Wednesday, December 22, 2010

किताबें जो सच नहीं थीं


फेसबुक से अपना नया-नया परिचय हुआ है। यह मेरे लिए (अभी) एक नई और अजानी -सी दुनिया है जो रोज खुल रही है। पिछले कुछ ही समय से  देख - परख रहा हूँ। हिन्दी की चर्चित मासिक पत्रिका 'पाखी' के नवम्बर २०१० अंक में समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर विमल कुमार की एक कविता छपी है -'फेसबुक का नाम बदल दो'।विमल कुमार जी और 'पाखी' के प्रति आभार व्यक्त करते हुए आज 'कबाड़ख़ाना' के पाठको और प्रेमियों के साथ इसे साझा करने का मन है। आइए  एक कवि की निगाह से 'फेसबुक' को देखें, पलटें,पढ़ें...



विमल कुमार की कविता :
फेसबुक का नाम बदल दो


फेसबुक पर
सबकी तस्वीरें थीं
पर उस बुढ़िया की नहीं थी
जो सड़क के किनारे
भीख माँग रही थी
नहीं थी उस बच्चे की तस्वीर
जो एक होटल में अभी भी काम करता था
शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो जाने के बाद
तस्वीरें नहीं थीं
आत्महत्या करते किसानों की
फेसबुक
अपने समय की
एक झूठी किताब थी
किताबें जो सच नहीं थीं
वे कहीं से किताबें नहीं कही जा सकतीं
बेहतर है
तुम फेसबुक का का नाम बदल दो
--------


(* चित्र : AMAZING-ARTS   से  साभार )

8 comments:

Rahul Singh said...

फेसबुक की फेस वैल्‍यू ही होती है.

प्रवीण पाण्डेय said...

फेसबुक से अभी तो कोई नाता नहीं है।

कडुवासच said...

... bahut khoob ... shaandaar post !!!

अजेय said...

क्यों न फेस बुक ( बल्कि किसी भी बुक का ) का नाम नहीं कंटेंट बदला जाए. उस मे आप जो चाहते हैं वह स्वयम डाल सकते हैं. मुझे नही लगता वहाँ कोई मनाही है....:)

abcd said...

माना की अप्ना मकान चाहे जैसा बनाओ,चाहे जैसा सजाओ...मगर फ़िर भी गली,मोहल्ले पर भी तो राय रखी ही जा सक्ती है /

प्रक्रिति मे भी good conductor,bad conductors क भेद तो होता ही है /

सही और गलत का भेद तो होता ही है/

कुल मिला के ये facebook नाम की गली/मोहल्ला अप्ने को भी हजम नही होता भाई /

मुनीश ( munish ) said...

Right ! Facebook is a piece of shit and a pasime of utterly shallow human beings. Realthing is blog.

iqbal abhimanyu said...

हहा..वाह मुनीश भाई... आपले कमेन्ट में तो तीखा व्यंग्य है हम ब्लॉगजगत के बाशिंदों के लिए..

Unknown said...

facebook ki chamchmati duniya andhere ko sirf istemal karti hai