Sunday, July 12, 2009

जीतेंगे डोमा जी उस्ताद!

(बन्दर के हाथों कुत्ते की लेंडी को पुरुस्कार की तरह लेना बन्द करो दोस्तो! और अपनी भाषा का सम्मान करना सीखो!.....ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद! ठाकुरवाद मुर्दाबाद!--योगी उदयप्रकाश प्रकरण पर कवि वीरेन डंगवाल की टिप्पणी)


चलिए दिल से बोझ कुछ कम हुआ। वरना लग रहा था कि गोबर पट्टी वाकई वीर विहीन हो गई है। वीरेन जी ने खुलकर जो बात कही है वो बहुत लोगों के दिल की बात हो सकती है। फिलहाल वे चुप हैं। चुप हैं क्योंकि उन्हें उदय प्रकाश के नाराज होने का डर है। वैसे उदय प्रकाश खुद को बेहद सताया हुआ बताते हैं लेकिन उनका क्या जलवा है, वो इसी से पता चलता है कि कबाड़खाने से उनका ब्लाग हटा नहीं कि वापस लगा दिया गया। ऐसे प्रतापी लेखक और योगी आदित्यनाथ के करकमलों से सम्मानित व्यक्ति से टकराने वाले अहमक ही हो सकते हैं।

क्या अद्भुत दृश्य है। लोग गिड़गिड़ा रहे हैं कि प्रभो माफी मांग नहीं सकते तो कोई ठीक-ठाक बहाना ही बता दो ताकि जान छूटे। किसी तरह ये प्रसंग समाप्त हो। लेकिन उदय हैं कि मानते नहीं। उलटा हुंकार कर कह रहे हैं कि कुछ भी ऐसा नहीं किया जिसकी सफाई दूं। पुरस्कार नहीं सम्मान ग्रहण किया है। हाय-हाय,इस सादगी पर कौन न मर जाए ऐ खुदा..!

ये कोई सामान्य घटना नहीं है। ये दृश्य बता रहा है कि लोगों के सामाजिक सरोकार किस तरह से छीज रहे हैं। किसी सवाल पर स्टैंड लेने की एक जो एक गर्वीली परंपरा थी, उसे दफ्न करने की कोशिशें हो रही हैं। कहां तो नोबेल पुरस्कार को आलू का बोरा कहने वालों के वंश का होने का दावा, और कहां रक्त सने बोरे के आलू से भी सम्मानित होने से परहेज नहीं। पहले कहा जाता था कि बुराई को खत्म नहीं कर सकते तो उसको गलत ही कहो। ये भी नहीं कर सकते तो उसके खिलाफ सोचते रहो। यानी हर हाल में दूरी तो बनानी ही होगी। पर इधर बुरे को बुरा कहने में खासा नुकसान होता है तो चुप रहना ही बेहतर।

वैसे इधर, दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुई हैं जिनसे पता चलता है कि सब लोग उदयप्रकाश की ही राह नहीं चल रहे हैं। कवि नीलाभ ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार ठुकराया और कवि पंकज चतुर्वेदी ने सलवाजूडम के संरक्षक छत्तीसगढ़ के आला पुलिस अफसर के दरबार में हो रहे साहित्यिक जमावड़े में जाने से इंकार किया। खास बात ये है कि दोनों ने पहले स्वीकृति दी थी, लेकिन पुनर्विचार किया और लगा कि उनका फैसला गलत है तो बदल दिया। लेकिन कवि सुंदरचंद ठाकुर लाख अपील करें, उदयप्रकाश क्यों माफी मांगेंगे।

कुछ लोग कह रहे हैं कि कौन किससे मिलता है और कौन किससे सम्मानित होता है ये उसका निजी मसला है। इस तर्क पर तो कल कोई बलात्कारी और हत्यारा भी ब्लाग बनाकर कबाड़खाने पहुंच जाएगा,तो क्या उसका स्वागत होगा। उदय प्रकाश जिसके हाथों सम्मानित होने को सफाई देने लायक बात नहीं समझते, वो क्या है, ये राजनीतिक लिहाज से मंदबुद्धि भी बता सकते हैं। जो लोग पूर्वांचल को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झोंकने की साजिश रचने वालों को पहचान नहीं पा रहे हैं, उनके बारे में क्या कहा जाए।

तुर्रा ये कि उदयप्रकाश जातिवादी फासीवाद से लड़ने के लिए मैदान में उतरे हैं और सम्मानित हो रहे हैं योगी आदित्यनाथ के हाथों। ऐसी उलटबांसी क्या पहली सुनी गई है। दलित आंदोलन के नए पुरोधा का ब्राह्मणवादी सामंती झंडाबरदारों के हाथों सम्मान, किसी साजिश का इशारा तो नहीं।

इस पूरे मसले में मैं एक ख्वामखाह की तरह आया। आदत से मजबूर पूंछ उठा दी। सहज बुद्धि कहने लगी कि ऐसे लोगों से दूरी बनानी चाहिए सो उदयप्रकाश का ब्लाग कबाड़खाने से हटाने की मांग कर बैठा। क्या पता था कि ये मांग लोकतंत्र के खिलाफ है। इस लोकतंत्र में तो भेड़-भेड़िये एक घाट पानी पीते हैं। बेचारे भेड़ियों की बिना मेहनत भूख भी मिट जाती है और भेड़ों की प्यास। जय हो..फिर भी ये तो मानना ही पड़ेगा कि लोग थोड़ी देर के लिए ही सही, मेरे झांसे में आ जरूर गए। कबाड़खाने से उदय प्रकाश का ब्लाग हट गया। ये अलग बात है कि ऐसा करने वालों को जब बताया गया कि ऐसा करना तानाशाही और ब्राह्मणवाद है तो वे फिर से लोकतांत्रिक हो गए।

तो अब मैं, न पिद्धी न पिद्दी का शोरबा, इस कबाड़खाने से अलग होने का एलान करता हूं। ....मुझे नहीं लगता कि मैं किसी के भी साथ एक मंच पर रह सकता हूं। रक्त सने हाथों से सम्मानित होने वालों के साथ तो एकदम नहीं।.....

अरे, जरा ठहरिए, आप मुझे बिलकुलै बुड़बक समझते हैं का.... मैं ऐसा कुछ नहीं करने जा रहा हूं। मैं उदय जी भइया साहब कुंवर से अकेले क्यों बिगाड़ लूं। डटे रहो उस्ताद।

अब मैं सिर्फ किसी पेड़ से कहूंगा कि राजा के सिर में सींग जमी है।

5 comments:

Unknown said...

जब किसी संवेदनशील कलाकार को कलात्मक ढंग से राज्यसभा में जाना होता है तो वह ऐसे ही पटरी बदलता है। कई केस स्टडीज है। ...और उदय प्रकाश जी- वह तो महानतम हैं। सारी दुनिया ओवर टाइम उनके खिलाफ साजिश करती रहती है और वे एक अबोध बच्चे की तरह उसमें फंसते रहते हैं। जैस अभी अनिल यादव नाम के तेरह खाना रिंच ने फंसा दिया।

Bhupen said...

मेरे पसंदीदा लेखक ने एक साम्प्रदायिक गुंडे के हाथों पुरस्कार लिया ये बात जानकर मैं भी दुखी हूं. इसे किसी भी हिसाब से जस्टीफाई करना मुझे ठीक नहीं लगता. परिवार और निजी मामला बताकर तो हम हर उस शख़्स की लड़ाई को कमज़ोर ही करेंगे जो मानव विरोधी विचार से लड़ने की शुरुआत अपने घर-परिवार से विद्रोह करके ही करता है. हैरान इसलिए भी हूं कि उदय प्रकाश ख़ुद की आलोचना से सीख लेने की बजाय अपने ख़िलाफ़ कोई गहरी जातिवादी-क्शेत्रवादी साजिश देख रहे हैं. उन्हें ये साफ़ करना चाहिए कि कबाड़खाना कैसे जातिवादी ब्लॉग है. मेरी नज़र में हर जाति-धर्म-इलाक़े में पैदा हुए ऐसे लोग इस ब्लॉग से जुड़े हैं जो हर तरह की संकीर्णता के ख़िलाफ़ हैं. इनमें से कई को मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं. उनपर जातिवाद-साम्प्रदायवाद का आरोप लगाना हजम नहीं होता. क्या उदय प्रकाश इसका कोई मुकम्मल जवाब देंगे ?

जहाजी कउवा said...

अरे हिंदी के रखवालो अब शांति रखो....
एक बात सोचो.
कबाड़खाने का या फिर उदय प्रकाश का पाठक कौन है?
अरे पाठक है आम आदमी
क्योंकि हिंदी में लेखक ज्यादा है और पाठक कम है
मैं कबाड़खाने पर पढने आता हूँ
सुन्दर रचनाएँ, सुन्दर संगीत और तसवीरें
यह क्या चल रहा है यहाँ
क्यों कबाड़खाना ऐसी छीछालेदर की आज्ञा दे रहा है
अरे उदय प्रकाश ने एक गलती की
पर कबाड़खाना वालो आप तो गलती पर गलती करते जा रहे हो
पिले पड़े हो यार
हो गया जाने दो
नए नए कबाडी बने लोग, और ये वही लोग है जो उदय प्रकाश के गुण गाते नहीं फिरते थे
आज बंदूकें लेकर खड़े हो गए और हर घंटे हवाई फायर दाग रहे है
बंद करो बॉस , तुंरत बंद करो
क्योंकि एक बार पढने वालो ने आपका पाखाना संवाद पढना बंद किया
तो बस लिखने वाले बचेंगे
और
लिखने वाले बस लिख लिख कर झगडा करेंगे
पढेगा कोई नहीं
तो बस बैठे रहना
व्हाट एन आईडिया सरजी करते !!

Unknown said...

http://www.anothersubcontinent.com/up2.html par mahashay ka ek interview hai jisse quote karta hoon.

...I don't belong to any politics now, I don't have any ideology..UDAY PRAKASH

In his English interviews he has been trying to gain this kind of pity for some time now.

Its time we stop worrying about him. And leave him alone with his petty ambitions and trivial fantassies about being a 'great writer'

मुनीश ( munish ) said...

"अगर मैं क्षोभ या हताशा में कुछ ऐसा कह गया होऊं, जिससे आप में से किसी को कुछ अप्रिय लगा हो तो यह मान कर क्षमा करें कि इस उम्र और आपा-धापी में कभी-कभी ऐसा हो जाता है। रही 'कबाड़खाना' के अशोक पांडेय की बात, तो वे मेरे इसलिए प्रिय रहे हैं क्योंकि उनमें शायद वही संवेदना, अध्यवसाय और निस्संगता है, जो मैं अपने में पाता हूं। उन्हें समझने में भूल हुई है।"
With these lines of Mr. Uday Prakash, for me this chapter is hereby closed forever. I wish him and Ashok eternal friendship, good health and of course a shot each of Smirnoff and Absolut'. So far so good ! Bury the hatchet , draw the curtain and say good night!