Thursday, March 31, 2011

ये शाइरी में हो रिया है क्या वबाल बाउजी

संजय चतुर्वेदी अस्सी-नब्बे के दशक में खूब लिख-छप रहे थे. और उनकी कविताओं में भाषा के साथ एक ख़ास तरह की संजीदा खिलंदड़ी नज़र आती थी. उनकी कविता मुझे बहुत पसंद थी. वे बाकायदा एक चिकित्सक भी थे. उनका एक संग्रह मेरे पास है - प्रकाशवर्ष.

मुझे नहीं पता उन्होंने कवितायेँ लिखना जारी रखा है या नहीं. कुछेक साल पहले समाचार यह भी था की वे नेपाल चले गए हैं. खैर!

पेश हैं उनकी तीन कवितायेँ-



सभी लोग और बाक़ी लोग


सभी लोग बराबर हैं
सभी लोग स्वतंत्र हैं
सभी लोग हैं न्याय के हक़दार
सभी लोग इस धरती के हिस्सेदार हैं
बाक़ी लोग अपने घर जाएँ

सभी लोगों को आज़ादी है
दिन में, रात में आगे बढने की
ऐश में रहने की
तैश में आने की
सभी लोग रहते हैं सभी जगह
सभी लोग, सभी लोगों की मदद करते हैं
सभी लोगों को मिलता है सभी कुछ
सभी लोग अपने-अपने घरों में सुखी हैं
बाक़ी लोग दुखी हैं तो क्या सभी लोग मर जाएँ

ये देश सभी लोगों के लिये है
ये दुनिया सभी लोगों के लिये है
हम क्या करें अगर बाक़ी लोग हैं सभी लोगों से ज़्यादा
बाक़ी लोग अपने घर जाएँ.

बड़ी बड़ी लगे यहाँ सबू की चाल बाउजी

ये शाइरी में हो रिया है क्या वबाल बाउजी
किसू की दाल में गिरा किसू का बाल बाउजी
बिना बड़ा लिखे हुआ बड़ा कमाल बाउजी
बड़ी बड़ी लगे यहाँ सबू की चाल बाउजी
किसू ने कर दिया कहीं जो इक सवाल बाउजी
हया से सुर्ख़ हो गए किसू के गाल बाउजी
जरा कहीं बची रही उसे निकाल बाउजी
किसू के पास है हुनर किसू को माल बाउजी
ये मुर्गियाँ उन्हीं की हैं ये दाल भी उन्हीं की है
उन्हीं के हाथ में छुरी वही दलाल बाउजी
तजल्ली-ए-तज़ाद में अयाँ बला का नूर है
इधर से ये हराम है उधर हलाल बाउजी ।

पिछड़े जन की अगड़ी भाषा

हिन्दी है एक तगड़ी भाषा
पिछड़े जन की अगड़ी भाषा
कलाभवन आबाद हुए निष्काषित लोग निकाली भाषा
और वज़ीफ़ाख़ोर कांति के मक्कारों की जाली भाषा
कृतघ्नता के उत्सवधर्मी
अस्ली ग्लोबल कलाकुकर्मी
बुद्धिबाबुओं के विधान में अर्धसत्य की काली भाषा
ऎसे चालू घटाटोप में
स्मृति के व्यापक विलोप में
अन्धकार की कलम तोड़कर
बीच सड़क पर झगड़ी भाषा
पिछड़े जन की अगड़ी भाषा ।

ऊधौ देय सुपारी

हम नक्काद सबद पटवारी
सरबत सखी निजाम हरामी हम ताके अधिकारी
दाल भात में मूसर मारें और खाएँ तरकारी
बिन बल्ला कौ किरकिट खेलें लम्बी ठोकें पारी
गैल गैल भाजै बनबारी ऊधौ देत सुपारी

11 comments:

अजेय said...

सभी लोग कम हैं
और बाक़ी लोग ज़्यादा

बहुत सुन्दर कविता .

अजेय said...

सभी लोग कम हैं
और बाक़ी लोग ज़्यादा

बहुत सुन्दर कविता .

प्रशान्त said...

पढ़ कर आनंद आ गया. बहुत ही चुभता हुआ व्यंग्य. "बुद्धिबाबुओं के विधान में अर्धसत्य की काली भाषा" - कटाक्ष को छुपाने का कोई उपक्रम भी नहीं.

उन्हें और भी पढ़ना चाहूंगा.

धन्यवाद आपका.

sanjay vyas said...

इनकी कविताएँ यहाँ लगाने का आभार.इनकी एक कविता 'पतंग' याद आ रही है.अगर आपके पास हो तो लगाएं.

abcd said...

जित्ना अच्च्छा poetry collection,
उत्ना ही बडिया फ़ोटू selection.

बाबुषा said...

हम क्या करें अगर बाक़ी लोग हैं सभी लोगों से ज़्यादा
बाक़ी लोग अपने घर जाएँ.
kyaa khoob kahi !

बाबुषा said...

बड़ी बड़ी लगे यहाँ सबू की चाल बाउजी
Ashok Sir, I ve recited this loudly in 'Hyderabadi Style' ! :-) bada mazaa aaya !

प्रवीण पाण्डेय said...

गहरी तीक्ष्णता लिये हुये पंक्तियाँ।

iqbal abhimanyu said...

एकदम खांटी और जबरदस्त... ऐसा पढने पर एकदम मन बौरा जाता है, वैसे इस बार आम भी तो खूब बौराए हैं, सब पढाई-लिखाई छोड़ कर गाँव भागने का मन कर रहा है...
ये संजय जी की कविता पहली बार पढ़ रहा हूँ, अब जाकर लाइब्रेरी में ढूंढूंगा.. कबाड़खाना के कारण ही कविता कुछ कुछ समझ आने लगी है, आप से गुजारिश है कि भारतीय कवियों की भी कविताएँ भी लगाते रहें, (कापीराईट को टंगड़ी मारकर) ताकि नौसिखिये भी गहरे पानी पैठ सकें...
जल्द ही कुछ लातिन अमरीकी माल लेकर हाजिर होता हूँ.

kailash said...

आपका शुक्रिया ,बेहतरीन कविता सामने लेन के लिए .बहुत ही बारीक़ रूप से सच को उघडती ,पैनी कविता

azdak said...

जय हो, सं च, अच्‍छा हो इन कविताओं को एक जिल्‍द मिल जाये. यह प्रकाशवर्ष भी उतना ही ज़रूरी है.