Friday, January 8, 2010

हम यहाँ आए थे और कोई अर्थ नहीं था हमारे होने का


मात्र इक्कीस बरस का लघु जीवन लेकिन तमाम तरह बड़ी इच्छाओं और उम्मीदों से भरापूरा। राजनीतिक , सामाजिक सामाजिक रूप से सक्रिय जीवन और ह्रूदय में पलते - पनपते उद्गार। कुछ ऐसा ही जीवन और जगत पाया पोलैंड की एक अन्चीन्ही कवयित्री ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का ने।

आधुनिक पोलिश कविता के बड़े नामों -विस्वावा शिम्बोर्स्का और हालीना पोस्वियातोव्सका की कवितायें आप इसी जगह पढ़ चुके हैं। ये वे नाम हैं जिनके कारण पोलैंड के साहित्य के जरिए एक दुनिया से परिचित होते हैं और अपनी दुनिया को एक नई निगाह से देखने के लिए कोशिश की एक धूप , रोशनी और हवा को भरपूर जगह देने वाली एक खिड़की खुलती - सी दीखती है। इसी क्रम में आज ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की एक कविता प्रस्तुत है।ग्राज़्यना का जन्म २१ अक्टूबर १९२१ को लुबलिन में हुआ था और नाज़ी जर्मनी के काल में वह भूमिगत संगठन के० ओ० पी० की सक्रिय सदस्य थीं। उन्हें और उनकी बहन को ८ मई १९४१ को गेस्टापो ने गिरफ़्तार कर लिया गया और कुछ महीनों के बाद खास तौर पर महिला बंदियों के लिए बनाए गए रावेन्सब्रुक ( जर्मनी ) के यातना शिविर में डाल दिया गया था और वहीं १८ अप्रेल १९४२ को उनकी दु:खद मृत्यु भी हुई। मात्र इक्कीस बरस का लघु जीवन जीने वाली इस कवयित्री की कविताओं से गुजरते हुए साफ लगता है कि वह तो अभी ठीक तरीके से इस दुनिया के सुख - दु:ख और छल -प्रपंच को समझ भी नहीं पाई थी कि अवसान की घड़ी आ गई। इस युवा कवि की कविताओं में सपनों के बिखराव से व्याप्त उदासी और तन्हाई से उपजी की तड़प के साथ एक सुन्दर संसार के निर्माण की आकांक्षा को साफ देखा जा सकता है। तो लीजिए प्रस्तुत हैं ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की एक कविता का हिन्दी अनुवाद :

ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की एक कविता ( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
परायी धरती

नीची इमारतों की खामोश भूरी कतार
और उसी की तरह भूरा - भूरा आसमान
यह भूरापन जिसमें नहीं बची है कोई उम्मीद।
उदासी में डूबे अलहदा किस्म के इंसानों के झुण्ड
भयानक तस्वीरें, अनोखी अजनबियत और बहुत ज्यादा सन्नाटा।

इस मृत खालीपन में
घर की याद घसीटती है अपनी ओर
जिससे उपजता है सूनापन
घेरती है पीली कठोर और गूँगी निराशा
जिसमें दम घुटता है भावनाओं का
और वे भटकती हैं अँधेरे - अंधे कोनों में।
सुनो , बावजूद इसके
आजाद जंगलों में अंकुरित होते हैं नए - नन्हें वृक्ष।

क्या हमें? क्या हमें सहन करना है?
यह सब जो विद्यमान है शान्तचित्त।
मैं खोती जा रही हूँ अनुभव अपने अस्तित्व का
कुछ नहीं देख पा रही हूँ
न ही कर रही हूँ किसी सूत्र का अनुसरण।
हम यह जो छोड़े जा रहे हैं निशान
वे इस परायी रूखी धरती पर
वे कितने छिछले हैं कितने प्राणहीन।
मात्र इतना
कि हम यहाँ आए थे
और कोई अर्थ नहीं था हमारे होने का।
( रावेन्सब्रुक ,१९४२)
------------

ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की दो अन्य कवितायें 'कर्मनाशा' पर उपलब्ध हैं।

2 comments:

वाणी गीत said...

परायी धरती पर अपने होने का अर्थ ढूंढती घर की ओर घसीटती ...भावनाएं पूरे विश्व में एक सी प्रतीत होती है कभी- कभी ...!!

Randhir Singh Suman said...

nice