Friday, August 7, 2009

एक दुनिया है असंख्य



सुन्दर चन्द ठाकुर की बेरोज़गार शीर्षक कविता-सीरीज़ को आप लोगों ने बहुत सराहा था. उन का दूसरा संग्रह कल ही प्रकाशित हो कर आया है. सुन्दर एक उम्दा कवि-कबाड़ी-कहानीकार-पत्रकार हैं और कम आयु में ही काफ़ी काम और नाम कमा चुके हैं. उन्हें बधाईयां. कबाड़ख़ाना उनके रचनात्मक भविष्य की कामना करता है. प्रस्तुत है संग्रह से उनकी तीन कविताएं.

इन दिनों प्रेम

अवसाद से
सोचते रहने की बीमारी से
अकेले होने की यंत्रणा से
नाकारा होने के आत्महंता अहसास से
क्रूर चीजों से बचने के लिए
प्रेम एक नैसर्गिक शरण है

हालांकि इन दिनों प्रेम भी अब अपने में क्रूर हो चुका है बहुत
वह हत्याएं करवाने पर आमादा दिखता है
इसे मगर अपवाद ही माना जाए
और कहा जाए कि पूरी दुनिया दरअसल प्रेम ही खोजती रहती है
युवा तो और भी ज्यादा
उन्हें ज्यादा अवसाद घेर सकता है
सोचने की ज्यादा भयानक बीमारी लग सकती है
नाकारा होने के ज्यादा गहरे अहसास में डूब सकते हैं वे

कभी ऐसा भी था कि पेड़ की छांव कल्पना न थी
पेड़ की छांव थी
बादलों की इच्छा न थी
बादल थे
एकान्त की चाहत न थी
एकान्त था
प्रेम का डर न था
प्रेम था

नदी का समूचा तट था प्रेम के वास्ते
बारिश और जंगल के सारे रास्ते
प्रेम का फल एकान्त में पकता है
प्रेम का बीज छांव में फूटता है
प्रेम की आग बारिश में जलती है

शहरों में कम बचा है नैसर्गिक एकान्त
बहुत कम छांव
बहुत कम बारिश

जमाने की ओर पीठ फेरकर बुनते एकान्त
कभी दिख जाते हैं प्रेमीजन यहां
उजाड़ होते किसी बागीचे की
उजड़ती किसी झाड़ी की छांव में
सटकर बैठे वे एक-दूसरे को चूमने को होते हैं
उनके प्रेम को प्रेम से कोई नहीं देखता
आपने भी देखा होगा पुलिस वाले
जिनमें कई बार महिला कर्मचारी भी शामिल होती हैं
अश्लील फ़ब्तियां कसते किस तरह बरसते हैं उन पर

कुछ बातें

ताकत कभी हक की बात नहीं करती
प्रेम की मांग नहीं करता भूखा आदमी
सूखा कंठ रक्त नहीं दो घूंट पानी मांगता है

विपदाओं को झेलने और खुशियों को जीने की कोई उम्र नहीं होती
अत्याचारों को सहने का कोई तजुर्बा नहीं होता
हम मरते हुए भी जीते हैं और जीते हुए भी मरते हैं

एक छोटा-सा अन्याय बच्चों की मासूमियत ले जाता है
एक नि:स्वार्थ उदारता मरने तक याद आती है
खुशी को रोशनी क्षणभंगुर साबित होती है
अपार बन जाती है मुसीबत की एक रात

परोपकार एक छलावा है मगर अत्याचार से बेहतर
अस्थायी लगाव एक धोखा है मगर नफरत से बेहतर
अंतिम सत्य मुत्यु नहीं वर्तमान क्षण होता है

मेरे गले में हिचकियां भर जाती हैं
देखता हूं अंधेरी दुनिया में सालों रियाज के बाद
एक अंधे को लेते कठिन सुर का सधा अलाप
एक बूढ़ा लड़खड़ाते शिशु की ओर सहारे के लिए बढ़ाता है हाथ
मैं रो पड़ता हूं
यह जानते हुए भी कि मारा जाएगा वह
एक शख्स उठाता है जब अन्याय के खिलाफ आवाज

मां का सपूत

जैसे मई के सूने आकाश में
कहीं से प्रकट होता है
पानी से भरा एक बादल
और उम्मीद बनकर छा जाता है

ढलती दुपहर में
आवाज लगाता दौड़ा आ रहा है
पहाड़ की ढलान पर
स्कूल से लौटता

घसियारन मां का सपूत

33 comments:

पारुल "पुखराज" said...

परोपकार एक छलावा है मगर अत्याचार से बेहतर
अस्थायी लगाव एक धोखा है मगर नफरत से बेहतर...bilkul..behtar...

thx fr sharing

Arun Aditya said...

ताकत कभी हक की बात नहीं करती
प्रेम की मांग नहीं करता भूखा आदमी
सूखा कंठ रक्त नहीं दो घूंट पानी मांगता है
बहुत खूब।
कविता-संग्रह के लिए बधाई।

शिरीष कुमार मौर्य said...

बड़े भाई और उनकी कविता और उनके संकलन को हमेशा शिरीष कुमार मौर्य का सलाम, ढेरों बधाइयों के साथ.

Mithilesh dubey said...

बेहतरीन रचना, बधाई।

Pratibha Katiyar said...

प्रेम की आग में बारिश जलती है, वाह!

मुनीश ( munish ) said...

@पहली --"आपने भी देखा होगा पुलिस वाले
जिनमें कई बार महिला कर्मचारी भी शामिल होती हैं
अश्लील फ़ब्तियां कसते किस तरह बरसते हैं उन पर" देखिये दिल्ली में तो सी. एम. के सख्त आर्डर हैं की प्रेमियों को पार्कों में तंग न करें ,मगर जी हाँ सारा देश दिल्ली तो नहीं हैं ! 'लव आजकल' जैसी फिल्में भी इस समस्या पर मौन हैं तो ऐसे में आपकी ये कविता स्थानाभाव की समस्या से जूझते प्रेमियों के मौन आक्रोश को वाणी तो देती ही है .
@दूसरी --अच्छी -सच्ची बातें !
@तीसरी --इस कविता के लिए लोग आपको याद करेंगे .

Ashok Kumar pandey said...

सुन्दर चन्द ठाकुर जी को नये कविता संग्रह के लिये ढेर सारी बधाईयां।

Ashok Kumar pandey said...

सुन्दर चन्द ठाकुर जी को नये कविता संग्रह के लिये ढेर सारी बधाईयां।

Ashok Kumar pandey said...

अशोक भाई…प्रकाशक और मूल्य भी बतायें जिससे आर्डर भेजा जा सके।

अमिताभ मीत said...

बेहतरीन कवितायें. पढ़वाने का बहुत शुक्रिया भाई.

विजय गौड़ said...

sunder bhai ko bahut bahut badhai. berojar sunder ladke ki kaviatain bhi sunder hain. photo bhi.

Ashok Pande said...

पुस्तक ज्ञानपीठ प्रकाशन, १५ इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली ११० ००३ से छपी है. मूल्य है सौ रुपये.

Ashok Pande said...

पुस्तक ज्ञानपीठ प्रकाशन, १५ इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली ११० ००३ से छपी है. मूल्य है सौ रुपये.

वाणी गीत said...

प्रेम की मांग नहीं करता भूखा आदमी
सूखा कंठ रक्त नहीं दो घूंट पानी मांगता है..!!
बहुत बढ़िया ..!! शुभकामनायें ..!!

मुनीश ( munish ) said...

मेरा एक मित्र वहां अनुवादक है . मैंने उसे ये किताब खरीद लाने को कह दिया है . आधुनिक ,छंद -विहीन कविताओं की ख़रीदी गयी ये मेरी पहली किताब होगी !

कामता प्रसाद said...

आपकी कविताएं समस्‍याओं के दार्शनिकीकरण की निर्वैयक्तिक बोले तो इमपर्सनल अभिव्‍यक्ति हैं। समय के साथ प्रेम भी अपने से विपरीत में बदल जाता है, यह द्वंद्ववाद का नियम है माने यह कि अमर प्रेम जैसी कोई चीज नहीं हो सकती।
यह मेरी नहीं दो अलग-अलग विद्वानों की राय है जिससे मेरी भी सहमति बनती है। लेकिन, कवि-कर्म को जनसामान्‍य के लिए प्रस्‍तुत करने के लिए अशोक पांडेय के प्रति आभार।

Dheeraj Pandey said...

बहुत अच्छी कवितायेँ हैं. कुछ पंक्तियाँ तो सच्चाई की तरह साथ रह जाएँगी

डॉ .अनुराग said...

तीसरी कविता विशिष्ट है .अपने खास अंदाज में .वही ज्यादा पसंद आई....

Unknown said...

बधाई सुंदर बाबू, फौजी की ईमानदारी और जागिंग की आतुर धक-धक दोनों दिखी मुझे कविताओं में।

Ek ziddi dhun said...

बहुत इंतज़ार के बाद/
बधाई हो. वैसे पहले संग्रह का भी पुनर्प्रकाशन बनता है.

somadri said...

pahli baar apke kabaadkhane me aana hua hai... ye to bade kaam ki jagah hai..
abhinandan swikaren,

http://som-ras.blogspot.com

Renu goel said...

सुंदर चंद ठाकुर की कविताएँ पसंद आईं ...विशेषकर इन दीनो प्रेम और माँ का सपूत ....प्रेम की व्याख्या और घसीयरीन माँ के बेटे की तुलना बादल के साथ किया जाना बेहतरीन लगा...

मुनीश ( munish ) said...

I have already told u all that the poet will be fondly remembered for the third poem....itz an immortal piece !

प्रेमलता पांडे said...

'कभी ऐसा भी था कि पेड़ की छांव कल्पना न थी
पेड़ की छांव थी
बादलों की इच्छा न थी
बादल थे
एकान्त की चाहत न थी
एकान्त था
प्रेम का डर न था
प्रेम था '
deep idea is expressed like flowing water. I like poems- without metre, only with idea/feelings.

लोकेन्द्र बनकोटी said...

"मैं रो पड़ता हूं
यह जानते हुए भी कि मारा जाएगा वह
एक शख्स उठाता है जब अन्याय के खिलाफ आवाज"

Bahut Sahi! Samvedna aur kamaal ka jigra chahiye aisa likh paane ke liye. Waah!

शरद कोकास said...

कवि मित्र सुन्दर चन्द ठाकुर को अनेक अनेक बधाईयाँ भाई प्रकाशक और मूल्य की जानकारी तो मुझे भी चाहिये .

शरद कोकास said...

धन्यवाद अशोक जी स्क्रोल कर ऊपर देखा तो ज्ञानपीठ का नाम दिख गया इसके लिये फिरसे बधाई

Sunder Chand Thakur said...

shukriya doston!

poonam pandey said...

vese to sabhi kavitaye bahut acchi hai...phir bhi...mujhe ye lines ziyada hi bhai...
"क्रूर चीजों से बचने के लिए
प्रेम एक नैसर्गिक शरण है "

"विपदाओं को झेलने और खुशियों को जीने की कोई उम्र नहीं होती
अत्याचारों को सहने का कोई तजुर्बा नहीं होता
हम मरते हुए भी जीते हैं और जीते हुए भी मरते हैं"
i must say....its rocking...

प्रीतीश बारहठ said...

समय पर इधर आना नहीं हुआ था।

इतनी उम्दा कविताओं के कवि को बधाई देने का कद नहीं है इसलिये आभार प्रगट करता हूँ।

प्रीतीश बारहठ said...

आपकी बेरोजगार-श्रृंखला की कवितायें पढ़ कर
अपनी बेरोजगारी याद आ रही है। हालाँकि मैं रोजगार के ज्यादा योग्य न होने के कारण इस कदर बेरोजगार नहीं रहा। हत् भाग्य !!

siddheshwar singh said...

नये संग्रह के अवतरण पर बधाई !

Arshia Ali said...

Saarthak kriti.
{ Treasurer-S, T }