Wednesday, June 11, 2008

पं. गोकुलोत्सव महाराज की आवाज़ में राग मेघ



पिछले कुछ दिनों से ख़ूब बारिश हो रही है. अपने संजय भाई ने बारिश के सुन्दर गीत सुनवाए और बारिश के कई आयामों के बारे में बताया. प्रस्तुत है पंडित गोकुलोत्सव महाराज की लहरदार आवाज़ में राग मेघ की एक द्रुत कम्पोज़ीशन:

4 comments:

बोधिसत्व said...

अद्भुत...आनन्द दायक....पं. जी का कुछ और सुनवाएँ ...

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

खिड़की के बाहर मेघों की उछलकूद के बीच राग मेघ लाइव!
सुनते रहे, सुनते रहे और मेघों में तैरते रहे

sanjay patel said...

अशोक भाई;
पूज्यपाद गोस्वामी गोकुलोत्सवजी महाराज जनवरी में पद्मश्री से नवाज़े गए हैं और विक्रम विश्व-विद्यालय ने उन्हें मानद डॉक्टरेट भी दी है. वे अमीरख़ानी गायकी के सबसे सिध्दहस्त और निकटतम गायकी के गुण-गायक हैं.वे पुष्टीमार्गीय वैष्णव परम्परा मे वरिष्ठ आचार्य हैं.ज़्योतिष,यूनानी ,आर्युर्वेदिक चिकित्सा पध्दति और अरबी,फ़ारसी के गूढ़ जानकार हैं.चूँकि पुष्टीमार्ग (श्रीनाथद्वारा परम्परा जहाँ से उपजा है हवेली संगीत)के परम आचार्य हैं अत: बहुत मर्यादित रूप से गायक के रूप में सार्वजनिक कार्यक्रमों में शिरक़त करते हैं.वे मूलत: पखावज वादक रहे हैं और आकाशवाणी के सुनहरे समय में आकाशवाणी संगीत प्रतियोगिता का स्वर्ण-पदक पा चुके हैं.

उस्ताद अमीर ख़ा साहब उसी मंदिर बतौर सारंगी वादक मुलाज़िम थे जहाँ गोकुलोत्सवजी
आज आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं उन्होने कभी भी ख़ाँ साहब को प्रत्यक्ष नहीं सुना न दीदार किये.बस युवावस्था में पख़ावज और ध्रुपद गायकी से जुड़ने के बाद अनायास उन्हें मंदिर परिसर में चुड़ीवाले बाजे पर अमीर ख़ाँ साहब मरहूम की ध्वनि-मुद्रिकाएँ को सुनने को मिलीं.बस वे कुछ ऐसे मुत्तासिर हुए इस करिश्माई गायकी को अपनी खरजपूर्ण आवाज़ में अभिव्यक्त करना शुरू दिया . मधुरपिया तख़ल्लुस से वे हज़ार से ज़्याद बंदिशे रच चुके हैं . ये जो रचना आपने सुनवाई है वह भी महाराजश्री की रची हुई है (ध्यान से सुनियेगा आख़िर में उपनाम मधुरपिया आया है) और तराना ख़ुद अमीर साह्ब की बहुचर्चित बंदिश का हिस्स है.ख़ाँ साहब मरहूम ने तराने में कई फ़ारसी रचनाओं का शुमार किया था जिसका रंग आपके द्वारा रचना में है.

ज़िन्दगी अब इन महान साधकों से ही तसल्ली पाती है अशोक भाई. ये बात अलग है अमीर ख़ाँ साहब की तरह हम इन्दौर वाले गोस्वामी गोकुलोत्सवजी का क़द भी पहचान नहीं पाए हैं.न जाने क्या तासीर है इस शहर की कि इन्दौर से बाहर जाने के बाद ही अपने हीरों की चमक का अहसास करता है (अमीर ख़ाँ साहब भी इन्दौर छोड़कर कोलकाता चले गये थे.)अल्लाताला जो करते हैं ठीक ही करते हैं.
इस मेघ से मन कहीं भीतर भीग गया.

अजित वडनेरकर said...

वाह...आह्लादकारी , मेघ-चरित्र साकार हुआ और अंत में वृष्टि का अनुभव भी हुआ।
शुक्रिया संजय भाई, अशोक भाई...