामान बन जाती हैं - 15 अगस्त या 26 जनवरी को झाड़पोंछ कर रखी गयी गांधी की मूर्ति की तरह. कोई चन्द्रप्रकाश मौर्य या एस. पी. पृथ्वी तब बार-बार उपेक्षा का शिकार हो कर आत्महत्या करते हैं और किसी अर्जुन एवार्डी की खस्ताहाली में रिक्शा चलाते हुए खींची गई तस्वीर किसी सांध्य दैनिक के आखिरी पन्ने पर छपी एक छोटी सी खबर भर बन जाती है. और यह सब होता है इसलिए क्योंकि इस देश में हिन्दुस्तान की हाकी टीम का कप्तान रहे किसी परगट सिंह की हाकी इंडिया का अघ्यक्ष बनने की दावेदारी को अक्सर किसी 85 वर्षीय विद्या स्टोक्स के बरक्स खारिज कर दिया जाता है.

इन विसंगतियों की फेहरिस्त निहायत ही लंबी है और शायद इससे भी लंबी है उन स्पोट्र्स फेउन्डेशन्स की सूची जिनमें से अघिकांश के अघ्यक्षपद पर राजनीति से जुड़ी शख्सियतों का कब्जा है. राजनीति से अप्रसांगिक हो चुके बहुत से पुराने सामानों को खेल की राजनीति आज भी प्रासंगिक बनाये हुए है. 

इन खेल संगठनों और उन राजनैतिक शख्सियतों का व्यक्तिगत रूप से उल्लेख करना, जो कि पिछले बीस-तीस सालों से इन्हैं अपनी मिल्कियत बनाये हुए हैं यहाँ जरूरी नहीं है. बड़ा सवाल यह है कि खेल जो जमीन, घूल, मट्टी और पसीने से जुड़ा एक सरोकार है उससे अक्सर आसमान में उड़ने वाले राजनैतिज्ञ क्यों जुड़ना चाहते हैं? जब कि यह साफ है कि इन लोगों का खेलों से वैसा ही संबंघ है जैसा कि किसी महानगर की हाइराइज बिल्डिंग में रहने वाले शख्स का हिमालय की तलहटी पर स्थित किसी उजड़े हुए गाँव या खलिहान से होता है. वास्तव में खेल सामान्य जनों से, वोटर से जुड़ी एक फितरत है. जाति घर्म जैसे सरोकारों से उपर है ये. देश के युवा वर्ग में, जिसका प्रतिशत हमारे देश में काफी बड़ा है, यह सीघे जुड़ा है. इसके सहारे राष्ट्रवाद से ले कर क्षेत्रीय अस्मिता तक की भावनाओं को आसानी से भड़काया जा सकता है. एक खालिस शास्त्रीय किस्म का उदाहरण इसे और अघिक स्पष्ट कर देगा. याद कीजिये एक अज़ीम सियासी शख्सियत शरद पवार का राजनैतिक ग्राफ. महाराष्ट्र की क्षेत्रीय राजनीति से चल कर केन्द्र में कृषि मंत्री बनने तक के उनके सफर में कबड्डी और खो-खो जैसे ठेठ मराठी खेलों से ले कर बीसीसीआई से उनके जुड़ने तक की अन्र्तकथा समानांतर रूप से चलती है. बीसीसीआइ की अघ्यक्षता से पहले वह कबड्डी और खो-खो एसोसिएशन के भी प्रधान रहे थे. एक और वाकया है. हमारे तीन बाक्सर्स विजयेन्द्र सिंह, अखिलेश कुमार और जितेन्द्र कुमार जब अच्छे प्रर्दशन के बाद बिजिंग से लौटते हैं, तो हरियाणा की तत्कालीन हुड्डा सरकार का सारा अमला उन्हैं हुड्डा साहब की ब्रेकफास्ट टेबल तक ले जाने के लिए दिल्ली एअरपोर्ट पर होता है. पर इसी बीच बाक्सिंग फेडरेशन के अघ्यक्ष अभय चौटाला इन्हैं सीधे एयरपोर्ट से उठा कर उड़न छू हो जाते हैं, और फिर पांच दिनों तक उनके साथ समारोहों और अभिनन्दनों में व्यस्त हो जाते हैं. जाहिर है चैटाला इन दिनों मीडिया में छाये रहते हैं और काँग्रेस सरकार को इस उपलब्घि के बचे खुचे दोहन का मौका एक हफ्ते बाद मिलता है.

बात सिर्फ प्रचार या चर्चा में बने रहने भर की नहीं है. अकेले राष्ट्रीय खेल फेडरैशन लगभग 50 करोड़ का बजट खेलों के लिए मुकर्रर करता है. खेल से जुड़ा हर संगठन इस पैसे को लेता है. पर टैक्स पेयर की जेब से गये इस पैसे का हिसाब कोई नहीं देता. हास्यास्पद लगता है यह देखना कि मणिशंकर अय्यर जैसा सरकार में मंत्री रहा कोई व्यक्ति यदि इस मुद्दे को उठाता है तो उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है. स्पोर्टस फेडरेशन को नैशनल स्टेडिया में आलीशान आफिस गैस्ट हाउस क्लब इत्यादि मामूली किराये पर मिलते हैं; बावजूद इसके इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन का बिजली का बैकलाग ही, स्पोर्टस अथारिटी आव़ इंडिया के अनुसार, करोड़ों में होता है. मुंबई में फाइल एक पी. आइ. एल. बताती है कि वेस्टर्न इंडियन फुटबाल एसोसिएशन द्वारा नियंत्रित कूपरेज ग्राउंड और मुंबई में ही स्थित महेन्द्रा स्टेडियम खेलों के लिए कम और हाइ प्रोफाइल शादियों के लिए अघिक जाने जाते हैं. विभिन्न स्टेडिआ का उपयोग पार्टियों द्वारा राजनैतिक जलसेां के लिये किया जाता है. स्वाभाविक है राजनैतिक हित जब इस कदर हावी होने लगते हैं तब खेल और खिलाडि़यों का पृष्ठभूमि में जाना तो तय होता ही है. 125 करोड़ की आबादी वाला यह देश एक दर्जन गोल्ड मैडल भी किसी ओलंपिक में नहीं जीत पाता. यहां प्रश्न प्रतिभा की कमी का नहीं उसे पहचानने, उसे संवारने, अवसर देने और उसके दोहन का है, गड़बड़ाती हुई प्राथमिकताओं का है. और जब राष्ट्रीय सन्दर्भों में प्राथमिकताऐं भटक जाती हैं तब खेलों को खोखला करने वाली राजनीति के इतिहास पुरुष रहे सुरेश कलमाडी या प्रहलाद सावंत जैसे लोग महज़ एक दुर्योग या दुर्घटना नहीं, एक आवश्यक बुराई बन जाते हैं. 

राजनेताओं को इन फेडरेशन्स से हटाना एक सामयिक ज़रूरत है और सिविल सोसायटी इस क्षेत्र में निर्णायक भूमिका निभा सकती है. पूर्व ओलंपियन्स द्वारा गठित क्लीन स्पोर्ट्स इंडिया की पहल इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम कही जा सकती है. राजनैतिज्ञों के एकाघिकार को सीघे चुनौती देते हुए, इस संगठन से जुड़ी अश्विनी नाचप्पा कहती हैं कि इन्हैं खेल, खिलाडि़यों के आत्मसम्मान और इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी सुविधाओं की न तो समझ होती है और न ही इसके महत्व का कोई आभास. सी. एस. आई. द्वारा लिखे गये एक पत्र का- जिसमें इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन के खेल के प्रति दुर्भाग्यपूर्ण रवैये को आड़े हाथों लिया गया है- आई. ओ. सी. के प्रेसिडेंट द्वारा संज्ञान लिया जाना ही इस बात का प्रमाण है कि स्थितियां बहुत अच्छी नहीं हैं. राजनैतिज्ञों के खेल जगत में छाये वर्चस्व पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस टी. एस. ठाकुर और जस्टिस चलामेश्वर की बैंच इसे ए सैड कमेंन्ट्री आन स्पोर्टस इन इंडियाकहती है. सोसायटी फ़ॉर जस्टिस ने तो मुंबई हाइकोर्ट में फाइल अपनी पी. आइ. एल. में कुछ नामचीन सियासी हस्तियों को सीधे प्रतिवादी बना दावा किया है कि जो समय इन राजनैतिक हस्तियों को अपने मंत्रालय में बिताना चाहिये था वह पार्टी तथा व्यक्तिगत हितों को साघते हुए इन्होंने स्पोर्टस फेडरेशन में बरबाद किया है.

तो निश्चय ही एक अच्छी शुरुवात हो चुकी है, जो निरंतर बढ भी रही है. इसे यूं ही बढ़ते रहना चाहिये, क्यों कि ऐसा अगर नहीं हुआ तो सवा सौ करोड़ की आबादी वाला यह देश सैकड़ों कलमाडी, शरद पवार या राजीव शुक्ला भले ही पैदा कर ले पर एक ध्यानचंद, सचिन तेंदुलकर या मिल्खा सिंह का पैदा होना महज एक संयोग ही बना रहेगा. खेलों का स्तर तब यूं ही गिरता रहेगा और कभी कभार एक्का-दुक्का मैडल झटक लेने वाले खिलाडि़यों के फोटो हमेशा अपने होठों पर एक पेशेवर मुस्कान चिपकाये रहने वाले इन नेताओं के साथ अखबारों में छपती और न्यूज़ चैनलों पर दीखती रहेगी. ये बात दीग़र है कि तब ज़मींदोज़ हो जाने के इंतजार में क़फन ओढ़ कर बैठा हिन्दुस्तान के खेलों का भविष्य शायद यह कहने लायक भी नहीं रहेगा कि-

उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक 
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है.

राजशेखर पंत

बद्री भवन
साकेत
भीमताल-263136
जि. नैनीताल
उत्तराखंड
मो. 9412100304


ज़ो चेर्नाकोवा के चित्र

मॉस्को के चित्रकार ज़ो चेर्नाकोवा के चित्र पेश हैं -










एक हँसी है जो पछतावे जैसी है, और मायूसी उम्मीद की तरह


चेहरा

- अनीता वर्मा

इस चेहरे पर जीवन भर की कमाई दिखती है
पहले दुःख की एक परत
फिर एक परत प्रसन्नता की
सहनशीलता की एक और परत
एक परत सुन्दरता
कितनी क़िताबें यहाँ इकट्ठा हैं
दुनिया को बेहतर बनाने का इरादा
और ख़ुशी को बचा लेने की ज़िद.

एक हँसी है जो पछतावे जैसी है,
और मायूसी उम्मीद की तरह.
एक सरलता है जो सिर्फ़ झुकना जानती है,
एक घृणा जो कभी प्रेम का विरोध नहीं करती

आईने की तरह है स्त्री का चेहरा
जिसमें पुरूष अपना चेहरा देखता है,
बाल सँवारता है मुँह बिचकाता है
अपने ताकतवर होने की शर्म छिपाता है

इस चेहरे पर जड़ें उगी हुई हैं
पत्तियाँ और लतरें फैली हुई हैं
दो-चार फूल हैं अचानक आई हुई ख़ुशी के
यहाँ कभी-कभी सूरज जैसी एक लपट दिखती है
और फिर एक बड़ी सी खाली जगह.


स्त्रियां नहीं बन सकतीं शराबी, यह कहा होगा कवि ने मेरे हाथ से पीकर



आज अजन्ता देव का जन्मदिन है. आज से कोई छः सात पहले उनकी कविताओं की एक पतली सी किताब मुझे हासिल हुई थी - 'एक नगरवधू की आत्मकथा'. उस कविता संग्रह ने मुझे झकझोर कर रख दिया था. आज भी उस पाए की कविताएँ किसी भी हिन्दी कवयित्री की मेरी निगाह से गुज़री हों मुझे याद नहीं पड़ता. अजन्ता जी को उनके जन्मदिन की बधाईयाँ प्रेषित करता हुआ मैं उनकी कविताओं पर लिखा अपना एक पुराना लेख आपसे साझा करना चाहता हूँ -

इतना झीना जितना नशा, इतना गठित जितना षडयंत्र

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ये अब्र पुराने हैं
बरसेंगे यहीं आकर
मेरा घर जाने हैं.

'माहिया' शीर्षक यह नन्हीं सी कविता अजन्ता देव की छोटी सी कविता-पुस्तिका 'एक नगरवधू की आत्मकथाका हिस्सा है. जब से यह पुस्तिका मेरे पास पहुंची है, इसे दसियों बार पढ़ चुका हूं और हर बार इसमें नये अर्थ मिले हैं.

यूरोप से उधार लिये गये नारीवाद और उत्तर नारीवाद जैसे किताबी सिद्धान्तों की आड़ में युवतर कवयित्रियों की लगतार बढ़ती जाती जमात की एकांगी और रसहीन कविताओं की भीड़ में अलग से छिटक सामने आती है यह ज़बरदस्त पुस्तिका. पहली ही कविता है 'मेरा मिथ्यालय':

आमन्त्रण निमन्त्रण नहीं
अनायास खींच लेता है अपनी ओर
मेरा मिथ्यालय

श्रेष्ठ जनों के बीच
यहीं रचा जाता है
कलाओं का महारास

मेरे द्वार कभी बन्द नहीं होते
ये खुले रहेंगे
तुम्हारे जाने के बाद भी.

एक जड़ समाज की नब्ज़ पर उंगली रख कर हतप्रभ कर देने का यह क्रम अगली कविता 'विपरीत रसायन' में जारी रहता है:

स्त्रियां नहीं बन सकतीं शराबी
यह कहा होगा कवि ने
मेरे हाथ से पीकर
अगर बन जातीं स्त्रियां शराबी
तो पिलाता कौन

मेरे प्याले भरे हैं मद से
केसर कस्तूरी झलझला रही है
वैदूर्यमणि सी
कीमियागर की तरह
मैं मिला रही हूं
दो विपरीत रसायन
विस्फोट होने को है
मैं प्रतीक्षा करूंगी तुम्हारे डगमगाने की.

और आगे देखिये 'रामरसोई' शीर्षक कविता क्या कहती है:

तुम्हारी जिह्वा
ठांव-कुठांव टपकाती है लार
इसे काबू करना तुम्हारे वश में कहां
तुमने चख लिया है हर रंग का लहू

परन्तु एक बार आओ
मेरी रामरसोई में
अग्नि केवल तुम्हारे जठर में नहीं 
मेरे चूल्हे में भी है
यह पृथ्वी स्वयं हांडी बन कर 
खदबदा रही है
केवल द्रौपदियों को ही मिलती है
यह हांडी
पांच पतियों के परमसखा से.

यह एक बेबाक, ईमानदार कथन कहने की हिम्मत है जिसमें अजन्ता देव सारे समाज के सामने एक आईना रखती हुईं 'अन्य जीवन से' में कहती हैं:

किस लोक के कारीगर हो
कि रेशे उधेड़ कर अंतरिक्ष के 
बुना है पटवस्त्र
और कहते हो नदी सा लहराता दुकूल

होगा नदी सा
पर मैं नहीं पृथ्वी सी
कि धारण करूं यह विराट
अनसिला चादर कर्मफल की तरह
मुझे तो चाहिये एक पोशाक
जिसे काटा गया हो मेरी रेखाओं से 
इतना सुचिक्‍कन कि मेरी त्‍वचा
इतने बेलबूटे कि याद न आये
हतभाग्‍य पतझर
सारे रंग जो छीने गये हों
अन्‍य जीवन से

इतना झीना जितना नशा
इतना गठित जितना षडयंत्र


मैं हर दिन बदलती हूं चोला
श्रेष्ठ्जनों की सभा में
आत्मा नहीं हूं मैं
कि पहने रहूं एक ही देह
मृत्यु की प्रतीक्षा में.

"आत्मा नहीं हूं मैं" कह चुकने के साथ ही बहुत सारी जंज़ीरें यक-ब-यक खुलती चली जाती हैं. ज़रा 'कामकेलि' शीर्षक कविता को देखें:

क्या किया मैंने
शैशव से यौवन तक
किया जो भी
वह उपस्थित था धरती पर पहले से

चपल मुद्रा
चतुर स्वभाव
झीना छल
मिला सदैव अपने आसपास
वह जो साधा गया सायास
क्या नहीं था प्रकृति में अनायास

रंगों की इतनी छायाएं
ये प्राणवन्त प्रतिमाएं
फिर भी मेरी यह 
दुर्दान्त धृष्टता

सृष्टि की आदिकला को
मैंने संवारा
कितने श्रृंगार
कितने कपट से
फिर भी अन्त में बच गई 
केवल कामकेलि
मूक पशुओं से सीखी एक कला.

अजन्ता देव की कविताएं इधर लिखी जा रही सपाटबयानी के बीच किसी ख़ुशबूदार झोंके की मानिन्द आपको अपने लपेटे में ले लेती हैं. बहुत दिनों बाद मैंने भाषा में एक नया मुहाविरा, एक नया नैसर्गिक शिल्प और कहीं सूफ़ियाना तो कहीं मन्द्र मेघ जैसा स्वर देखा. यह एक बेहद संवेदनशील और बेहद चौकस रचनाकार है जो अपने समाज और परिवेश के दोमुंहेपन को एक पारदर्शी कौशल के साथ उघाड़ देने की हिम्मत रखता है. और भाषा के साथ वे अनन्त प्रयोग करती चलती हैं. अजन्ता देव की कविताओं का अन्डरस्टेटमेन्ट युवा कवियों के लिये मिसाल है. पुस्तिका से एक और कविता 'रंग है री':

कैसी आंधी चली होगी रात भर
कि उड़ रही है रेत ही रेत अब तक

असंख्य पदचिह्नों की अल्पना आंगन में
धूम्रवर्णी व्यंजन सजे हैं चौकियों पर
पूरा उपवन श्वेत हो गया है
निस्तेज सूरज के सामने उड़ रहे हैं कपोत

युवतियां घूम रही हैं
खोले हुए धवल केश
वातावरण में फैली है
वैधय की पवित्रता
कोलाहल केवल बाहर है

आज रंग है री मां! रंग है री! 



मुफ़्त हुए बदनाम सांवरिया तेरे लिए



बेग़म अख्तर की एक और दुर्लभ ग़ज़ल –

तालीम में गैरबराबरी का जो माहौल आज भारत में दिखता है, ऐसा पहले कभी नहीं रहा

दो दिनों से शिक्षा और शिक्षण पद्धति को लेकर दो महत्वपूर्ण आलेख कबाड़ी आशुतोष उपाध्याय के सौजन्य से इस ब्लॉग पर पोस्ट किये गए हैं. इसी क्रम में आज इत्तफाकन जनाब हरजिंदर सिंह लाल्टू का यह लेख मुझे मित्र विपिन शुक्ल ने मेल किया है और जो ‘जनसत्ता’ में छपा है. सो इस लेख के लिए लाल्टू जी, विपिन जी और ‘जनसत्ता’ का आभार.


समान शिक्षा के लिए संघर्ष

-लाल्टू

पिछले दो दशकों में भारत में शिक्षा व्यवस्था में निजीकरण में तेजी आई है. नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत सरकारी शिक्षा तंत्र को सीमित किया जा रहा है और निजी संस्थानों को बड़े पैमाने पर छूट दी गई है. संयुक्त राज्य अमेरिका (यू एस ए) को पूँजीवाद का गढ़ माना जाता है. मुक्त बाजार के लिए शोर मचाने वाले मुल्कों में और विश्व-स्तर पर पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था की धाक बनाए रखने में यू एस ए की भूमिका प्रमुख है. पर स्कूली तालीम के क्षेत्र में अमेरिका में निजीकरण नगण्य और सीमित स्तर तक लागू है. अधिकतर स्कूल 'नेबरहुड' यानी मुहल्ले के स्कूल कहलाते हैं, जिनका खर्च कहीं संघीय तो कहीं स्थानीय सरकार चलाती है. अधिकतर बच्चों को मुफ्त तालीम मिलती है. उच्च शिक्षा में भी निजी संस्थानों के अलावा सरकारी संस्थानों की भरमार है. निजी संस्थानों में प्रवेश पाने वाले छात्रों को भी पर्याप्त वजीफा मिलता है. आर्थिक सहयोग और विकास संस्था (ओ ई सी डी) के अनुसार यू एस ए में सरकार सकल घरेलू उत्पाद का 5.1% से अधिक शिक्षा में लगाती है. 1990 के तुरंत बाद यह आँकड़ा 5.5% से भी ऊपर था. ध्यान रहे कि भारत की जनसंख्या अमेरिका की तीन गुनी है. अमेरिका और भारत के सकल घरेलू उत्पाद में तकरीबन आठ का अनुपात है. कीमतों के साथ संगत रखते हुए हिसाब लगाया जाए तो यह अनुपात तीन तक पहुँचता है. पिछले पचास वर्षों में भारतीय संविधान के निर्देशक सिद्धांतों के मुताबिक बनी शिक्षा नीति तय करने वाले एकाधिक आयोगों ने सकल घरेलू उत्पाद के 6% तक शिक्षा में लगाने की हिदायत दी है, पर यह आज तक संभव नहीं हो पाया है. 1990 में यह आँकड़ा 4% तक पहुँच गया था, फिर संरचनात्मक आर्थिक सुधारों की वजह से लगातार गिरता चला. आखिरकार सदी के अंत में 3.5% पर टिक गया. 2000-2002 के दौरान शिक्षक आंदोलन के दबाव में बेहतरी के आसार नज़र आ रहे थे, पर वह अस्थायी था और अब 3.5% ही पर टिका हुआ है. मुख्यतः आर्थिक संसाधनों में कमी की वजह से शिक्षा का स्तर कभी भी सही नहीं रहा है.

यूरोप में हंगरी और जर्मनी जैसे मुल्कों में तालीम पर सरकारी खर्च बजट का काफी बड़ा हिस्सा है. भारत में आज तक किसी भी सरकार ने खुद को पूरी तरह पूँजीवादी घोषित नहीं किया है. यह कैसी विड़ंबना है कि हमारे यहाँ शिक्षा का निजीकरण बढ़ता जा रहा है और सरकारी स्कूली व्यवस्था चरमरा रही है. शिक्षा में, खास तौर पर उच्च शिक्षा में विदेशी पूँजी का निवेश भी तेजी से बढ़ा है. 1990 के बाद से नई आर्थिक नीतियों से समाज में गैरबराबरी बढ़ी है और शिक्षा की लगातार तेजी से बढ़ती माँग के बावजूद आम लोगों के लिए स्तरीय शिक्षा मुहैया कराने से सरकार पीछे हटती जा रही है. कई राज्यों में दर्जनों सरकारी स्कूल बंद किए जा रहे हैं. अध्यापकों की भरती नहीं की जा रही. ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि सरकारी स्कूलों में तालीम को लोग घटिया स्तर का मानते हैं. निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए शिक्षा अधिकार कानून (2009) के नाम पर सरकारी स्कूलों के बच्चों को निजी स्कूलों में भेज कर सरकार द्वारा उनका खर्च निजी स्कूल के प्रबंधकों को दिया जाता है. तालीम में गैरबराबरी का जो माहौल आज भारत में दिखता है, ऐसा पहले कभी नहीं रहा. देश की अधिकांश जनता को सरमाएदारी व्यवस्था का गुलाम बनाने के लिए सरकार ने मुहिम छेड़ दी है. मौजूदा सरकार से इस स्थिति को बदले जाने की कोई उम्मीद नहीं है, बल्कि नई सरकार ने आते ही हर क्षेत्र में निजी संस्थानों के लिए सुविधाएँ बढ़ाने में चुस्ती दिखलाई है.

तालीम पर ज़मीनी लड़ाई लड़ रहे शिक्षाविदों और संगठनों ने हमेशा ही इस नाइंसाफी का विरोध किया है और अब अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंचके बैनर तले दर्जनों संगठन अखिल भारत शिक्षा संघर्ष यात्राआयोजित करने में जुट गए हैं. यह यात्रा विभिन्न राज्यों में इरोम शर्मिला के उपवास की शुरूआत के साथ जुड़े दिन2 नवंबर 2014को शुरू होगी और इसका समापन 4 दिसंबर को भोपाल में गैस-कांड की वार्षिकी के दिन होगा. इस यात्रा के ज़रिए ये सभी संगठन मिलकर समान शिक्षा के मुद्दों पर जन-चेतना बढ़ाने और जनांदोलन खड़ा करने की कोशिश करेंगे. मौजूदा बहुपरती शिक्षा प्रणाली को संविधान में घोषित समानता के अधिकार के खिलाफ और भेदभाव बढ़ाने वाली कहते हुए संघर्ष का आगाज़ किया गया है. मंच की प्रमुख माँग देशभर में केजी से पीजीतक सरकारी खर्च पर और पूरी तौर पर मुफ़्त और मातृभाषाओं के शैक्षिक माध्यम पर टिकी हुई ऐसी समान शिक्षा व्यवस्थास्थापित करने के लिए है, जो संविधान में निर्देशित समानता और सामाजिक न्याय की बुनियाद पर खड़ी हो और जिसका लोकतांत्रिक, विकेंद्रित व सहभागिता के सिद्धांतों पर संचालन हो. मौजूदा स्थिति यह है कि संविधान के तहत गठित अकादमिक निकायों (जैसे एनसीईआरटी,यूजीसी) को लगातार दरकिनाकर करते हुए सरकारी नौकरशाही सत्तासीन राजनैतिक दलों और उनके आकाओं के हितों को सामने रखते हुए शिक्षा व्यवस्था पर हावी हो रही है. इसके विपरीत जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था की माँग की जा रही है, उसके तहत हरेक स्कूल का एक तयशुदा पड़ोसहोगा जिसके दायरे में रहने वाले हरेक को - चाहे वह पूंजीपति, नेता, अफ़सर या मज़दूर हो - अपने बच्चों को कानूनन उसी स्कूल में पढ़ाना लाज़मी होगा. प्राथमिक से लेकर जहाँ तक संभव हो सके, उच्च-शिक्षा तक भारतीय यानी मातृभाषाओं में हो, यह पुरानी माँग है. विश्व भर के शिक्षाविदों द्वारा किए शोध से पता चलता है कि कम से कम प्रारंभिक पढ़ाई मातृभाषा में हो तो कुदरती तौर पर मिली संज्ञान की प्रक्रियाएँ सक्रिय रहती हैं और इसके विपरीत शुरूआत से ही परायी भाषा में शिक्षा देने की कोशिश बच्चों को दिमागी तौर पर पंगु बनाती है. मंच ने यह भी माँग रखी है कि बारहवीं कक्षा के बाद मुफ़्त उच्च शिक्षा में भी सभी को समान अवसर मुहैया कराए जाएँ. यहाँ यह रोचक जानकारी सामने रखी जानी चाहिए कि जर्मनी ने हाल में ही उच्च शिक्षा में ट्यूशन फीस हटा दी है यानी कालेज यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए ट्यूशन फीस नहीं ली जाएगी. इसके पीछे सिद्धांत यह है कि समाज में अधिकतर लोग उच्च शिक्षा ले लें तो देश की आर्थिक तरक्की होगी.

पिछले बीस सालों से शिक्षा के निजीकरण और बाज़ारीकरण में जो तेजी आई है, उस के खिलाफ़ भी शिक्षा अधिकार मंच ने आवाज उठाई है. अक्सर मध्य-वर्ग के लोग मानते हैं कि सरकारी स्कूली शिक्षा में स्तर गिरने से ही निजीकरण में बढ़त हुई है. अगर ऐसा है तो उसका समाधान यह है कि सरकारी स्कूली शिक्षा-तंत्र को मजबूत बनाया जाए. हो यह रहा है कि सरकारी शिक्षा-तंत्र को लगातार विपन्नता की ओर धकेला जा रहा है और निजी हितों को बढ़ावा दिया जा रहा है. इसके पीछे ऐसी संवेदनाहीन भ्रष्ट मानसिकता है जो अधिकांश लोगों को मानव का दर्जा देने से विमुख है. निजी उच्च-शिक्षा-संस्थानों में आरक्षण जैसे कल्याणकारी कदमों को भी नकारा जाता है - इस नज़रिए से देखने पर यह ऐसा षड़यंत्र दिखता है जो बहुसंख्यक लोगों के हितों के खिलाफ है. निजी संस्थाओं का पहला उद्देश्य मुनाफाखोरी होता है, और कम से कम भारत में शोध-कार्य में उनका अवदान नगण्य है. अनगिनत छात्र निजी कालेज-विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं, जहाँ कोई शोध की संस्कृति नहीं है. सारी तालीम किताबी है और नवाचार के लिए जगह सीमित है. छात्र महज इम्तहान पास कर नौकरियाँ लने को तत्पर हैं और सचमुच ज्ञान की सर्वांगीण धारणा से उनका लेना-देना कम ही दिखता है. इससे देश और समाज का जो नुकसान हो रहा है, उसकी भरपाई लंबे समय तक न हो पाएगी. इसलिए शिक्षा संघर्ष यात्रा शिक्षा में निजीकरण और बाज़ारीकरण का विरोध भी करेगी, जिसमें सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पीपीपी) और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफ़ डी आई) के हर परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप का विरोध शामिल है. ऐसे कई पीपीपी और विदेशी गठजोड़ वाले संस्थान नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत अचानक खड़े हो गए हैं, जहाँ पढ़ाई महँगी है, पर स्तर में गिरावट ही दिखती है. इनमें शिक्षा का मकसद महज बाज़ार में काम आने वाला मानव-संसाधन तैयार करना मात्र है. जाहिर है कि इनका विरोध लाजिम है.

सांप्रदायिकता दक्षिण एशिया का शर्मनाक पहलू है, जिससे तालीम अछूती नहीं है. लोकतांत्रिक धर्म-निरपेक्ष संविधान पर गर्व करने वाले भारतीयों को चाहिए कि शिक्षा में सांप्रदायिकता को जड़ से उखाड़ फेंकें. पठन-सामग्री में धर्म के नाम पर विभाजन पैदा करने के उद्देश्य से दकियानूसी बातें डालने की हर कोशिश का पुरजोर विरोध करना ज़रूरी है. शिक्षा संघर्ष यात्रा इस मुद्दे पर भी बुलंद रहेगी और शिक्षा के सांप्रदायीकरण के खिलाफ़ आवाज़ उठाएगी जिसमें पाठ्यचर्या, पाठ्य पुस्तकों व परीक्षाओं के ज़रिए आज़ादी की लड़ाई की विरासत स्वरूप विकसित संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन करनेवाले कट्टरवादी, संकीर्ण, विभाजनकारी व गैर-वैज्ञानिक एजेंडे को थोपने का विरोध शामिल है.

यह एक दर्दनाक विड़ंबना है कि इन माँगों को लेकर आज आंदोलन खड़ा करने की बात हो रही है, जबकि ये माँगें कौमी आज़ादी की लड़ाई की प्रमुख माँगों में से थीं. जैसा कि आंदोलन से जुड़े प्रमुख शिक्षाविद प्रो. अनिल सदगोपाल बार-बार याद दिलाते हैं, ज्योतिबाराव और सावित्री फुले से लेकर भगत सिंह, आंबेडकर और गाँधी, इन सभी राष्ट्रनेताओं के लिए समान शिक्षा का अधिकार एक बुनियादी सवाल था. हर नागरिक को यह अधिकार मिले बिना आज़ादी की कल्पना भी वे नहीं कर सकते थे. आज स्थिति यह है कि शिक्षा संस्थानों में ऐसे मुद्दों या सामान्य लोकतांत्रिक हकों की बात करने वालों पर हमले होते हैं. अभिव्यक्ति की आज़ादी पर संकट गहराता जा रहा है. समान शिक्षा का अधिकार जो पूँजीवादी माने जाने वाले मुल्कों में भी आम बात है, उसके लिए यहाँ संघर्ष करना पड़ता है. अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच की स्थापना इन्हीं स्थितियों के मद्देनज़र हुई थी और अब तक इस मंच ने राष्ट्रव्यापी व्यापक जनाधार बना लिया है. हर राज्य में मंच की इकाइयों ने आम लोगों तक पहुँच कर तालीम के बुनियादी मुद्दों की बात की है और एकाधिक बार सरकारी संस्थानों को बंद करने के खिलाफ सफलतापूर्वक आंदोलन किया है.

मंच ने यात्रा की शुरूआत के लिए 2 नवंबर, जिस दिन (2000 में) इरोम शर्मिला ने मणिपुर में भारतीय सेना की उपस्थिति और सशस्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम(आफ्सपा) के दुरुपयोग के खिलाफ अपना अनशन शुरू किया था और इसी तरह यात्रा की समाप्ति के लिए 4 दिसंबर, जब 1984 में यूनियन कार्बाइड के कारखाने से रिसी गैस से भोपाल में चार हजार लोगों की जान गई थी, के दिन चुनकर यह समझ दिखलाई है कि तालीम का मुद्दा महज अकादमिक माथापच्ची का नहीं, बल्कि जन-संघर्ष का मुद्दा है. आज़ादी के बाद से, खास तौर पर पिछले पच्चीस सालों में देश को जिस तरह गुलामी की ओर धकेला गया है, इसके खिलाफ व्यापक संघर्ष के अलावा कोई रास्ता नहीं बच गया है. कई अर्थों में हम उपनिवेश-कालीन स्थिति में वापस पहुँच गए हैं जहाँ तालीम को अपनी स्थितियों से नहीं बल्कि अंग्रेज़ शासकों के हितों के साथ जोड़कर देखा जाता था. जाहिर है कि इसका विरोध करना ही होगा और शिक्षा संघर्ष यात्रा इस दिशा में एक ज़रूरी कदम है. इसमें सभी सचेत नागरिकों की भागीदारी वांछनीय है.



चूहे को साहित्य से क्या करना


अथ श्री गणेशाय नम:

-शरद जोशी

अथ श्री गणेशाय नम:, बात गणेश जी से शुरू की जाए, वह धीरे-धीरे चूहे तक पहुँच जाएगी. या चूहे से आरंभ करें और वह श्री गणेश तक पहुँचे. या पढ़ने-लिखने की चर्चा की जाए. श्री गणेश ज्ञान और बुद्धि के देवता हैं. इस कारण सदैव अल्पमत में रहते होंगे, पर हैं तो देवता. सबसे पहले वे ही पूजे जाते हैं. आख़िर में वे ही पानी में उतारे जाते हैं. पढ़ने-लिखने की चर्चा को छोड़ आप श्री गणेश की कथा पर आ सकते हैं.

विषय क्या है, चूहा या श्री गणेश? भई, इस देश में कुल मिलाकर विषय एक ही होता है - ग़रीबी. सारे विषय उसी से जन्म लेते हैं. कविता कर लो या उपन्यास, बात वही होगी. ग़रीबी हटाने की बात करने वाले बातें कहते रहे, पर यह न सोचा कि ग़रीबी हट गई, तो लेखक लिखेंगे किस विषय पर? उन्हें लगा, ये साहित्य वाले लोग 'ग़रीबी हटाओ' के ख़िलाफ़ हैं. तो इस पर उतर आए कि चलो साहित्य हटाओ.

वह नहीं हट सकता. श्री गणेश से चालू हुआ है. वे ही उसके आदि देवता हैं. 'ऋद्धि-सिद्धि' आसपास रहती हैं, बीच में लेखन का काम चलता है. चूहा पैरों के पास बैठा रहता है. रचना ख़राब हुई कि गणेश जी महाराज उसे चूहे को दे देते हैं. ले भई, कुतर खा. पर ऐसा प्राय: नहीं होता. 'निज कवित्त' के फीका न लगने का नियम गणेश जी पर भी उतना ही लागू होता है. चूहा परेशान रहता है. महाराज, कुछ खाने को दीजिए. गणेश जी सूँड पर हाथ फेर गंभीरता से कहते हैं, लेखक के परिवार के सदस्य हो, खाने-पीने की बात मत किया करो. भूखे रहना सीखो. बड़ा ऊँचा मज़ाक-बोध है श्री गणेश जी का (अच्छे लेखकों में रहता है) चूहा सुन मुस्कुराता है. जानता है, गणेश जी डायटिंग पर भरोसा नहीं करते, तबीयत से खाते हैं, लिखते हैं, अब निरंतर बैठे लिखते रहने से शरीर में भरीपन तो आ ही जाता है.

चूहे को साहित्य से क्या करना. उसे चाहिए अनाज के दाने. कुतरे, खुश रहे. सामान्य जन की आवश्यकता उसकी आवश्यकता है. खाने, पेट भरने को हर गणेश-भक्त को चाहिए. भूखे भजन न होई गणेशा. या जो भी हो. साहित्य से पैसा कमाने का घनघोर विरोध वे ही करते हैं, जिनकी लेक्चररशिप पक्की हो गई और वेतन नए बढ़े हुए ग्रेड़ में मिल रहा है. जो अफ़सर हैं, जिन्हें पेंशन की सुविधा है, वे साहित्य में क्रांति-क्रांति की उछाल भरते रहते हैं. चूहा असल गणेश-भक्त है.

राष्ट्रीय दृष्टिकोण से सोचिए. पता है आपको, चूहों के कारण देश का कितना अनाज बरबाद होता है. चूहा शत्रु है. देश के गोदामों में घुसा चोर है. हमारे उत्पादन का एक बड़ा प्रतिशत चूहों के पेट में चला जाता है. चूहे से अनाज की रक्षा हमारी राष्ट्रीय समस्या है. कभी विचार किया अपने इस पर? बड़े गणेश-भक्त बनते हैं.

विचार किया. यों ही गणेश-भक्त नहीं बन गए. समस्या पर विचार करना हमारा पुराना मर्ज़ है. हा-हा-हा, ज़रा सुनिए.

आपको पता है, दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा रहता है. यह बात सिर्फ़ अनार और पपीते को लेकर ही सही नहीं है, अनाज के छोटे-छोटे दाने को लेकर भी सही है. हर दाने पर नाम लिखा रहता है खाने वाले का. कुछ देर पहले जो परांठा मैंने अचार से लगाकर खाया था, उस पर जगह-जगह शरद जोशी लिखा हुआ था. छोटा-मोटा काम नहीं है, इतने दानों पर नाम लिखना. यह काम कौन कर सकता है? गणेश जी, और कौन? वे ही लिख सकते हैं. और किसी के बस का नहीं है यह काम. परिश्रम, लगन और न्याय की ज़रूरत होती है. साहित्य वालों को यह काम सौंप दो, दाने-दाने पर नाम लिखने का. बस, अपने यार-दोस्तों के नाम लिखेंगे, बाकी को छोड़ देंगे भूखा मरने को. उनके नाम ही नहीं लिखेंगे दानों पर. जैसे दानों पर नाम नहीं, साहित्य का इतिहास लिखना हो, या पिछले दशक के लेखन का आकलन करना हो कि जिससे असहमत थे, उसका नाम भूल गए.

दृश्य यों होता है. गणेश जी बैठे हैं ऊपर. तेज़ी से दानों पर नाम लिखने में लगे हैं. अधिष्ठाता होने के कारण उन्हें पता है, कहाँ क्या उत्पन्न होगा. उनका काम है, दानों पर नाम लिखना ताकि जिसका जो दाना हो, वह उस शख़्स को मिल जाए. काम जारी है. चूहा नीचे बैठा है. बीच-बीच में गुहार लगाता है, हमारा भी ध्यान रखना प्रभु, ऐसा न हो कि चूहों को भूल जाओ. इस पर गणेश जी मन ही मन मुस्कराते हैं. उनके दाँत दिखाने के और हैं, मुस्कराने के और. फिर कुछ दानों पर नाम लिखना छोड़ देते हैं, भूल जाते हैं. वे दाने जिन पर किसी का नाम नहीं लिखा, सब चूहे के. चूहा गोदामों में घुसता है. जिन दानों पर नाम नहीं होते, उन्हें कुतर कर खाता रहता है. गणेश-महिमा.

एक दिन चूहा कहने लगा, गणेश जी महाराज! दाने-दाने पर मानव का नाम लिखने का कष्ट तो आप कर ही रहे हैं. थोड़ी कृपा और करो. नेक घर का पता और डाल दो नाम के साथ, तो बेचारों को इतनी परेशानी नहीं उठानी पड़ेगी. मारे-मारे फिरते हैं, अपना नाम लिखा दाना तलाशते. भोपाल से बंबई और दिल्ली तलक. घर का पता लिखा होगा, तो दाना घर पहुँच जाएगा, ऐसे जगह-जगह तो नहीं भटकेंगे.

अपने जाने चूहा बड़ी समाजवादी बात कह रहा था, पर घुड़क दिया गणेशजी ने. चुप रहो, ज़्यादा चूं-चूं मत करो.

नाम लिख-लिख श्री गणेश यों ही थके रहते हैं, ऊपर से पता भी लिखने बैठो. चूहे का क्या, लगाई जुबान ताल से और कह दिया. न्याय स्थापित कीजिए, दोनों का ठीक-ठाक पेट भर बँटवारा कीजिए. नाम लिखने की भी ज़रूरत नहीं. गणेश जी कब तक बैठे-बैठे लिखते रहेंगे?

प्रश्न यह है, तब चूहों का क्या होगा? वे जो हर व्यवसाय में अपने प्रतिशत कुतरते रहते हैं, उनका क्या होगा?

वही हुआ ना! बात श्री गणेश से शुरू कीजिए तो धीरे-धीरे चूहे तक पहुँच जाती है. क्या कीजिएगा?

Thursday, October 30, 2014

ज़ो लाच्ची के चित्र

ज़ो लाच्ची का बचपन रोम के निकट शहर की भागदौड़ से दूर एक शांत छोटे से कस्बे में बीता था.  इसी कारण शायद वे बेहद अंतर्मुखी व्यक्ति के रूप में विकसित हुईं और उनका अजनबीपन उनकी ख़ास तरह से विचित्र पेंटिंग्स में झलकता है.









हमें वहीं जाना होता है बार बार


रात की तरह मृत्यु

- अनीता वर्मा

रात की तरह
मृत्यु की
परछाईं नहीं होती

वह सिर्फ़
हमें आग़ोश में
ले लेती है

हम छटपटाते हैं
सिर धुनते हुए
वापस लौटने को तत्पर

सुरंग के
दूसरे छोर पर
दिखता है एक हल्का प्रकाश
कुछ प्रिय चेहरे गड्ड-मड्ड

हमें
वहीं जाना होता है
बार बार

उन चेहरों का हिस्सा बनने.

कोई भी दूसरे की शिक्षा की पैमाइश कतई नहीं कर सकता

आशुतोष उपाध्याय ने शिक्षा पद्धति को लेकर एक और बढ़िया आलेख भेजा है. बेहद पठनीय इस आलेख के लिए एक बार फिर आशुतोष को शुक्रिया.


एक कदम पीछे लौटें और शिक्षा के उद्देश्य के बारे में गहराई से सोचें

पीटर ग्रे

हमारे अमेरिका और दूसरे कई आधुनिक मुल्कों में लोग माप-जोख को लेकर बड़े आग्रही हैं. ऐसा लगता है हमारा ध्येयवाक्य बन गया है- "अगर आप गिन नहीं सकते तो यह गिनती नहीं है." खास तौर पर बच्चों की शिक्षा की पैमाइश को लेकर तो हम कुछ ज्यादा ही आग्रही हो गए हैं. और 'नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड' अभियान के बाद हमारा यह आग्रह पागलपन की हद तक जा पहुंचा है. हमारे बच्चे उस लड़ाई के मोहरे बन गए हैं जिसमें एक अभिभावक को दूसरे अभिभावक से, एक शिक्षक को दूसरे शिक्षक से, एक स्कूल को दूसरे स्कूल से और एक देश को दूसरे देश से इसलिए भिड़ाया जा रहा है कि कौन अपने बच्चों से ज्यादा से ज्यादा अंक निकलवाने में कामयाब होता है. हम अपने बच्चों से उनकी नींद छीन रहे हैं. खेलने और खोजने की उनकी स्वतंत्रता छीन रहे हैं. दूसरे शब्दों में ज्यादा से ज्यादा अंकों की खातिर हम उनसे उनका बचपन छीन रहे हैं.

अब वक्त आ गया है कि एक इंसान के बतौर हम एक कदम पीछे हटें, चंद गहरी साँसें लें और अपने होशो-हवास को हासिल करें. वास्तव में शिक्षा क्या है? इसके उद्देश्य क्या हैं? इस प्रश्नों के अपने जवाब की रोशनी में गौर फरमाएं कि क्या शिक्षा की माप-जोख संभव है? और अगर यह संभव है तो इस बात का कोई मतलब है कि मापने का एक ही तरीका सब पर लागू हो?
आधुनिक स्कूल के जिस रूप को आज हम जानते हैं, उसकी जड़ें प्रोटेस्टेंट सुधारों तक जाती हैं. इन सुधारकों की मान्यताओं के अनुसार हर ईसाई की यह धार्मिक जिम्मेदारी है कि बच्चों को पढ़ना सिखाए ताकि वह बाइबल पढ़ सके. इसके अलावा बच्चों के दिमाग में चुनिन्दा मान्यताओं को रोपना भी उनकी धार्मिक जिम्मेदारियों में शामिल था. खास तौर पर आज्ञाकारिता का महत्व और आज्ञापालन न करने वालों के लिए नर्क की आग का भय. उस जमाने में स्कूली शिक्षा का उद्देश्य बिलकुल स्पष्ट था- बच्चों को आदम के पाप से दूर रखना, उनके दिमाग में सत्ता का भय बिठाना और बाइबल के उन नैतिक सूत्रों को रटाना जो सत्ता के प्रति भय व भक्ति का भाव पैदा करते हों. एक बार अगर स्कूल का उद्देश्य स्पष्ट हो गया तो सफलता की पैमाइश करना आसान हो जाता है.  अगर बच्चा आज्ञाकारी बन जाय, शिक्षक (तब उन्हें मास्टर कहा जाता था) के निर्देशानुसार अपना पाठ ठीक से दोहराने लगे तथा बड़ों के सामने जुबान लड़ाने की जुर्रत न करे तो उसे सफल घोषित कर दिया जाता था. इस बात से बहुत फर्क नहीं पड़ता था कि उसके पाठ में क्या दिया गया है (जब तक कि उससे बाइबल की अवमानना न होती हो); हाँ, इस बात का महत्व था कि बच्चों ने कितनी आज्ञाकारिता और निष्ठा से निर्देशों का पालन किया. अगर वे कहे अनुसार नहीं चलते और बार-बार पीटे व अपमानित किये जाने के बावजूद मनमर्जी करते तो उन्हें स्कूल की नजर में असफल घोषित कर दिया जाता था. इन शुरूआती दिनों में स्कूल भेजने का मतलब सीखने-सिखाने जैसा कोई दावा नहीं किया जाता था. लोग आजीविका और सामाजिक जीवन में काम आने वाले ज़रूरी हुनर वास्तविक दुनियावी गतिविधियों से सीख लेते थे. स्कूल, चाहे कितना भी भयावह हो, बच्चे के जीवन के बहुत छोटे हिस्से को घेरता था.
समय के साथ स्कूल सरकार के हाथों में आ गए. अब स्कूल के घंटों और दिनों में धीरे-धीरे बढ़ोतरी होने लगी और पढ़ाए जाने वाले विषयों की सूची भी लंबी होती चली गयी. बहुत सारे लोग यह समझने लगे कि स्कूल जाने का मतलब हर तरह की शिक्षा हासिल करना है. औद्योगिक क्रांति के साथ स्कूलों ने खुद को फैक्टरियों के मॉडल में ढालना शुरू कर दिया. बच्चे एसेम्बली लाइन की तर्ज पर एक कक्षा से दूसरी में धकेले जाने लगे. प्रत्येक पड़ाव में एक नया शिक्षक निर्धारित ज्ञान व कौशल का नया पैकेट अपने उत्पाद में जोड़ता जाता और अंत में तैयार उत्पाद प्रमाणपत्र के ठप्पे के साथ बाहर फैंक दिया जाता. स्कूली शिक्षा की यह मानक पद्धति आज भी बदस्तूर जारी है, भले ही अन्य मामलों में हम इतिहास के इस फैक्टरी युग को पीछे छोड़ आये हों. अगर हमारे लिए शिक्षा के यही मायने हैं तो इसकी माप-जोख मुश्किल नहीं है. इसकी पैमाइश कन्वेयर बेल्ट के हर स्तर पर प्रत्येक बच्चे की परीक्षा लेकर की जाती है और जांचा जाता है कि उसने निर्धारित तथ्य व कौशल हासिल कर लिए हैं और वह अगले पड़ाव में भेजे जाने के लिए पूरी तरह तैयार है.
मगर लंबे समय से इस फैक्टरी सिस्टम में गिरावट देखी जा रही है. प्रत्येक शिक्षक ने क्या किया और किस तरह उसने बच्चों की प्रगति की पैमाइश की, ऊपर से नीचे की ओर इस बात को निरपेक्ष रूप से नियंत्रित कर पाना संभव नहीं. कुछ शिक्षक मानते हैं कि बच्चे स्वभावतः एक-दूसरे से भिन्न होते हैं. यह उनका अधिकार है कि प्रत्येक दिन का अच्छा-ख़ासा हिस्सा खेलने, आजादी से खोजने में तथा अपनी रुचियों व रुझानों को विकसित करने में बिताएं. बच्चों को उत्तीर्ण करने के आधार को देखें तो एक कक्षा से दूसरी कक्षा तथा एक स्कूल से दूसरे स्कूल के बीच भारी असमानताएं हैं. इसके बाद आया 'नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड' (एनसीएलबी) अभियान जो इन असमानताओं को दूर करने के लिए कमर कसे हुए था. अब हर उत्पाद के लिए निर्धारित मानकों को पूरा करना लाजिमी था, भले ही कच्चे माल में बहुत ज्यादा अंतर क्यों न हो, भले ही बच्चे के जीवन पर स्कूल से बाहर रहने का भारी प्रभाव हो, और निश्चित तौर पर वे क्या करना या सीखना चाहते हैं इस मामले में भले ही बच्चे की व्यक्तिगत इच्छा कुछ भी क्यों न हो. एनसीएलबी फैक्टरी मॉडल को गंभीरता से लेने की तार्किक परिणति है ताकि ज्यादा से ज्यादा समरूप और मानक उत्पाद तैयार हो सकें. एनसीएलबी ने शिक्षकों के काम को भी सूत्रबद्ध कर दिया- अगर छात्र मानक परीक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन नहीं करते तो उन पर इन परीक्षाओं के लिए पढ़ाने का भारी दबाव बन जाता है. चूंकि मानक परीक्षाओं का फोकस गणित, पढ़ पाने की क्षमता और कुछ हल्के स्तर के विज्ञान (जिसे बड़ी संकीर्णता से परिभाषित किया गया है) पर रहता है, बाकी विषय पीछे धकेल दिए जाते हैं. वही पढ़ाया जाए जिसकी गिनती हो सके.
लेकिन अब, जैसा कि मैंने पहले भी कहा, इस पागलपन से एक कदम पीछे लौटें, चंद गहरी सांस खींचें और शिक्षा के बारे में विवेकपूर्ण तरीके से सोचने की कोशिश करें.
हम अगर शिक्षा की परिभाषा को पढ़ पाने और गणित करने की क्षमता तक सीमित मान लें, तो भी हम गलती कर रहे हैं. बच्चे तभी पढ़ना सीखते हैं जब वे सचमुच पढ़ना चाहते हैं. और वे गणित भी बड़ी आसानी से सीख लेते हैं जब वे ऐसा करना चाहते हैं. यहां एकमात्र कुंजी है उनकी 'चाहत'. हम पढ़ने और गणित करने को बच्चों के लिए नफ़रत की चीज़ बना देते हैं, जब हम इन कौशलों को दिमागी संख्याओं, जबरन एसेम्बली लाइन कदमों में बदल डालते हैं. सिर्फ पढ़ने के लिए कौन पढ़ना चाहेगा. इसी प्रकार सिर्फ करने के लिए कौन गणित करेगा. बच्चे जानकारियां हासिल करने या कहानियों का आनंद उठाने के लिए पढ़ना चाहते हैं. उन मजेदार वास्तविक समस्याओं को हल करने के लिए वे गणित सीखना चाहते हैं, जो गणित पर निर्भर हैं. ठीक उसी तरह जैसे लोग वास्तविक जीवन में सीखते हैं और लोकतान्त्रिक स्कूलों व परिवारों में बच्चे सीखते हैं, जहां वे अपनी शिक्षा के स्वयं प्रभारी हैं.
चलिए अब पढ़ने और गणित से हट के कुछ ज्यादा जरूरी चीज़ों पर बात करें. वास्तव में शिक्षा का उद्देश्य क्या होना चाहिए? या, इसे दूसरे ढंग से कहें तो अपने बच्चों के विकास के लिए हमारे क्या लक्ष्य होने चाहिए? हममें से ज्यादातर लोग नहीं चाहते कि हमारे बच्चे किसी बड़ी हस्ती के खामोश पिछलग्गू बनें. इस नज़रिए का दुष्परिणाम हम देख चुके हैं. और मैं यह नहीं समझता कि हममें से अधिकतर शिक्षा का सही उद्देश्य उस टीवी शो में अच्छा प्रदर्शन मानते होंगे, जिसका नाम है' "क्या आप पांचवीं पास से ज्यादा स्मार्ट हैं?" हम जानते हैं कि पांचवी (या किसी और कक्षा) पास के ज्ञान का जीवन की सफलता से कोई खास संबंध नहीं होता. लेकिन हम तब शिक्षा से क्या चाहते हैं? शायद मैंने इस सवाल को कुछ इस तरह पूछना चाहिए: आप क्या चाहते हैं और मैं क्या चाहता हूं? यह कतई संभव है कि जीवन के अर्थ को लेकर आपके और मेरे विचार बिलकुल अलग-अलग हों और अपने-अपने बच्चों के लिए हम अलग-अलग चीज़ों की उम्मीद करें.
चलिए मैं बताता हूं- अगर आज मेरे छोटे बच्चे होते तो मैं उनके लिए क्या चाहूंगा? मैं चाहूंगा कि वे अपने जीवन के प्रभारी की भावना से बड़े हों. मैं चाहूंगा कि वे खुश रहें लेकिन दूसरों की खुशियों की भी परवाह करें. मैं चाहूंगा कि वे भावनात्मक रूप से लचीले हों ताकि जीवन में आने वाले अवश्यम्भावी दबावों और हताशाओं से उबर सकें. मैं चाहूंगा कि सीखने की और पहले से भी ज्यादा तेजी से बदल रही दुनिया में खुद को ढाल पाने की अपनी क्षमता पर उनका जीवनपर्यंत भरोसा बना रहे. मैं चाहूंगा कि उनके कुछ लक्ष्य हों- ऐसे लक्ष्य जिनको हासिल करने का जुनून उनके भीतर पैदा होता हो. मैं चाहूंगा कि उनमें तार्किक ढंग से सोचने के क्षमता हो और अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए वे सही फैसले ले सकें. मैं चाहूंगा कि उनमें ऐसे नैतिक मूल्य हों जो उनके जीवन को सही ढांचा और अर्थ दें और मैं उम्मीद करूँगा ये मानवीय मूल्य हों- ऐसे मूल्य जिनका संबंध मानव अधिकारों से और उन अधिकारों को बनाए रखने की जिम्मेदारी से हो.
अब यहां एक कठिनाई है. ये सारी बातें स्कूल के पाठों में नहीं मिलती हैं. ये सारी बातें हरेक को खुद खोजनी पड़ती हैं या बड़े हो रहे सक्रिय बच्चे के द्वारा खुद रची जाती हैं. इन्हें हासिल करने के लिए हर बच्चे को खेलने, खोजने और अन्वेषण का ढेर सारा समय चाहिए. ज्यादा से ज्यादा हम यही कर सकते हैं कि खुद उनके लिए अच्छे मॉडल बनें और उन्हें एक स्वस्थ, और प्रेरणादाई नैतिक वातावरण उपलब्ध कराएं. ऐसा वातावरण जो हमारे बच्चों को अपनी मनपसंद चीज़ों को खोजने की और अपने अलावा दूसरे के नज़रिए से भी सीखने की इजाजत देता हो. अंततः, शिक्षा का उद्देश्य जीवन में सार्थकता की खोज ही होता है और हर व्यक्ति को इसे अपने लिए स्वयं इजाद करना पड़ता है.
तब, क्या आप शिक्षा की माप-जोख कर सकते हैं? क्या आप जीवन का मतलब परिभाषित कर सकते हैं? शायद व्यक्तिगत तौर पर, जिसका अर्थ मात्र हमारे लिए हो, अपने जीवन का अर्थ खोजने की दिशा में हम अपनी खुद की शिक्षा की माप-जोख कर सकते हैं. लेकिन निश्चित तौर पर हममें से कोई भी दूसरे की शिक्षा की पैमाइश कतई नहीं कर सकता.
(अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय)