Thursday, March 24, 2016

योहान क्रायफ़ को विदा

अलविदा महानायक!
कैसर से लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद सर्वकालीन महानतम खिलाड़ियों में गिने जाने वाली डच फुटबॉलर योहान क्रायफ़ का आज देहांत हो गया. वे 68 साल के थे. मैंने अपने स्कूली दिनों में उनका एक पोस्टर अपने कमरे में लम्बे समय तक लगाए रखा था.
पिछले साल फुटबॉल पर दुनिया का सबसे सुन्दर गद्य लिखने वाले एडुआर्दो गालेआनो का भी देहान्त हुआ था. क्रायफ़ के ज़माने की डच फुटबॉल टीम और खुद क्रायफ़ के बारे में गालेआनो ने यह लिखा था -
"एक ब्राजीलियन पत्रकार ने उसे तरतीबवार बेतरतीबीका नाम दिया. नीदरलैंड्स के पास संगीत था और उसके तमाम सुरों को एक साथ लयबद्धता के साथ ले कर चलने का काम जिस आदमी ने किया वह था योहान क्रायफ़. एक ओर्केस्ट्रा को कंडक्ट करने के साथ ही अपना वाद्य बजाता हुआ वह किसी भी दूसरे से ज़्यादा मेहनत किया करता था.
इस दुबले-पतले, अतीव फुर्तीले शख्स को अयाक्स के रोस्टर में तभी जगह मिल गयी थी जब वह एक बच्चा ही था: जब उसकी माँ क्लब के शराबखाने में वेट्रेस का काम किया करती थी, वह मैदान से बाहर चली जाने वाली गेंदों को इकठ्ठा करने का काम किया करता या खिलाड़ियों के जूते चमकाता या कोनों में झंडे लगाया करता. उसने वे सारे काम किये जो उससे करने को कहा गया. वह खेलना चाहता था पर वे उसे यह कहकर खेलने नहीं देते थे किउसका शरीर बहुत कमज़ोर था और उसकी इच्छाशक्ति बहुत मज़बूत. जब उन्होंने आखिरकार उसे एक मौक़ा दिया, उसने उस मौके को थामा और अपने हाथों से कभी निकलने नहीं दिया. अभी वह लड़का ही था जब उसने अपना पहला मैच खेला था. उसने ज़बरदस्त खेला, एक गोल किया और एक घूंसे से रेफरी को धराशाई कर दिया.
उस रात के बाद उसने एक तूफानी, मेहनती और प्रतिभावान खिलाड़ी के रूप में अपनी पहचान बनाए रखी. दो दशकों के दरम्यान उसने नीदरलैंड्स और स्पेन में बाईस चैम्पियनशिप जीतीं. उसने 37 की उम्र में रिटायरमेंट लिया; जब उसने अपना आखिरी गोल स्कोर किया, भीड़ ने उसे अपने कन्धों पर बिठाकर स्टेडियम से उसके घर तक पहुंचाया था."

होती ना अगर दुनिया की शरम, उन्हें भेज के पतियाँ बुला लेती

इसी बोल से शुरू होने वाला लता मंगेशकर का गाया कोई साठ साल पुराना गीत आज लगातार मुझे याद आ रहा है क्योंकि यह मेरे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण जगह पर हमेशा विराजमान रहने वाले भाई-पिता-दोस्त-कवि वीरेन डंगवाल के सबसे प्रिय गीतों में से एक था. वे इसे कभी कभार गाया भी करते थे – बाकायदा.  


फ़रीद अयाज़ क़व्वाल और उनके साथी पेश करते हैं इसी शानदार रचना को एक अलग अंदाज़ में.  

परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की

आवाज़ छाया गांगुली की. कलाम नज़ीर अकबराबादी का-


जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़म शीशएजाम छलकते हों तब देख बहारें होली की         
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की

आज बिरज में होली रे रसिया


इस मशहूर होली को स्वर दिया है शोभा गुर्टू ने -


खेलें मसाने में होरी दिगम्बर


पंडित छन्नूलाल मिश्र के स्वर में आज की यह अंतिम प्रस्तुति -




होली के दिन आए ब्रज में रंग छाए


स्वर पंडित छन्नूलाल मिश्र का -


होली खेलत नंदकुमार


स्वर पंडित छन्नूलाल मिश्र का -


गिरधारीलाल छाड़ मोरी बइयां मुरुकि गयी


स्वर पंडित छन्नूलाल मिश्र का -


कन्हैया घर चलो गुइयाँ आज खेलें होली



स्वर पंडित छन्नूलाल मिश्र का -

Wednesday, March 23, 2016

तब देख बहारें होली की

बाबा नज़ीर अकबराबादी की होली:


जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़म शीशएजाम छलकते हों तब देख बहारें होली की         
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की

हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़ो-अदा के ढंग भरे
दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़के रंग भरे कुछ ऐश के दम मुँहचंग भरे         
कुछ घुँघरू ताल झनकते हों तब देख बहारें होली की

सामान जहाँ तक होता है इस इशरत के मतलूबों का
वो सब सामान मुहैया हो और बाग़ खिला हो ख़ूबों का
हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का
इस ऐश मज़े के आलम में इक ग़ोल खड़ा महबूबों का         
कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की

गुलज़ार खिले हों परियों केऔर मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छीटों से ख़ुशरंग अजब गुलकारी हो
मुँह लालगुलाबी आँखें होंऔर हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी कोअँगिया पर तककर मारी हो         
सीनों से रंग ढलकते होंतब देख बहारें होली की

इस रंग रंगीली मजलिस मेंवह रंडी नाचने वाली हो
मुँह जिसका चाँद का टुकड़ा हो औऱ आँख भी मय की प्याली हो
बदमस्तबड़ी मतवाली होहर आन बजाती ताली हो
मयनोशी हो बेहोशी हो 'भड़ुएकी मुँह में गाली हो         
भड़ुए भी भड़ुवा बकते होंतब देख बहारें होली की

और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवैयों के लड़के
हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट-घट के कुछ बढ़-बढ़ के
कुछ नाज़ जतावें लड़-लड़ के कुछ होली गावें अड़-अड़ के
कुछ लचकें शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन फ़ड़के         
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की

यह धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का छक्कड़ हो
उस खींचा-खींच घसीटी पर और भडुए रंडी का फक्कड़ हो
माजूनशराबेंनाचमज़ा और टिकियासुलफ़ाटिक्कड़ हो
लड़-भिड़के 'नज़ीरफिर निकला हो कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो 
जब ऐसे ऐश झमकते हों तब देख बहारें होली की

Tuesday, March 22, 2016

हमें तेज़ कविताएं चाहिए जो हमारी नस्ल से आगे निकल जाएं

14 अगस्त 1981 को गाबोरोन, बोत्स्वाना में जन्मीं टी.जे. डेमा अफ्रीकी कविता में एक बड़ी तेज़ी से उभरता नाम मानी जाती हैं. वे कला-प्रदर्शन प्रबंधन का काम करने वाली एक संस्था SAUTI का संचालन करती हैं. 2010 से 2012 के बीच वे द राइटर्स एसोसियेशन ऑफ़ बोत्स्वाना की चेयरपर्सन रहीं. इसके अलावा वे बोत्स्वाना के प्रतिष्ठित साहित्य-समूह ‘एक्सोडस लाइव पोयट्री’ की संस्थापक सदस्य हैं, जिसने बोत्स्वाना के इतिहास में पहली बार 2004 से वार्षिक कविता उत्सव की शुरुआत की. वे 2010 में यूनिवर्सिटी ऑफ़ वारविक में गेस्ट राइटर थीं. 2010 में वे दिल्ली में हुए अंतर्राष्ट्रीय कला समारोह में शिरकत कर चुकी हैं. 2012 में वे आयोवा के अंतर्राष्ट्रीय लेखन कार्यक्रम में राइटर-इन-रेजीडेंस भी थीं.

पढ़िए उनकी एक कविता का अनुवाद -

टी. जे. डेमा

नीयोन कविता
-टी. जे. डेमा

अमीरी बराका की ‘ब्लैक आर्ट’ के बाद
अगर वो नहीं देतीं कोई सबक
तो कूड़ा हैं कविताएँ.
कविता का कोई मकसद नहीं
अगर वह उन तक नहीं पहुँचती जिनके लिए उन्हें लिखा गया था
या उन कानों तक नहीं पहुँचती जिनके लिए वह बनी थी.

आप परफेक्ट प्रेम-कविता लिख सकते हैं
बता सकते हैं हमें कि आपने किस तरह उसे रिझाया
जब तक कि उसने आपको उसे छू नहीं लेने दिया
लेकिन अगर वह आपको याद नहीं कर सकती
तो जनाब, आपकी कविता वह नहीं कर सकी
जो उसे करना चाहिए था.

मैंने सुनी हैं युद्ध कविताएं
छिपी हुईं दिखावटी स्वरों और उपमाओं में
खामोश सुविधा के साथ इस विचार के रू-ब-रू
कि वे किसी भी चीज़ के लिए आख़िर क्यों लड़ें.
मैंने लिखी थी एक बार उम्मीद की कविता
भविष्य-टाइप की उन कविताओं जैसी
लेकिन वह बोली तभी
जब हमारी जो भी उम्मीदें थीं, टूट गईं.

मैंने तो जीवित कविताओं को भी देखा है
जो ऑडिएंस के चले जाने तक इंतज़ार करती हैं
और तब मंद-मंद गुनगुनाना शुरू करती हैं एक गीत की तरह
लय के किसी भी बोध का क़त्ल करती हुईं, अगर वह उनमें ज़रा भी होता हो.
मैं सोच रही हूँ ‘अब बहुत देर हो चुकी’ कविता के बारे में
मैं उसका निर्माण करती जाऊंगी जब तक कि उसमें से
टीन के डब्बों पर बजते लोहे की आवाज़ न आने लगे -
ज़ोरदार और उपद्रव से भरी.

हमें तेज़ कविताएं चाहिए
जो हमारी नस्ल से आगे निकल जाएं,
हमारे चेहरों से आगे निकल जाएं,
हो सके तो जहाँ हम कभी नहीं गए
हमें पाप की रफ़्तार से
ले कर जाएँ वहां.

एक ‘मुझे देखो’ कविता
चीखकर संसार से कहती है:
“अपनी आँखें खोलो और देखो,
तुम तो अपने मन की बात तक नहीं कह सकते
और तब भी यकीन करते हो कि तुम
और तुम और मैं
किसी भी चीज़ या किसी भी इंसान से
आज़ाद हैं.”

मुझे नीयोन की कविता दो कोई:
काली, लाल, सफ़ेद, पीली, कत्थई, गुलाबी या चूने के रंग की एक कविता
जो कविता बनने की चाह रखने वाली कविताओं को सिखा सकें
कि वे कैसे बड़ी हों और असल कविताएं बन सकें,
क्योंकि कूड़ा होती हैं कविताएं
अगर वे कहीं पहुँचती नहीं;
उनसे पूरा नहीं होता कोई भी मकसद
अगर वे नहीं पहुंचतीं
किसी तक.

[अमीरी बराका (7 अक्टूबर 1934 – 9 जनवरी 2014) मशहूर एफ्रो-अमेरिकी कवि-लेखक थे जिनकी कविता  ब्लैक आर्ट’ अश्वेत-अधिकार आन्दोलन में एक अलग हैसियत रखती है.]

आर्थर मुहारेमी के चित्र - 6








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