Tuesday, March 22, 2016

हमें तेज़ कविताएं चाहिए जो हमारी नस्ल से आगे निकल जाएं

14 अगस्त 1981 को गाबोरोन, बोत्स्वाना में जन्मीं टी.जे. डेमा अफ्रीकी कविता में एक बड़ी तेज़ी से उभरता नाम मानी जाती हैं. वे कला-प्रदर्शन प्रबंधन का काम करने वाली एक संस्था SAUTI का संचालन करती हैं. 2010 से 2012 के बीच वे द राइटर्स एसोसियेशन ऑफ़ बोत्स्वाना की चेयरपर्सन रहीं. इसके अलावा वे बोत्स्वाना के प्रतिष्ठित साहित्य-समूह ‘एक्सोडस लाइव पोयट्री’ की संस्थापक सदस्य हैं, जिसने बोत्स्वाना के इतिहास में पहली बार 2004 से वार्षिक कविता उत्सव की शुरुआत की. वे 2010 में यूनिवर्सिटी ऑफ़ वारविक में गेस्ट राइटर थीं. 2010 में वे दिल्ली में हुए अंतर्राष्ट्रीय कला समारोह में शिरकत कर चुकी हैं. 2012 में वे आयोवा के अंतर्राष्ट्रीय लेखन कार्यक्रम में राइटर-इन-रेजीडेंस भी थीं.

पढ़िए उनकी एक कविता का अनुवाद -

टी. जे. डेमा

नीयोन कविता
-टी. जे. डेमा

अमीरी बराका की ‘ब्लैक आर्ट’ के बाद
अगर वो नहीं देतीं कोई सबक
तो कूड़ा हैं कविताएँ.
कविता का कोई मकसद नहीं
अगर वह उन तक नहीं पहुँचती जिनके लिए उन्हें लिखा गया था
या उन कानों तक नहीं पहुँचती जिनके लिए वह बनी थी.

आप परफेक्ट प्रेम-कविता लिख सकते हैं
बता सकते हैं हमें कि आपने किस तरह उसे रिझाया
जब तक कि उसने आपको उसे छू नहीं लेने दिया
लेकिन अगर वह आपको याद नहीं कर सकती
तो जनाब, आपकी कविता वह नहीं कर सकी
जो उसे करना चाहिए था.

मैंने सुनी हैं युद्ध कविताएं
छिपी हुईं दिखावटी स्वरों और उपमाओं में
खामोश सुविधा के साथ इस विचार के रू-ब-रू
कि वे किसी भी चीज़ के लिए आख़िर क्यों लड़ें.
मैंने लिखी थी एक बार उम्मीद की कविता
भविष्य-टाइप की उन कविताओं जैसी
लेकिन वह बोली तभी
जब हमारी जो भी उम्मीदें थीं, टूट गईं.

मैंने तो जीवित कविताओं को भी देखा है
जो ऑडिएंस के चले जाने तक इंतज़ार करती हैं
और तब मंद-मंद गुनगुनाना शुरू करती हैं एक गीत की तरह
लय के किसी भी बोध का क़त्ल करती हुईं, अगर वह उनमें ज़रा भी होता हो.
मैं सोच रही हूँ ‘अब बहुत देर हो चुकी’ कविता के बारे में
मैं उसका निर्माण करती जाऊंगी जब तक कि उसमें से
टीन के डब्बों पर बजते लोहे की आवाज़ न आने लगे -
ज़ोरदार और उपद्रव से भरी.

हमें तेज़ कविताएं चाहिए
जो हमारी नस्ल से आगे निकल जाएं,
हमारे चेहरों से आगे निकल जाएं,
हो सके तो जहाँ हम कभी नहीं गए
हमें पाप की रफ़्तार से
ले कर जाएँ वहां.

एक ‘मुझे देखो’ कविता
चीखकर संसार से कहती है:
“अपनी आँखें खोलो और देखो,
तुम तो अपने मन की बात तक नहीं कह सकते
और तब भी यकीन करते हो कि तुम
और तुम और मैं
किसी भी चीज़ या किसी भी इंसान से
आज़ाद हैं.”

मुझे नीयोन की कविता दो कोई:
काली, लाल, सफ़ेद, पीली, कत्थई, गुलाबी या चूने के रंग की एक कविता
जो कविता बनने की चाह रखने वाली कविताओं को सिखा सकें
कि वे कैसे बड़ी हों और असल कविताएं बन सकें,
क्योंकि कूड़ा होती हैं कविताएं
अगर वे कहीं पहुँचती नहीं;
उनसे पूरा नहीं होता कोई भी मकसद
अगर वे नहीं पहुंचतीं
किसी तक.

[अमीरी बराका (7 अक्टूबर 1934 – 9 जनवरी 2014) मशहूर एफ्रो-अमेरिकी कवि-लेखक थे जिनकी कविता  ब्लैक आर्ट’ अश्वेत-अधिकार आन्दोलन में एक अलग हैसियत रखती है.]

2 comments:

  1. बेहद खूबसूरत.मानो ऐसी ही कवितायेँ पढने को बेचैन रहती हूँ. शुक्रिया कबाडखाना.

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  2. बेहतरीन, ऐसी पंक्तियां कम ही मिलती हैं पढ़ने को। उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद।

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