Sunday, July 31, 2016

सीटी बजाएगी रात रात, जागो-जागो, जाग जाओ

महाश्वेता देवी (14 जनवरी 1926 – 28 जुलाई 2016).
फ़ोटो 'द हिन्दू' से साभार

बायेन 
- शेफाली फ्रॉस्ट

(महाश्वेता की याद में

वो रेल को रोक लेगी हाथ से पकड़ 
वो सर पीट कर इंजन में 
सीटी बजाएगी रात रात 
जागो-जागो, जाग जाओ!
पर जायेगी नहीं वापस

उसके सीने की गोल उठान 
रो रो कर ढलकेगी घर के कोने कोने में
जहाँ वो नहीं है,
कहाँ गिरा वो सूखा द्रव्य?

एक आवाज़ जैसा पेड़ 
सर-सर कर झुपड़िया पर सूरज सुलगायेगा 
वो जला देगी चिड़िया का घोंसला 
सांप की टहनी में, अण्डों से भरा, 
चीयाँ चीयाँ कर के भागेगा पेड़ से चोंच खोले बच्चा, 
गिरेगी खून की दरांती पेड़ की जड़ पर 
उतरेगा दूध आँखों में
रात भर की जागी कीचड़ सा, 
बच्चा कुनमुनायेगा बिस्तर पर बप्पा के पास 
माँ के थन पर उगेगी घास

सालों बाद ट्रक से उतर 
रोडवेज़ वाला ड्राइवर 
डालेगा खटिया, शराब की दुकान पर,
लहलहाएगी प्यास, 
उड़ेगी फस्स से इंजन की गर्मी 
फाड़ कर घास निकलेगा ज़मीन से 
उस गाँव का इकलौता 
मारुआना का पेड़ 

तुम्हें वह घास नहीं मिलेगी

आज़ादी की घास
- हरिशंकर परसाई

हम तीन मित्र थे. हम पढ़ते थे जब सन् 42 का अंग्रेजो भारत छोड़ोआंदोलन चला. हमारे नेता ने हमें ललकारा. वे नारा देते थे- गुलामी के घी से आजादी की घास अच्छी है. हम उत्साही थे ही. अांदोलन में जोर-शोर से हिस्सा लिया. जेल गए. हमारे नेता का नारा था- गुलामी के घी से आजादी की घास अच्छी.

जेल से छूटे. पढ़ाई पूरी की. आजादी आ गई. हम डिग्रियां लिए शहर के चक्कर लगाने लगे.

हमारे नेता अब मंत्री हो गए थे. एक दिन हम उनके बंगले के सामने से निकले. देखा बंगले के अहाते में बहुत अच्छी घास हवा में हिलोरें ले रही थी. देशी और विलायती बढ़िया घास! हमारा जी ललचाने लगा. आजादी की घास कितनी अच्छी होती है.

हम बंगले में घुस गए. हमने उन्हें याद दिलाया कि हम उनके नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़े थे. हमने नारे लगाए थे- गुलामी के घी से आजादी की घास अच्छी होती है.

मंत्री जी ने कहा, “ठीक है, ठीक है. तुम कैसे आए? क्या चाहते हो?”

हमने कहा, “आपके अहाते में इतनी बढ़िया आजादी की घास लगी है. हम थोड़ी-सी खाना चाहते हैं.


मंत्री जी ने कहा, “तुम्हें वह घास नहीं मिलेगी. वह मेरे पालतू गधों के खाने के लिए है.

Saturday, July 30, 2016

अशुद्ध बेवकूफ़ी के मज़े

एक अशुद्ध बेवकूफ
-हरिशंकर परसाई

बिना जाने बेवकूफ बनाना एक अलग और आसान चीज है. कोई भी इसे निभा देता है. मगर यह जानते हुए कि मैं बेवकूफ बनाया जा रहा हूं और जो मुझे कहा जा रहा है, वह सब झूठ है- बेवकूफ बनते जाने का एक अपना मजा है. यह तपस्या है. मैं इस तपस्या का मजा लेने का आदी हो गया हूं. पर यह महंगा मजा है- मानसिक रूप से भी और इस तरह से भी. इसलिए जिनकी हैसियत नहीं है उन्हें यह मजा नहीं लेना चाहिए. जो हैसियत नहीं रखते उनके लिए दो रास्ते हैं- चिढ़ जायें या शुद्ध बेवकूफ बन जायें. शुद्ध बेवकूफ एक दैवी वरदान है, मनुष्य जाति को. दुनिया का आधा सुख खत्म हो जाए, अगर शुद्ध बेवकूफ न हों. मैं शुद्ध नहीं, ‘अशुद्धबेवकूफ हूं और शुद्ध बेवकूफ बनने को हमेशा उत्सुक रहता हूं.

अभी जो साहब आये थे, निहायत अच्छे आदमी हैं. अच्छी सरकारी नौकरी में हैं. साहित्यिक भी हैं. कविता भी लिखते हैं. वे एक परिचित के साथ मेरे पास कवि के रूप में आये. बातें काव्य की ही घंटा भर होती रहीं- तुलसीदास, सूरदास, गालिब, अनीस वगैरह. पर मैं अशुद्धबेवकूफ हूं, इसलिए काव्य-चर्चा का मजा लेते हुए भी जान रहा था कि भेंट के बाद काव्य के सिवाय कोई और बात निकलेगी. वे मेरी तारीफ भी करते रहे और मैं बरदाश्त करता रहा. पर मैं जानता था कि वे साहित्य के कारण मेरे पास नहीं आये.

मैंने उनसे कविता सुनाने को कहा. आमतौर पर कवि कविता सुनाने को उत्सुक रहता है, पर वे कविता सुनाने में संकोच कर रहे थे. कविता उन्होंने सुनायी, पर बड़े बेमन से. वे साहित्य के कारण आये ही नहीं थे- वरना कविता की फरमाइश पर तो मुर्दा भी बोलने लगता है.

मैंने कहा - कुछ सुनाइए.

वे बोले - मैं आपसे कुछ लेने आया हूं.

मैंने समझा ये शायद ज्ञान लेने आये हैं. सोचा - यह आदमी ईश्वर से भी बड़ा है. ईश्वर को भी प्रोत्साहित किया जाए तो वह अपनी तुकबंदी सुनाने के लिए सारे विश्व को इकट्ठा कर लेगा. पर ये सज्जन कविता सुनाने में संकोच कर रहे थे और कह रहे थे - हम तो आपसे कुछ लेने आये हैं.

मैं समझता रहा कि ये समाज और साहित्य के बारे में कुछ ज्ञान लेने आये हैं. कविताएं उन्होंने बड़े बेमन से सुना दीं. मैंने तारीफ की, पर वे प्रसन्न नहीं हुए. यह अचरज की सी बात थी. घटिया से घटिया साहित्यिक सर्जक भी प्रशंसा से पागल हो जाता है. पर वे जरा भी प्रशंसा से विचलित नहीं हुए.

उठने लगे तो बोले - डिपार्टमेंट में मेरा प्रमोशन होना है. किसी कारण अटक गया है. जरा आप सेक्रेटरी से कह दीजिए, तो मेरा काम हो जाएगा.

मैंने कहा - सेक्रेटरी क्यों? मैं मंत्री से कह दूंगा. पर आप कविता अच्छी लिखते हैं.

एक घंटे जानकर भी मैं साहित्य के नाम पर बेवकूफ बना - मैं अशुद्धबेवकूफ हूं.

एक दिन मई की भरी दोपहर में एक साहब आ गये. भयंकर गर्मी और धूप. मैंने सोचा कि कोई भयंकर बात हो गई है, तभी ये इस वक्त आये हैं. वे पसीना पोंछकर वियतनाम की बात करने लगे. वियतनाम में अमरीकी बर्बरता की बात कर रहे थे. मैं जानता था कि मैं निक्सन नहीं हूं. पर वे जानते थे कि मैं बेवकूफ हूं. मैं भी जानता था कि इनकी चिंता वियतनाम नहीं है. घंटे भर राजनीतिक बातें हुईं. वे उठे तो कहने लगे - मुझे जरा दस रुपये दे दीजिए.

मैंने दे दिए और वियतनाम की समस्या आखिर कुल दस रुपये में निपट गई.

एक दिन एक नीति वाले भी आ गये. बड़े तैश में थे. कहने लगे - हद हो गयी! चेकोस्लोवाकिया में रूस का इतना हस्तक्षेप! आपको फौरन वक्तव्य देना चाहिए.

मैंने कहा- मैं न रूस का प्रवक्ता हूं, न चेकोस्लोवाकिया का. मेरे बोलने से क्या होगा.

वे कहने लगे - मगर आप भारतीय हैं, लेखक हैं, बुद्धिजीवी हैं. आपको कुछ कहना ही चाहिए.

मैंने कहा - बुद्धिजीवी वक्तव्य दे रहे हैं. यही काफी है. कल वे ठीक उल्टा वक्तव्य भी दे सकते हैं, क्योंकि वे बुद्धिजीवी हैं.

वे बोले - याने बुद्धिजीवी बेईमान भी होता है?

मैंने कहा - आदमी ही तो ईमानदार और बेईमान होता है. बुद्धिजीवी भी आदमी ही है. वह सुअर या गधे की तरह ईमानदार नहीं हो सकता. पर यह बतलाईये कि इस समय क्या आप चेकोस्लोवाकिया के कारण परेशान हैं? आपकी पार्टी तो काफी नारे लगा रही है. एक छोटा सा नारा आप भी लगा दें और परेशानी से बरी हो जाएं.

वे बोले - बात यह है कि मैं एक खास काम से आपके पास आया था. लड़के ने रूस की लुमुम्बा यूनिवर्सिटी के लिए दरख्वास्त दी है. आप दिल्ली में किसी को लिख दें तो उसका सिलेक्शन हो जाएगा.

मैंने कहा - कुल इतनी-सी बात है. आप चेकोस्लोवाकिया के कारण परेशान हैं. रूस से नाराज हैं. पर लड़के को स्कालरशिप पर रूस भेजना भी चाहते हैं.

वे गुमसुम हो गए. मुझ अशुद्ध बेवकूफ की दया जाग गयी.

मैंने कहा - आप जाइए. निश्चिंत रहिए - लड़के के लिए जो मैं कर सकता हूं करूंगा.

वे चले गए. बाद में मैं मजा लेता रहा. जानते हुए बेवकूफ बनने-वाले अशुद्धबेवकूफ के अलग मजे हैं.

मुझे याद आया गुरु कबीर ने कहा था - माया महा ठगनि हम जानी.

Friday, July 29, 2016

महाश्वेता देवी का जाना

महाश्वेता देवी (14 जनवरी 1926 - 28 जुलाई 2016)

वैसा फटकारने वाला अब किसी को कहां मिलेगा
-शिवप्रसाद जोशी

2015 की छायाएं रेंगती हुई 2016 में चली आईं और अब वे और ऊपर उठने लगी हैं. हत्याएं और हमले जारी हैं और इन्हीं समयों के बीच वे आवाज़ें भी सदा के लिए हमें छोड़ जा रही हैं जिनकी बुलंदियों ने बर्बरता को उचक कर हमारी गर्दन पर बैठने की जुर्रत करने से रोके रखा था. भारतीय जनमानस की एक ऐसी ही बुलंदी थीं महाश्वेता देवी जिनकी आवाज़ ही अब वंचितों की लड़ाई का सबब है.

कहने को महाश्वेता देवी बांग्ला आदिवासी समुदायों के बीच ही सक्रिय रहीं लेकिन वो सक्रियता इनकी सार्वभौम और उतनी प्रभावशाली थी कि वो आज़ाद भारत के चुनिंदा सार्वजनिक बुद्धिजीवियों में एक और उनमें इस समय सबसे वरिष्ठ थीं. उनका निधन सिर्फ़ साहित्य या संस्कृति का नुकसान नहीं है, उनकी उम्र हो चली थी, वो नब्बे साल की थीं, काफ़ी समय से बीमार थीं. उन्हें अवश्यंभाविता का पता था, बस नुकसान ये हुआ है कि उनका जाना ऐसे समय में हुआ है जब चारों ओर विकरालताओं का बोलबाला है और गरीबों, वंचितों को मारने सब दौड़े जा रहे हैं, उन्हें रोकने वाली माई नहीं होगी. ऐसी शख्सियत होना आसान नहीं. नुकसान ये है कि लोग और अकेले हुए हैं. दबे कुचलों को खदेड़ने की कार्रवाई बेतहाशा हो जाएगी.

वैसा फटकारने वाला अब किसी को कहां मिलेगा जैसा बंगाल के पूर्व सत्ताधारी वामपंथियों को महाश्वेता देवी के रूप में मिला. इस फटकार से उन्होंने क्या ग्रहण किया ये एक अलग शोचनीय कथा है, लेकिन उन्हें नींद से जगाने का प्रयत्न करते हुए सबसे पहले बाहर निकलने वालों में महाश्वेता भी थीं. वो आगे थीं.

2006 में फ्रांकफ़ुर्ट पुस्तक मेले में अपने मशहूर उद्घाटन भाषण में महाश्वेता देवी ने कहा था:  “1980 के दशक से, सबसे ज़्यादा वंचित और हाशिए में धकेले गए अपने लोगों के रोज़मर्रा के अन्याय और शोषण के बारे में मुखर रही हूं. ये आदिवासी हैं, भूमिहीन देहाती ग़रीब जो आगे चलकर नगरों में भटकते हुए मज़दूर और फुटपाथों के बाशिंदे बन जाते हैं. अख़बारों मे रिपोर्टों के ज़रिए, याचिकाओं के ज़रिए, अदालती मामलों, अधिकारियों को चिट्ठियों, एक्टिविस्ट संगठनों में भागीदारी के ज़रिए और अपनी पत्रिका 'बोर्तिका' के ज़रिए जिसमें वंचित लोग अपनी दास्तान सुनाते हैं, और सबसे आख़िर में अपने फ़िक्शन के ज़रिए मैंने भारत की आबादी के इस उपेक्षित तबके की कठोर हक़ीक़त को राष्ट्र के संज्ञान में लाने का बीड़ा उठाया है. उनके विस्मृत और अदृश्य इतिहास को मैंने राष्ट्र के आधिकारिक इतिहास में शामिल कराने का बीड़ा उठाया है. मैं बार बार ये कहती आई हूं कि हमारी आज़ादी नकली थी. वंचितों के लिए कोई आज़ादी नहीं आई, वे अब भी अपने बुनियादी अधिकारों से महरूम हैं.

Thursday, July 28, 2016

कितनी दराज़ें हैं मृत्यु के पास - राफ़ाल वोयात्चेक की कवितायेँ - 4

कितनी दराज़ें
-राफ़ाल वोयात्चेक


कितनी दराज़ें हैं मृत्यु के पास! - पहली में 
वह इकठ्ठा करती है मेरी कविताएं
जिनकी मदद से मैं उसकी आज्ञा का पालन करता हूं

दूसरी में तो निश्चय ही 
उसने सम्हाली हुई है बालों की एक लट
तब से जब मैं पांच साल का था

तीसरी में - रात की मेरी 
पहली दाग़दार चादर
और अन्तिम परीक्षा की मार्कशीट

चौथी में वह रखे है
निषेधाज्ञाएं और प्रचलित कहावतें
"गणतन्त्र के नाम पर"

पांचवीं में समीक्षाएं, विचार
जिन्हें वह उदासी के वक़्त
पढ़ा करती है

उसके पास निश्चय ही एक गुप्त दराज़ होनी चाहिये
जहां सबसे पवित्र वस्तु धरी हुई है
- मेरा जन्म प्रमाणपत्र

और सबसे नीचे वाली, जो सबसे बड़ी भी है
- उसे वह बमुश्किल खोल पाती है -
वह बिल्कुल मेरे नाप की होगी.

Wednesday, July 27, 2016

मुझे भाषाएं सीखने पर मजबूर करो - राफ़ाल वोयात्चेक की कवितायेँ - 3

अनुरोध
-राफ़ाल वोयात्चेक

मुझे एक झाड़ू दो - मैं शहर के चौराहे की सफ़ाई करूंगा
या दो एक औरत, मैं उसे प्यार करूंगा और गर्भवान बना दूंगा
मुझे एक पितृभूमि दो, मैं उसके दृश्यों का 
महिमागान करूंगा या उसकी सत्ता का अपमान
या करूंगा उसकी सरकार की प्रशंसा
मेरे सामने एक आदमी लाओ मैं उसकी महानता को पहचानूंगा
या उसके दुःख को
रोचक शब्दों में करूंगा मैं उनका वर्णन
मुझे प्रेमीजन दिखाओ और मैं भावनाओं में बह जाऊंगा
मुझे किसी अस्पताल में भेजो
या किसी सम्प्रदाय के कब्रिस्तान में
मेरे वास्ते सर्कस या थियेटर की व्यवस्था करो
किसी फ़सल में किसी युद्ध की - शहर में किसी उत्सव की
या मुझे गाड़ी चलाना या टाइप करना सिखलाओ
मुझे भाषाएं सीखने पर मजबूर करो
या अख़बार पढ़ने पर
और आख़ीर में दो मुझे वोदका
- मैं उसे पियूंगा
और फिर कै करूंगा
क्योंकि कवियों का इस्तेमाल होना ही चाहिये.

Tuesday, July 26, 2016

अपने छन्दों से वह तोड़ डालता है खिड़कियां - राफ़ाल वोयात्चेक की कवितायेँ - 2

कवि के बारे में एक गीत
-राफ़ाल वोयात्चेक


क्योंकि उसे हमेशा पीटा जाता है किसी बच्चे की तरह -
इस कला के बारे में कुछ न जानता हुआ कवि,
अपनी कविताओं की मुठ्ठी भींच लेता है और उन्हें पीटना शुरू करता है.

वह एक स्त्री को पीटता है क्योंकि वह ख़ुद को साफ़ रखती है
अपने मुंहांसों को बढ़ने नहीं देती और मेकअप करती है.
वह अपनी पत्नी को पीटता है क्योंकि वह एक स्त्री है.

इसी वजह से वह अपनी मां को पीटता है.
वह अपने पिता को पीटता है क्योंकि वे उसकी मां के साथ हैं.
वह जल्दबाज़ उपमाओं के साथ थूकता है अधिकारियों पर.

अपने छन्दों से वह तोड़ डालता है खिड़कियां, और तनाव
की एक लात से वह गर्भ के भीतर एक भ्रूण के सिर को
घायल कर देता है, ताकि मां अपने बच्चे को
उसकी उस मूर्खता से न पहचान पाए जिसे लेकर वह पैदा होगा.

कवि करता है और भी बहुत सारे काम
मगर तब वह कवि नहीं होता. 

Monday, July 25, 2016

मुझे बतलाओ क्या कुछ भी और करने को बचा हुआ है अब - राफ़ाल वोयात्चेक की कवितायेँ - 1

राफ़ाल वोयात्चेक का जन्म १९४५ में पोलैंड के एक सम्मानित परिवार में हुआ था. ११ मई १९७१ को मात्र छब्बीस साल की आयु में आत्महत्या कर चुकने से पहले राफ़ाल ने तकरीबन दो सौ कविताएं लिखीं, जिन्हें चार संग्रहों की शक्ल में प्रकाशित किया गया. कुछ कविताएं उसने छ्द्म स्त्रीनाम से भी लिखीं. उसकी पढ़ाई बहुत बाधित रही और ताज़िन्दगी वह अल्कोहोलिज़्म और डिप्रेशन का शिकार रहा. उसने कविता लिखना तब शुरू किया था जब पोलैंड के युवा कवियों को यह भान हो गया था कि उनका देश एक झूठे और भ्रष्ट राजनैतिक सिस्टम में फंस चुका है. राफ़ाल की कविताएं तत्कालीन पोलैंड की राजनीति और सामाजिक परिस्थिति को एक सार्वभौमिक अस्तित्ववादी त्रासदी के स्तर पर देखती हैं. मोहभंग, व्यक्तिगत भ्रंश, और मृत्यु के प्रति ऑब्सेशन उसकी कविताओं की आत्मा में है.

पोलैंड के मिकोलो क़स्बे में, जहां वह जन्मा था - हाल ही में उसके नाम पर एक संग्रहालय का उद्घाटन किया गया है, बीसवीं सदी की महान पोलिश कविता में जीवन भर अभिशप्त रहे इस उल्लेखनीय युवा कवि को बहुत लाड़ के साथ याद किया जाता है. 


शब्दज्ञान 

- राफ़ाल वोयात्चेक

मेरा शब्दज्ञान इतना सीमित है! 'उम्मीद' का शब्द 'कल'
केवल तुमसे जुड़ा हुआ है
'प्रेम' नाम का शब्द मेरी जीभ को छका दिया करता है और
ख़ुद को 'भूख' शब्द के अक्षरों से नहीं बना पाता.

दुख ने मुझे भर दिया है साहस से, जाता हूं अब तुम्हारे ख़्वाबों को छोड़कर,
निराशा में मैंने अपने सपने को भींचा हुआ है अपने ही दांतों से
मुझे बतलाओ - क्या कुछ भी और करने को बचा हुआ है अब
जबकि खु़द 'मृत्यु' भी अपने कार्यों को ज़बान नहीं दे पा रही?

Sunday, July 24, 2016

नीलाभ को आख़िरी सलाम

नीलाभ नहीं रहे.


नीलाभ से मेरी पहली मुलाकात १९८८ की गर्मियों में हुई थी. मैं नैनीताल में एम. ए. का छात्र था. नैनीताल के नाट्य-समूह 'युगमंच' के निमंत्रण पर वे 'दस्ता' नाम की टीम लेकर आए थे. तल्लीताल रिक्शा स्टैंड पर उनका यह दस्ता डफली की थाप पर गा रहा था -'लिखने वालों को मेरा सलाम, पढ़ने वालों को मेरा सलाम.' इस दस्ते में पंकज श्रीवास्तव भी थे और इरफ़ान भी और के.के. पांडे भी - ये सारे आज मेरे सबसे अन्तरंग दोस्तों में शुमार हैं.

 इस पहली - पूरी मुलाकात पर एक लम्बी पोस्ट कभी फिर.

जो सबसे गहरा क्षण अब तक जेहन में बैठा हुआ है वो ये है कि हम दोनों रिक्शे में बैठकर मल्लीताल की तरफ़ जा रहे थे जहां रामलीला मैदान पर कोई आयोजन था. दस्ता की टीम ने एक शो करना था. हम नैनीताल बैंक बिल्डिंग के पास थे जब पता नहीं किस रौ में नीलाभ जी ने मुझे मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर सुनाया -

उस बज़्म में मुझको नहीं बनती हया किये
बैठा रहा अगरचे इशारे हुआ किए


इत्तफ़ाकन मुझे इस ग़ज़ल का एक और शेर याद था -

सोहबत में गैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू
देने लगा है बोसे बिग़ैर इल्तिज़ा किये


मेरे ख़्याल से यह एक दीर्घकालिक सम्बन्ध की बुनियाद बना पाने को काफ़ी था. यह सम्बन्ध उनके यूं चले जाने से ख़त्म तो नहीं हुआ हां एक टीस ज़रूर भीतर गहरे तक पैठ गयी है. जब कबाड़खाने पर जैज़ पर लिखी उनकी सीरीज़ छप रही थी, वे बहुत उत्साहित होकर उसके प्रकाशन की योजना मेरे साथ बनाना शुरू कर चुके थे. मुझे उन्होंने इस किताब की डिज़ाइन का "ठेका" दे दिया था. सोचता हूँ अब उस ठेके का क्या होगा.

पिछले साल से अब तक तक तीन ऐसे कवि हिन्दी ने खोये हैं जिनके साथ युवतर पीढ़ी के गहरे और अर्थपूर्ण सम्बन्ध रहे और जिसे वे अपने रचनाकर्म और जीवनशैली से सदैव प्रेरणा देते रहे. वीरेन डंगवाल और पंकज सिंह के बाद अब नीलाभ का जाना हिन्दी साहित्य के संसार का और भी अधूरा और मनहूस रह जाना है.

अभी अभी मैंने किसी वेबसाइट पर मंगलेश डबराल का कथन पढ़ा है कि नीलाभ इस मायने में अपनी तरह के अमूल्य हिन्दी कवि/लेखक थे जिनकी चार-चार भाषाओं - उर्दू, हिन्दी, अंग्रेज़ी और पंजाबी - पर गहरी पकड़ थी. उनका साहित्यिक काम बहुत विषद है. उन्होंने बहुत सारे अनुवाद किये और ढेरों कविताएं लिखीं. नीलाभ का मोर्चा नाम से उनका एक ब्लॉग था जिस पर वे लगातार सक्रिय रहा करते थे.  

नीलाभ एक बेबाक, मीठे मगर तुर्शज़बान आदमी थे और ज़ाहिर है चाहे-अनचाहे ऐसे आदमी को अपना दुश्मन माननेवाले भी काफी बन जाया करते हैं. इसीलिये विवादों ने उनका दामन कभी नहीं छोड़ा. कल वे खुद उन सारों का दामन छोड़ कर चले गए. आप बहुत याद आयेंगे दद्दा!      

कबाड़खाने की श्रद्धांजलि.
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बांगला कवि सुकांत भट्टाचार्य की इस कविता का नीलाभ ने मूल से अनुवाद किया था.


इस नवान्न में

इस हेमन्त में धान की कटाई होगी
फिर ख़ाली खलिहान से फ़सल की बाढ़ आयेगी
पौष के उत्सव में प्राणों के कोलाहल से भरेगा श्मशान-सा नीरव गाँव
फिर भी इस हाथ से हंसिया उठाते रुलाई छूटती है
हलकी हवा में बीती हुई यादों को भूलना कठिन है
पिछले हेमन्त में मर गया है भाई, छोड़ गयी है बहन,
राहों-मैदानों में, मड़ई में मरे हैं इतने परिजन,
अपने हाथों से खेत में धान बोना,
व्यर्थ ही धूल में लुटाया है सोना,
किसी के भी घर धान उठाने का शुभ क्षण नहीं आया -
फ़सल के अत्यन्त घनिष्ठ हैं मेरे-तुम्हारे खेत।
इस बार तेज़ नयी हवा में
जययात्रा की ध्वनि तैरती हुई आती है,
पीछे मृत्यु की क्षति का ख़ामोश बयान -
इस हेमन्त में फ़सलें पूछती हैं : कहाँ हैं अपने जन ?
वे क्या सिर्फ़ छिपे रहेंगे,
अक्षमता की गलानि को ढँकेंगे,
प्राणों के बदले किया है जिन्होंने विरोध का उच्चारण ?
इस नवान्न में क्या वंचितों को नहीं मिलेगा निमन्त्रण?

Saturday, July 23, 2016

मोहम्मद शाहिद को श्रद्धांजलि

बहुत दिनों से मेल-अखबार वगैरह से दूर रहने के बाद आज अग्रज कवि संजय चतुर्वेदी की मेल से पता लगा मोहम्मद शाहिद नहीं रहे.


भारतीय शैली की शास्त्रीय हॉकी के अंतिम स्तम्भों में गिने जाने वाले शाहिद को मैंने एक दफ़ा अपने लड़कपन में खेलते हुए देखा था. सन बयासी या चौरासी की बात है जब वे लखनऊ में एक एग्जीबीशन मैच खेल रहे थे. उस मैच में ज़फर इकबाल भी खेले थे और वरिष्ठ हो चुके अजितपाल सिंह भी. 

तकरीबन मैदान की लाइन पर खड़े होकर मोहम्मद शाहिद के तिलिस्मी खेल को देखने की सिहरन अब तक याद है. कुल छप्पन साल की कम आयु में मल्टिपल ऑर्गन फेलियर के कारण इस दुनिया को विदा कह गए इस खिलाड़ी को जिसने भी अस्सी के दशक में खेलते देखा होगा उनकी ड्रिब्लिंग को कभी नहीं भूल सकता. 1980 के मॉस्को ओलिम्पिक में गोल्ड मैडल जीतने वाली भारतीय टीम का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे थे मोहम्मद शाहिद. स्पेन के खिलाफ खेले गए फाइनल में, जिसे भारत ने 4-3 से जीता था, में विनिंग गोल उन्होंने ही किया था.  अपनी जन्मस्थली बनारस के अलावा कोई और शहर उन्हें आकर्षित न कर सका और किसी 'बड़ी' जगह न जाने की उनकी जिद ने उन्हें धीमे-धीमे मुख्यधारा और देश के सरोकारों से दूर कर दिया. अंततः शराब ने उनकी जान ली.

टाइम्स ऑफ़ इण्डिया ने उन्हें हॉकी का बिस्मिल्लाह खान कहा है और संजय जी ने अपनी मेल में जो लिखा है उसे पोस्ट कर रहा हूँ. श्रद्धांजलि -

न हन्यते हन्यमाने शरीरे !

मोहम्मद शाहिद हॉकी के महानतम संगीतकारों में से एक थे. इनसाइड लेफ़्टविंगर के तौर पर उनके मूवमेंट्स असाधारण रूप से प्रवाहमान और निर्बाध होते थे. वे 80 के दशक के हमारे हीरो थे.

हमारी दुआ आप तक पंहुचे, शाहिद भाई! पुराने कपड़े छोड़कर आप नए संगीत में प्रवेश करें, देर सबेर हम भी आपको नए वाद्यों के साथ देखेंगे. 

सुर के आगे मैदान रहै पुर में सिरीमान रहै न रहै
बानी में सबद की चोट उठै काया में पिरान रहै न रहै

कुछ बात तो है इस नासपिटी दिल्ली और इसके भटूरों में


वीरेन डंगवाल की एक और रचना -

...

वह धुंधला सा महागुंबद सुदूर राष्ट्रपति भवन का
                जिसके ऊपर एक रंगविहीन ध्वज
                की फड़फड़ाहट
फिर राजतंत्र के वो ढले हुए कंधे
                नॉर्थ और साउथ ब्लॉक्स
वसंत में ताज़ी हुई रिज के जंगल की पट्टी
जिसके करील और बबूल के बीच
जाने किस अक्लमंद - दूरदर्शी माली ने
कब रोपी होंगी
वे गुलाबी बोगनविलिया की कलमें
जो अब झूमते झाड़ हैं
और फिर उनके इस पार
गुरुद्वारा बंगला साहिब का चमचमाता स्वर्णशिखर
भारतीय व्यवस्था में लगातार बढ़ती धर्म की अहमियत से
आगाह करता.

हवा में अब भी तिरते गिरते हैं
पस्त उड़ानों से ढीले हुए पंख
दृष्टिरेखा में वे इमारतें -
बहुमंज़िला अतिमंज़िला पुराने रईसों की
केवल तिमंज़िला.

पूसा रोड के उन पुरानी कोठियों में लगे
आम के दरख्तों पर ख़ूब उतरा है बौर
मेट्रो दौड़ती हैं अनवरत एक दूसरे को काटती
नीचे सड़कों पर आधुनिकतम कारों के बावजूद
उसी ठेठ भारतीय शोरगुल का ही
समकालीन संस्करण है
और भरी भरकम कर्मचारी संख्या वाले
दफ्तरों के बाहर
बेहतरीन खान-पान वाले वे मशहूर ठेले-खोंचे और गुमटियां
जिन तक मेरी स्मृति खींच ले जाती है
मुझ ग़रीब चटोरे को.

कुछ बात तो है इस नासपिटी दिल्ली
और इसके भटूरों में
कि हमारी भाषा के सबसे उम्दा कवि
जो यहां आते हैं यहीं के होकर रह जाते हैं
जब कि भाषा भी क्या यहां की :
अबे ओये तू हान्जी हाँ.

Friday, July 22, 2016

तेरे पास तो हैं भरी पूरी यादगाहें


चलो चलते
-वीरेन डंगवाल


जो भी जाता
कुछ देर मुझे नयनों में भर लेता जाता
मैं घबड़ाता हूं.
अरे बाबा, चलो आगे बढ़ो
सांस लेने दो मुझको....

                   ¨

है बहुत ही कठिन जीवन बड़ा ही है कठिन
          चलते चलो चलते.

वन घना है
बहुल बाधाओं भरा यह रास्ता सुनसान
भयानक कथाओं से भरा
सभी जो हो रहीं साकार :
'गहन है यह अन्धकारा... अड़ी है दीवार जड़
की घेर कर,
लोग यों मिलते कि ज्यों मुंह फेर कर...'

पर क्या तुझे दरकार
तेरे पास तो हैं भरी पूरी यादगाहें
और स्वप्नों - कल्पनाओं - वास्तविकताओं का
विपुल संसार,
          फिर यह यातना!
          जीवित मात्र रहने की
          कठिन कोशिश
          उसे रक्खो बनाए
          और चलते चलो चलते.