Saturday, January 1, 2011

एक काली बिल्ली हम दो के बीच से गुज़रती है

शान्त है वह, मैं भी

महमूद दरवेश

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वह शान्त है
मैं भी
वह नींबू वाली चाय ऑर्डर करता है
और मैं कॉफ़ी पीता हूं
(हम दो में सिर्फ़ यही फ़र्क़ है)
मेरी ही तरह वह पहने है एक ढीली धारीदार कमीज़
और उसी की तरह मैं घूर रहा हूं एक मासिक पत्रिका को
वह मुझे नहीं देख रहा कि मैं कनखियों से उसे देख रहा हूं
मैं उसे नहीं देख रहा कि वह कनखियों से मुझे देख रहा है
वह शान्त है
मैं भी
वह वेटर से किसी चीज़ के लिए कहता है
मैं वेटर से किसी चीज़ के लिए कहता हूं
एक काली बिल्ली हम दो के बीच से गुज़रती है
और मैं उसकी रात जैसी फ़र को सहलाता हूं
वह उसकी राह जैसी फ़र को सहलाता है.
मैं उस से नहीं कहता: आज आसमान साफ़ है
ज़्यादा नीला.
वह मुझे नहीं बताता कि आज आसमान साफ़ है
उसे देखा जा रहा है और वह देख रहा है
मुझे देखा जा रहा है और मैं देख रहा हूं
मैं अपनी बांईं टांग हिलाता हूं
वह अपनी दाईं टांग हिलाता है
मैं एक गीत गुनगुनाता हूं
वह एक गीत गुनगुनाता है
मैं अचरज करता हूं: क्या वह कोई आईना है जिसमें मैं देख रहा हूं ख़ुद को?
तब मैं उसकी आंखों में देखता हूं, वह मुझे दिखाई नहीं देता.
जल्दबाज़ी में बाहर निकलता हूं मैं कहवाघर से
मैं सोचता हूं: हो सकता है वह एक हत्यारा हो,
या हो सकता है वह यूं ही गुज़रनेवाला राहगीर हो
हालांकि मैं हूं एक हत्यारा.

4 comments:

सोमेश सक्सेना said...

अशोक जी आपको एवं आपके परिजनों व मित्रों को नववर्ष 2011 की मंगलकामनाए।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

विलक्षण साम्य

प्रवीण पाण्डेय said...

पता नहीं, किस ओर क्या हो।

Neeraj said...

देर तक आईने को घूरने पे प्रतिबिम्ब का स्वतंत्र अस्तित्व नजर आने लगता है | वो भी तुम्हारी तरफ ऐसे देखता है , मानो तुम्हारी असलियत जानता हो जिसे तुम दुनिया से छुपाते फिरते हो |