Saturday, January 30, 2010

तुम कनक किरन - जयशंकर प्रसाद


आज से ठीक एक सौ इक्कीस साल पहले यानी ३० जनवरी १८८९ को ’कामायनी’ जैसी कालजयी रचना करने वाले महाकवि जयशंकर प्रसाद का जन्म हुआ था.

सो इस अवसर पर पढ़िये उनकी एक कविता जो स्कूल के ज़माने में मैंने अपनी डायरी में लिख रखी थी:


तुम कनक किरन के अंतराल में
लुक छिप कर चलते हो क्यों?

नत मस्तक गवर् वहन करते
यौवन के घन रस कन झरते
हे लाज भरे सौंदर्य बता दो
मौन बने रहते हो क्यो?

अधरों के मधुर कगारों में
कल कल ध्वनि की गुंजारों में
मधु सरिता सी यह हंसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?

बेला विभ्रम की बीत चली
रजनीगंधा की कली खिली
अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल
कलित हो यों छिपते हो क्यों?

5 comments:

Satish Saxena said...

इनकी याद दिलाने के लिए आभार अशोक भाई !

Ek ziddi dhun said...

Mahakvi ka bahut asar tha bachpan men mujh par kyonki pitaji aksar unhen gungunaate rahte the. ye kavita bhi shandaar hai, khaas prasaad style ki hi

सागर said...

हे लाज भरे सौंदर्य बता दो
मौन बने रहते हो क्यो?

आज तक यही तो हो रहा है...

इनकी कविता आज भी जान लेती हैं... आंसू मेरी फेवरेट है... मैं इसे साथ में रखता हूँ

अजेय said...

झरना !

वाणी गीत said...

जयशंकर प्रसाद की अप्रतिम प्रतिभा के आगे तो बस मौन ....!!