Tuesday, March 4, 2008

बहुत दिनों से डाकिया घर नहीं आया + - 'राग दरबारी' का (प्रेम) पत्र


रात के दो के आसपास का समय था।वोल्वो तेज रफ्तार से भाग रही थी. बस में थोड़े-थोड़े अंतराल पर एक ही गाना बार-बार बज रहा था-'चिठ्ठी आई है ,वतन से चिठ्ठी आई है'.लग रहा था कि बस के ड्राइवर और स्टाफ को घर की याद आ रही होगी.मुझसे आगे की सीट पर बैठा युवक अपनी साथी को बता रहा था-'नाम फिल्म इसी गाने से पंकज उधास का नाम फेमस हुआ'.शुक्र है कि युवती ने 'कौन पंकज, कौन उधास' नहीं पूछा.मुझे याद आया एक सहकर्मी ने एक दिन बताया था कि उन दिनों जब यह गाना खूब चला था तब उन्होंने इसी से 'प्रेरणा'लेकर गणित में एम.एस-सी.करने के तत्काल बाद एक विदेशी स्कूल की नौकरी के बदले अपने कस्बेनुमा शहर की मास्टरी को तरजीह दी थी कि 'उमर बहुत है छोटी,अपने घर में भी है रोटी'.हालांकि बाद में,थोड़ी तरलता आने पर उन्होंने बेहद मीठे और मुलायम अंदाज में यह भी खुलासा किया था कि इस निर्णय के केन्द्र में 'प्रेम' भी ( शायद प्रेम ही )एक मजबूत कारण या आधार था.और यह भी कि वह रोजाना बिला नागा 'उसे' एक पत्र लिखा करते थे.

आजकल पत्र कौन लिखता है? सरकारी,व्यव्सायी,नौकरी-चाकरी के आवेदन-बुलावा आदि के अतिरिक्त पारिवारिक-सामाजिक पत्र हमारी जिंदगी के हाशिए से भी सरक गए है.क्या ऐसा संचार के वैकल्पिक संसाधनों-साधनों की सहज उपलब्धता के कारण हुआ है? या कि समय का अभाव,पारिवारिक-सामाजिक संरचना के तंतुजाल में दरकाव,पेपरलेस कम्युनिकेशन की ओर अग्रगामिता आदि-इत्यादि इसकी वजहें हैं? बहरहाल, इस गुरु-गंभीर विषय पर विमर्श की विचार-वीथिका में वरिष्ठ-गरिष्ठ विद्वानों को विचरण करने का अवसर प्रदान करते हुए मैं तो बस यही कहना चाह रहा हूं कि कहां गए वो दिन? वो पत्र-लेखन और पत्र-पठन के दिन अब तो पत्र-लेखन कला स्कूली पाठ्यक्रमों में सिमट कर रह-सी गई है।

कुछ लोग कहेंगे कि ई मेल और एसएमएस पर मेरी नजर क्यों नहीं जा रही है।हां,ये भी पत्र के विकल्प-रूप हैं और इनके जरिए व्यक्त की जाने वाली संवेदना तथा उसके शिल्प को मैं नकार भी नहीं रहा हूं किन्तु यहां मेरी मुराद कागज पर लिखे जाने वाले उस पत्र से है जिससे तमाम भाषाओं का विपुल साहित्य भरा पड़ा है,जिसको लेकर रचा गया समूचे संसार का शास्त्रीय-उपशास्त्रीय-लोक-फ़ोक संगीत अनंत काल तक दिग्-दिगंत में गूंजता रहेगा,जो कभी मानवीय संबंधों की ऊष्मा का कागजी पैरहन था,जो कभी सूखे हुए फूलों के साथ किताबों के पन्नों में मिला करता था और दिक्काल की सीमाओं को एक झटके में तिरोहित कर जीवन-जगत के तमस में आलोक का आश्चर्य भर देता था.

श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास 'राग दरबारी'(१९६८) मेरी प्रिय पुस्तकों की सूची में काफी ऊपर है.पिछले महीने दिल्ली में संपन्न पुस्तक विश्व पुस्तक मेले में राजकमल /राधाकृष्ण प्रकाशन के स्टाल पर इसकी जबरदस्त डिमांड मैंने खुद देखी थी. मुझे बार-बार इस उपन्यास से गुजरना अच्छा लगता है.अपने समय और समाज को समझने के लिए यह उपन्यास मेरे लिए एक उम्दा संदर्भ ग्रंथ का काम भी करता रहा है.अपनी इसी प्रिय पुस्तक में शामिल एक पत्र (या प्रेम पत्र )लेखक के प्रति आदर और प्रकाशक के प्रति आभार व्यक्त करते हुए 'कबाड़खाना' के पाठकों की सेवा में इस उम्मीद के साथ प्रस्तुत कर रहा हूं कि इसे इतिहास के बहीखाते में दर्ज होने की तरफ अग्रसर पत्र-लेखन कला एवं(अथवा)विज्ञान का एक उदाहरण मात्र माना जाए- कंटेंट, रेफरेंस और जेंडर से परे.यह जानते हुए कि ऐसा कतई संभव नहीं है,फिर भी-...

'राग दरबारी' का (प्रेम) पत्र

ओ सजना ,बेदर्दी बालमा,
तुमको मेरा मन याद करता है.पर चॉंद को क्या मालूम, चाहता है उसे कोई चकोर.वह बेचारा दूर से देखे करे न कोई शोर.तुम्हें क्या पता कि तुम्हीं मेरे मन्दिर ,तुम्हीं मेरी पूजा ,तुम्ही देवता हो,तुम्हीं देवता हो.याद में तेरी जाग-जाग के हम रात-भर करवटें बदलते हैं.
अब तो मेरी हालत यह हो गई है कि सहा भी न जाए,रहा भी न जाए.देखो न मेरा दिल मचल गया,तुम्हें देखा और बदल गया.और तुम हो कि कभी उड़ जाए,कभी मुड़ जए भेद जिया का खोले ना.मुझको तुमसे यही शिकायत है कि तुमको प्यार छिपाने की बुरी आदत है.कहीं दीप जले कहीं दिल,जरा देख तो आकर परवाने.
तुमसे मिलकर बहुत सी बातें करनी हैं.ये सुलगते हुए जज्बात किसे पेश करें.मुहब्बत लुटाने को जी चाहता है.पर मेरा नादान बालमा न जाने जी की बात.इसलिए उस दिन मैं तुमसे मिलने आई थी .पिय़ा- मिलन को जाना.अंधेरी रात.मेरी चॉदनी बिछुड़ गई,मेरे घर में पड़ा अंधियारा था.मैं तुमसे यही कहना चाहती थी,मुझे तुमसे कुछ न चाहिए .बस, अहसान तेरा होगा मुझ परमुझे पलकों की छांव में रहने दो.पर जमाने का दस्तूर है ये पुराना,किसी को गिराना किसी को मिटाना.मैं तुम्हारी छत पर पहुंची पर वहां तुम्हारे बिस्तर पर कोई दूसरा लेटा हुआ था.मैं लाज के मारे मर गई.बेबस लौट आई.ऑधियों ,मुझ पर हंसो,मेरी मुहब्बत पर हंसो.
मेरी बदनामी हो रही है और तुम चुपचाप बैठे हो.तुम कब तक तड़पाओगे? तड़पा लो,हम तड़प-तडप कर भी तुम्हारे गीत गाएंगे.तुमसे जल्दी मिलना है.क्या तुम आज आओगे क्योंकि आज तेरे बिना मेरा मन्दिर सूना है.अकेले हैं,चले आओ जहां हो तुम.लग जा गले से फिर ये हंसी रात हो न हो.यही है तमन्ना तेरे दर के सामने मेरी जान जाए,हाय़.हम आस लगाए बैठे हैं.देखो जी, मेरा दिल न तोड़ना।

तुम्हारी याद में,
कोई एक पागल।
(फोटो- salilda.com से साभार)

2 comments:

Unknown said...

[ "....जिसको लेकर रचा गया समूचे संसार का शास्त्रीय-उपशास्त्रीय-लोक-फ़ोक संगीत अनंत काल तक दिग्-दिगंत में गूंजता रहेगा,जो कभी मानवीय संबंधों की ऊष्मा का कागजी पैरहन था,जो कभी सूखे हुए फूलों के साथ किताबों के पन्नों में मिला करता था और दिक्काल की सीमाओं को एक झटके में तिरोहित कर जीवन-जगत के तमस में आलोक का आश्चर्य भर देता था... "] कसम से, इससे बढ़िया चिट्ठी की याददाश्त क्या होगी; अति उत्तम कबाड़ - मनीष

TheQuark said...

मित्र मुझे हिन्दी भाषा से प्रेम है परन्तु इसके उपासक किसी और ही देश और काल में जीते हैं. कोई भी भाषा उसके उपयोग से प्रभावित होती है जैसे अंग्रेज़ी के शुरुआती शब्दों के मूल लैटिन भाषा में है किंतु साम्राज्यवाद के कारण तमाम भाषाओं के शब्द अंग्रेज़ी में जुड़ते रहे . यही नही जैसे जैसे वैज्ञानिक, तकनीकी , प्रुद्योगिक बदलाव आये भाषा ने उनको स्वीकारा

शायद अंग्रेज़ी उतना अच्छा उधाहरण नही है | जापानी फ्रांसीसी भाषाओं को देखे तो इनका अपने ही देश में कितना प्रचालन रहा है वो भी जीवन की हर गतिविधि में सरकारी काम, शोध, आम बात चीत या फ़िर साहित्य

आप सोच रहे होंगे की इसका आपकी चिट्ठी वाले ब्लौग पोस्ट से क्या वास्ता? भाई अब चीठी के ज़माने गए, एक फ़ोन उठाओ कॉल लगाओ, जैसे जैसे ज़माने बदलते हैं तो हमे भी बदलना पड़ेगा. कैसे बदलते हैं ये हमपे है, यदि नही बदलते हैं तो ऐसे करम होते है की फिल्मी अवार्ड में मजाक उडाया जाता है क्लिष्ट हिन्दी का (वैसे इसमे चुपके चुपके फ़िल्म के हरीपत भैय्या का संवाद याद आता है जो उन्होंने श्री परिमल त्रिपाठी को बोला था - भाषा तो ख़ुद में ही इतनी महान होती है की इसका मजाक नही उडाया जा सकता | तुम भाषा का नही एक आदमी का मजाक उड़ रहे हो)

मेरे कहने का सार यह है की जैसे जैसे दुनिया में दाद्लाव अत है हमे नई वास्तविकताओं के बरे में सोचना चाहिए | हिन्दी काव्य लीजिये (वैसे मैंने इधर कुछ सालों से नए हिन्दी कवियों को नही पड़ा है ) वही पुराने भाव गरीब बनाम अमीर, नेता बनाम जनता अरे ठीक है भाई कुछ और भी बोलो

किंतु कहाँ गई हिन्दी भाषा? में तमाम लोगों को जानता हूँ जिनकी आँखें फटी की फटी रह जाती है जब कोई अच्छी हिन्दी का ज़रा सा भी उपयोग करता है | कई हिन्दी भाषी लोगों को देखा है मैंने जो देवनागरी लिपि भी भूल रहे हैं :( और हिन्दी में गिनती तो शायद ही किसी को याद रहती है