Sunday, January 17, 2010

और ख़ाक में पड़ा है सो है वो भी आदमी

पेश है नज़ीर अकबराबादी के ’आदमीनामा’ का दूसरा और आख़िरी हिस्सा:



यां आदमी ही शादी है और आदमी ब्याह
काज़ी, वकील आदमी और आदमी गवाह
ताशे बजाते आदमी चलते हैं ख़्वाह मख़्वाह
दौड़े है आदमी ही तो मशालें जला के राह

और ब्याहने चढ़ा है सो है वो भी आदमी

यां आदमी नक़ीब हो बोले है बार-बार
और आदमी ही प्यादे हैं और आदमी सवार
हुक्का, सुराही, जूतियां दौड़े बग़ल में मार
कांधे पे रख के पालकी है आदमी कहार

और उनमें जो चढ़ा है सो है वो भी आदमी

बैठे हैं आदमी ही दुकानें लगा लगा
और आदमी ही फिरते हैं रख सर पे खोमचा
कहता है कोई ’लो’ कोई कहता है ’ला रे ला’
किस किस तरह की बेचें हैं चीज़ें बना बना

और मोल ले रहा है सो है वो भी आदमी

यां आदमी ही क़हर से लड़ते हैं घूर-घूर
और आदमी ही देख उन्हें भागते हैं दूर
चाकर, ग़ुलाम आदमी और आदमी मजूर
यां तक कि आदमी ही उठाते हैं जा ज़रूर

और जिसने वह फिरा है सो है वो भी आदमी

तबले, मजीरे, दायरे, सारंगियां बजा
गाते हैं आदमी ही हर तरह जा ब जा
रंडी भी आदमी ही नचाते है गत बजा
वह आदमी ही नाचे है और देख फिर मज़ा

जो नाच देखता है सो है वो भी आदमी

यां आदमी ही लाल-ओ-जवाहर हैं बे बहा
और आदमी ही ख़ाक से बदतर है हो गया
काला भी आदमी है कि उल्टा है जूं तवा
गोरा भी आदमी है कि टुकड़ा सा चांद का

बदशक्ल, बदनुमा है सो है वो भी आदमी

एक आदमी है जिनके यह कुछ ज़र्क बर्क हैं
रूपे के उनके पांव हैं सोने के फ़र्क हैं
झुमके तमाम ग़ब से ले ताबा शर्क़ हैं
कमख़्वाब, ताश, शाल, दोशालों में ग़र्क हैं

और चीथड़ों लगा है सो है वो भी आदमी

एक ऐसे हैं कि जिनके बिछे हैं नए पलंग
फूलों की सेज उनपे झमकती है ताज़ा रंग
सोते हैं लिपटे छाती से माशूक शोख़ो संग
सौ सौ तरह से ऐश के करते हैं रंग ढंग

और ख़ाक में पड़ा है सो है वो भी आदमी

हैरान हूं यारो देखो तो क्या ये स्वांग है
और आदमी ही चोर है और आदमी थांग है
है छीना झपटी और कहीं मांग तांग है
देखा तो आदमी ही यहां मिस्ल-ए-रांग है

फ़ौलाद से गढ़ा है सो है वो भी आदमी

मरने पै आदमी ही कफ़न करते हैं तैयार
नहला धुला उठाते हैं कांधे पे कर सवार
कलमा भी पढ़ते जाते हैं रोते हैं ज़ार ज़ार
सब आदमी ही करते हैं मुर्दे के कारोबार

और वो जो मर गया है सो है वो भी आदमी

अशराफ़ और कमीने से शाह ता वज़ीर
है आदमी ही साहिब-ए-इज़्ज़त भी और हकीर
यां आदमी मुरीद है और आदमी ही पीर
अच्‍छा भी आदमी कहाता है ए 'नज़ीर'

और सबमें जो बुरा है सो है वो भी आदमी

4 comments:

Amrendra Nath Tripathi said...

स्क्रिप्ट के बंटवारे ने नजीर के साथ अच्छा नहीं किया ... क्या प्यारी
हिन्दुस्तानी जुबान है मियां की --- ब्रज का असर कोई हटा सकता है यहाँ से ...
नजीर ग्रंथावली भी रखा हूँ .. , पसंद करता हूँ हुजूर की कवितायेँ ... बहुत अच्छा लगा ... आभार ,,,

वाणी गीत said...

अच्छा है ...बुरा है ...चोर है ...साहूकार है ...
जो भी है आदमी ही आदमी है ....!!

मृत्युंजय said...

जाड़े के लिहाज़ से नजीर बाबा क़ी यह कविता पेशे-खिदमत है,
उम्मीद है काम आएगी!

जाड़े के मौसम में तिल के लड्डू

जाड़े में फिर खुदा ने खिलवाये तिल के लड्डू
हर एक खोमचे में दिखलाये तिल के लड्डू
कूचे गली में हर जा बिकवाये तिल के लड्डू
हमको भी हैंगे दिल से खुश आये तिल के लड्डू
जीते रहें तो यारो फिर खाए तिल के लड्डू!

उम्दों ने सौ तरह की याकूतियाँ बनाई
लोंगों में दालचीनी शक्कर भी ले मिलाई
सर्दी में दौलतों क़ी सौ गर्म चीजें खाईं
औरों ने डाल मिश्री गर पेड़ियाँ बनाईं
हमने भी गुड़ मंगाकर बंधवाये तिल के लड्डू!

रख खोमचे को सर पर पैकार यूँ पुकारा
बादाम भूना चाबो और कुरकुरा छुहारा
जाड़ा लगे तो इसका करता हूँ मैं इजारा
जिसका कलेजा यारों सर्दी ने होवे मारा
नौ दाम के वह मुझसे ले जाए तिल के लड्डू!

जाड़ा तो अपने दिल में था पहलवां झंझाडा
पर एक तिल ने उसको रग रग से है उखाड़ा
जिस दम दिलो जिगर को सर्दी ने आ लताड़ा
ख़म ठोंक हमने वोंही जाड़े को धर पछाड़ा
तन फेर ऐसा भभका जब खाए तिल के लड्डू!

कल यार से अपने मिलने के तैं गए हम
कुछ पेडे उसकी खातिर खाने को ले गए हम
महबूब हंस के बोला हैरत में हो रहे हम
पेड़ों को देख दिल में ऐसे खुशी हुए हम
गोया हमारी खातिर तुम लाये तिल के लड्डू!

जब उस सनम के मुझको जाड़े पे ध्यान आया
सब सौदा थोडा थोडा बाज़ार से मंगाया
आगे जो लाके रक्खा कुछ उसको खुश न आया
चीजें तो वह बहुत थीं पर उसने कुछ न खाया
जब खुश हुआ वह उसने जब पाए तिल के लड्डू!

जाड़ों में जिसको हर दम पेशाब है सताता
उट्ठे तो जाड़ा लिपटे नहीं पेशाब निकला जाता
उनकी दवा भी कोई पूछो हकीम से जा
बतलाये कितने नुस्खे पर एक बन न आया
आखिर इलाज उसका ठहराए तिल के लड्डू!

जाड़े में अब जो यारो ये तिल गए हैं भूने
महबूबों के भी तिल से इनके मज़े हैं दूने
दिल ले लिया हमारा तिल शकरियों क़ि रू ने
यह भी 'नजीर' लड्डू ऐसे बनाए तूने
सुन सुन के जिसकी लज्ज़त घबराये तिल के लड्डू!

मुनीश ( munish ) said...

o datz really 'kewl' bro ! i simply adore Nazir ! man he'z still unbeatable , unsurpassable for sue'! With profound apologies from Chacha-fanz club.