Thursday, December 24, 2009

एक हिमालयी यात्रा - नवां हिस्सा

(पिछली किस्त से जारी)

चूंकि नेपाली रानी का खेत शेषनाग के आशीर्वाद से वंचित रह गया था, उसकी पूजा अधूरी रह गई. इस वजह से हर साल आप उस खेत में धान के पौधों को उगता हुआ देख सकते हैं. पौधे अपनी पूरी लम्बाई तक बढ़ते हैं पर उनमें दाने नहीं लगते. कुटी गांव में तिब्बती रानी की नमक की खदान भी पत्थर में तब्दील हो गई.

"जब आप कुटी जाएं आप किसी से पूछ कर उस जगह पर जा सकते हैं जहां यह नमक की खान हुआ करती थी. कुटियाल लोग उस जगह को छागानी या छागा कहते हैं."

फर्त्याल जी यानी मैनेजर साहब भी इस दौरान बातचीत का हिस्सा बन जाते हैं. कथा पूरी हो चुकने पर वे हमें बताते हैं कि पिछले साल पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय के कुछ वैज्ञानिक यहां से सैम्पल ले गए थे और उन्होंने पाया कि पौधे वास्तव में धान के थे.

मैं कथा और धान के खेत की बाबत असमंजस में पड़ा रहता हूं. शाम उतर रही है. हम महिलाओं को धन्यवाद देते हैं और अपने इगलू की तरफ़ बढ़ते हैं. सबीने एक बार और पार्वती सरोवर की तरफ़ चलने की ज़िद करती है.

इस दफ़ा हमारी मुलाकात एक बुज़ुर्ग दम्पत्ति से होती है. दारमा के सौन गांव के मूल निवासी ये लोग फ़िलहाल आगरा से व्यांस घाटी के रौंगकौंग गांव मे किसी रिश्तेदारी में आए हुए हैं. चूंकि वे जौलिंककौंग के इतना नज़दीक थे, उन्हें लगा की दारमा तक हो आने में क्या हर्ज़ है. फ़िलहाल बिचारे तीन दिनों से कुटी में अटके हुए हैं. लोग उन्हें सिन-ला चढ़ने में आने वाली मुसीबतों को लेकर आगाह कर चुके हैं. वे अभी ही जौलिंगकौंग पहुंचे हैं - दूसरी मर्तबा. हुआ तो वे कल सिन-ला चढ़ने की कोशिश करेंगे.

अपनी दुस्साहसिक यात्रा के बाद मैं उनसे आग्रह करता हूं कि वे अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें.

"दो दिनों में पूरा चांद होगा!" विचारों में डूबी, सोने में नहाए सामने पसरे नज़ारे को देखती सबीने अचानक कहती है. कहानी सुनने के बाद धान के खेत अब एक अलग आयाम ले चुके हैं. हम खेत के पास जाकर उसे थोड़ा नज़दीक से देखते हैं.

कैम्प पहुंचकर हमें अच्छा लगता है कि वे तीन महिलाएं भी कैम्प में ही रहने वाली हैं - दूसरे इगलू में. कैम्प की रसोई में जलती आग के गिर्द बैठकर हम देर तक व्यांस घाटी की कुछ लोकगाथाओं के बारे में बातें करते हैं. उन्हें आश्चर्य होता है कि हम उनके देवताओं और परम्पराओं के बारे में इतना कैसे जानते हैं. मैं उन्हें हमारे पिछले फ़ील्डवर्क के बारे में कुछ जानकारियां देता हूं.

इस दौरान फर्त्याल जी अपने साथ एक खासे दिलचस्प दिखाई देने वाले सज्जन के साथ आकर आग के बगल में बैठ चुके हैं. इन साहब को मैंने दोएक बार फर्त्याल जी के टैन्ट में देखा है.

जैसे ही उनका परिचय कराया जाता है वे बात करना चालू कर देते हैं. शर्मा जी यहां के वायरलैस ऑपरेटर हैं और बरेली के रहनेवाले हैं - काफ़ी दिमाग़दार हैं और विज्ञान में गहरी दिलचस्पी रखते हैं. वे बहुत बातूनी हैं और मुझे जबरन सापेक्षता के सिद्धान्त और कम्प्यूटर वगैरह पर केन्द्रित एक बहस में फंसा लेते हैं.

मुझे वे तकरीबन घसीटते हुए अपने टैन्ट में ले जाते हैं और तफ़सील में बताते हैं कि उनकी मशीन किस तरह काम करती है. जल्द ही वे अपनी शिक्षा, परिवार, कैरियर इत्यादि के बारे में उसी उत्साह से बताने लगते हैं जिसका प्रदर्शन बीदांग के आई.टी.बी.पी. कमान्डैन्ट ने उस रात किया था. मिलिटरी साइंस में पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद फ़िलहाल वे दस सालों से इस सरकारी नौकरी में हैं और ख़ुश हैं ...

मैं कुछ बहाना बना कर दुम दबाए कुत्ते जैसा उनके तम्बू से बाहर निकल पाता हूं.

सबीने जर्मन में नोट्स लिखने में तल्लीन है. मुझे अक्सर यह जिज्ञासा होती है कि वह क्या लिखती होगी - अपने चश्मेदार चेहरे पर ऐसा विचारमग्न भाव लिए हुए. क्या मैं कभी भी उसके लिखे पढ़ सकने में सक्षम हो पाऊंगा!

मैं अपनी डायरी निकाल लेता हूं.

कल सुबह हम कुटी के लिए रवाना होंगे.

कुटी गांव


(जारी)