Wednesday, May 27, 2015

किसे पड़ी है जो जा सुनाएं प्यारे पी को हमारी बतियां


अमीर ख़ुसरो की यह रचना मैंने अर्सा पहले छाया गांगुली की मख़मल आवाज़ में कभी कबाड़ख़ाना के सुनने-पढ़ने वालों के लिए प्रस्तुत की थी. आज उसी रचना को सुनिए उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान से. रचना के मूल पाठ के कई संस्करण उपलब्ध हैं. नीचे लिखे संस्करण को सबसे ज़्यादा प्रामाणिक माना जाता है. भावानुवाद ख़ाकसार ने किया है सो उसमें आई किसी भी तरह की त्रुटि के लिए मैं ज़िम्मेदार हूँ. नुसरत बाबा ने अपनी अद्वितीय शैली में रचना के बीच बीच में यहां-वहां से सूफ़ी साहित्य के जवाहरात जोड़े हैं:



ज़ेहाल-ए-मिस्किन मकुन तग़ाफ़ुल, दुराये नैना बनाए बतियां
कि ताब-ए-हिज्रां नदारम अय जां, न लेहो काहे लगाए छतियां

शबान-ए-हिज्रां दराज़ चो ज़ुल्फ़ वा रोज़-ए-वस्लस चो उम्र कोताह
सखी़ पिया को जो मैं ना देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां

चो शाम-ए-सोज़ां चो ज़र्रा हैरां हमेशा गिरियां ब इश्क़ आं माह
ना नींद नैनां ना अंग चैना ना आप ही आवें ना भेजें पतियां

यकायक अज़ दिल बज़िद परेबम बबुर्द-ए-चश्मश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाएं प्यारे पी को हमारी बतियां 

बहक़-ए-रोज़-ए-विसाल-ए-दिलबर कि दाद मारा फ़रेब खुसरो
सपेत मन के वराए राखो जो जाए पाऊं पिया की छतियां


(आंखें फ़ेरकर और कहानियां बना कर यूं मेरे दर्द की अनदेखी न कर
अब बरदाश्त की ताब नहीं रही मेरी जान! क्यों मुझे सीने से नहीं लगा लेता 

विरह की रात ज़ुल्फ़ की तरह लम्बी, और मिलन का दिन जीवन की तरह छोटा
मैं अपने प्यारे को न देख पाऊं तो कैसे कटे यह रात

मोमबत्ती की फड़फड़ाती लौ की तरह मैं इश्क़ की आग में हैरान-परेशान फ़िरता हूं
न मेरी आंखों में नींद है, न देह को आराम, न तू आता है न कोई तेरा पैगाम 

अचानक हज़ारों तरकीबें सूझ गईं मेरी आंखों को और मेरे दिल का क़रार जाता रहा
किसे पड़ी है जो जा कर मेरे पिया को मेरी बातें सुना आये

अपने प्रिय से मिलन के दिन के सम्मान में, जिसने मुझे इतने दिनों तक बांधे रखा है ए ख़ुसरो
जब भी मुझे उसके करीब आने का फिर मौक़ा मिलेगा मैं अपने दिल को नियन्त्रण में रखे रहूंगा)

Sunday, May 24, 2015

वेलेरी हादीदा के शिल्प

समकालीन फ्रेंच पेंटर और वास्तुशिल्पी वेलेरी हादीदा अधिकतर कांसे और मिट्टी के माध्यमों पर काम करती हैं. आज उनकी कुछ अनूठी वास्तुशिल्पीय कृतियाँ देखिये जिन्हें लिटल वूमेनसीरीज का नाम दिया गया गई. आलोचक इस सीरीज के बारे में कहते हैं: यह एक काव्यात्मक भिड़ंत है जो हमें स्त्रियों द्वारा पार किये गए उन तमाम रास्तों की बाबत बताती है जो उन्होंने युवावस्था से प्रौढ़ होने तक पार किये होते हैं और उन तमाम संवेदनाओं और मूड्स की बाबत भी जो स्त्रियों की इन पीढ़ियों के जीवन का संबल हैं. 


EMSAT में प्रशिक्षित वेलेरी ने १९९१ के पॉल रिकार्ड फाउंडेशन पुरूस्कार से सम्मानित मारील पोल्स्का के स्टूडियो में छः साल काम किया. १९९० से उनका काम तमाम गैलरीज़ में प्रदर्शित होता रहा है. 

































वेलेरी हादीदा 

मर भी जाओ तुम ऐसे-वैसे अगर हक़ होगा मेरा तुम पर

शेफाली फ्रॉस्ट की कविताएं आप कबाड़खाने पर पढ़ते रहे हैं. आज उनकी एक और उम्दा साझा कर रहा हूँ. यह कविता शेफाली की अन्य कविताओं के साथ 'जलसा' के अगले अंक में प्रकाश्य है. फिलहाल इस वजह से इसे कबाड़खाना एक्सक्लूसिव कहा जा सकता है-

ऑस्ट्रियाई चित्रकार इगोन शीले की पेंटिंग 'प्रोसेशन' (१९११)

मुसलमान रहो 

-शेफाली फ्रॉस्ट

'मान लो कि ख़ैरख़्वाह हूँ मैं,
इश्क़ करती हूँ उस क़ौम से 
जो तुम्हारी है
जो तुम हो... '

'मेरी है, मैं हूँ?'

'हाँ, बात करो न उनकी प्लीज़,
वो पुरखे तुम्हारे ईरान से, तुर्रान से,
गोरे, चमकीले, ब्राह्मण तुम्हारी जात के,
सुना है उनकी बीवियों ने
पर्दा नहीं किया कभी है ना?'

'बुर्क़ा पहनती हैं।'  

'कौन?'

'अम्मी मेरी।'  

'रियली! बट हाऊ कैन यू अलाऊ दैट?'

'अलाऊ मतलब? उनकी मर्ज़ी।

'पर तुम तो वैसे नहीं?'

'कैसे?'

'अरे हैं न वो काले काले
काजल लगे, लोबान वाले,
मांगते हैं मज़ारों का चंदा,
हरी चादर में गाड़ी रोक,
अकेली पड़ जाऊं उनके हाथ कभी,
तौबा ! सोचो क्या हशर होगा मेरा!'

'क्यों, छू लेंगे तुम्हे?'

'उफ़! नॉटी!
उनकी सुनाओ ना मुझे
कार्ल मार्क्स की हंसिया पकड़े,  
फैज़ लपेटे कान में,
नाप दें रोज़े साल्हो साल,  
दाब दें ताज़िए बा-एहतराम, लेकिन
पड़ोसियों को ख़लल न पड़े
लड़कियाँ न्यूयॉर्क रहे, बीवियां कुर्रान पढ़ें  
शराब से तौबा नहीं, पर... '

'अरे! वो नहीं हूँ मैं, मेरी जान!
अलिफ़ बे का तालिब,
मीर, मोमिन और ग़ालिब,
सड़क से गुज़रूँ तो  
चप्पल की चाप में उर्दू बसे
भीड़ में चलाता हूँ मारुती  
हॉर्न बजा बजा कर, एक्सैक्टली वैसे
जैसे तुम्हारे बाप
गालियां देता हूँ पैदलों को बाकी,
कुछ हिन्दुआनी, कुछ मुसलमानी,
मेरा हुजूम मुझे वैसे ही निगलता है
जैसा तुम्हारा तुम्हे
वो अमरीकी आसमान जब औंधा गिरा ज़मीन पर 
उतना ही बेखबर रहा मैं जितना की तुम,
नामा देखा, ट्रैफिक का अफ़सोस किया,
सब्ज़ियों के दाम कर्फ्यू में कितने बढ़ेंगे  
तिजारत की …'

'दैट इस ऑपर्चुनिज़्म!   
यह आइडेंटिटी दोगे हमारे बच्चों को तुम?' 

'आइडेंटिटी
अमरीकियों की नौकरी बजाता हूँ,
साइबर पार्क में नौ से पांच,
वीकेंड पर शराब पीता हूँ, जर्मन,
जो न हिन्दू है, न मुसलमान
जुम्मा कब आया याद नहीं,
ईद उतनी ही इर्रेल्वेन्ट है जितनी दीवाली
पर दोनों पर दिए जलाता हूँ,
हाँ, जब हिन्दुओं के गढ़ में मकान ढूंढने जाता हूँ,
सोचता हूँ, ले चलूँ तुम्हे भी साथ,
बिंदी लगाए, छै गज की साड़ी लिपटाये!
देर रात, बैरियर किनारे
मांगता है लाइसेंस, पान चबाता ठुल्ला
डर यह नहीं कि
गाड़ दिया जाऊं, कि जला दिया जाऊं
बस इसलिए कि गुआंटानमो में न मार दिया जाऊं
कर देता हूँ तुम्हे आगे, बड़ा शर्मसार
सोचा है नाम दूंगा बच्चों को अपने  
पीटर, टोनी, और निर्वाण,
अगली पुश्त के लाइसेंस तो न कहलायें मुसलमान!'

'अरे, अरे! ना कहीं
यह कैसा कुफ्र है तुम्हारा मेरे ख़िलाफ़!
तुम मुसलमान न होगे,
मैं ख़ुद को क्या कहूँगी
नारे लगाऊंगी, गाने गाऊंगी
जेल के गेट पर धरना लगाऊंगी
शान से कहूंगी,
हैं तो वही, पर वैसे नहीं!
इन्हे मैं प्यार करती हूँ...

मर भी जाओ तुम ऐसे-वैसे, इधर-उधर,
हक़ होगा मेरा तुम पर, मय्यत पर करूंगी सोज़ख़्वानी,
मेरे महबूब, तुम्हे मेरी मुहब्बत की क़सम,
डोंट थिंक इलेक्ट्रिक क्रेमटोरियम में होने दूँगी क्विक एंड ईज़ी!
मुंह घुमा दूँगी तुम्हारा, जिस तरफ कहेंगे क़ाबा
पूरे साढ़े छै फुट नीचे करवाऊँगी दफ़न,  
रो रो कर कहूँगी सबसे 
जब ज़िंदा थे तब सबसे डरे
पर प्यार देखो मेरा

मुसलमान थे, मुसलमान ही मरे!'

Saturday, May 23, 2015

मारिया रीता पेरेस की कला

मारिया रीता पेरेस फिगरेटिव शैली में वास्तुशिल्प बनाती हैं. पुर्तगाल की रहनेवाली इस कलाकार ने १९९५ में सेरामिक्स आर्ट में डिप्लोमा हासिल किया है और वे कागज़ की लुगदी और सेरामिक्स की मदद से बेहतरीन कलाकृतियों का निर्माण करती हैं. देखिये उनकी कुछ ट्रेडमार्क कृतियाँ-
















मारिया रीता पेरेस