Tuesday, April 29, 2014

ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना - हबीब जालिब और उनकी शायरी – 8

पत्रकार हसन अली के साथ हबीब जालिब

उत्तर पश्चिमी सूबों और बलूचिस्तान के इलाके में चल रहे पृथकतावादी आंदोलनों से भुट्टो जिस तरह निबटे, उससे उन्हें बहुत नुकसान पहुंचा. इन दोनों क्षेत्रों में गैर-पीपीपी सरकारें चल रही थीं. भुट्टो ने इन राज्यों पर भी अपना अधिकार जमाने की कोशिश की. इस वजह से १९७४ में राज्य सेना और पाकिस्तानी सेना में संघर्ष की स्थिति पैदा हो गयी. बलूच लड़ाकों के के लिए ईराक़ी इमदाद और जासूसी की बातें आम होने से भुट्टो बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने बलूचिस्तान की सरकार बर्खास्त कर दी. केंद्रीय सरकार के इस फैसले के बड़े दूरगामी प्रभाव हुए. एक नवजात लोकतंत्र का ऐसा हश्र देखकर हबीब जालिब ने अपना विरोध प्रकट किया. जल्द ही जालिब अपने पुराने दोस्त ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के आदेश पर जेल में थे. यह अलग बात है कि दोनों की दोस्ती बनी रही. लेकिन जालिब भुट्टो के शासन में पाकिस्तान की बदहाली पर कलम चलाते रहे. १९७७ के चुनावों में चीज़ें त्रासद तरीके से बिगड़ गईं. विरोधियों ने भुट्टो पर चुनाव में धांधली करने के आरोप लगाए और दोनों पक्षों के बीच की समझौता वार्ताओं के दौर भी विफल रहे. भुट्टो ने शहरों में मार्शल लॉ लगा दिया. क़ानून और व्यवस्था की हालत दिन-ब-दिन बिगडती गयी. 4 जुलाई १९७७ को जनरल जिया उल हक़ ने फ़ौजी कार्रवाई कर भुट्टो का तख्ता पलट दिया. पाकिस्तान एक दफ़ा फिर से सेना की तानाशाही के अधीन था. सैन्य सत्ता ने कट्टरपंथियों के साल तालमेल बढ़ाना शुरू किया और उन सब नेताओं पर नकेल कसना भी जिनसे उसे किसी भी तरह का ख़तरा था. १९७९ में भुट्टो पर मुकद्दमा चला और झूठे इलज़ाम लगाकर उन्हें फांसी पर चढा दिया गया. इन बातों ने जालिब को झकझोर कर रख दिया –
तोड़ा है कहाँ जादू उसका
एक नारा बन गया है लहू उसका
वो शख्स हुकूमत करता था
लड़ता था अपने जैसों से
हम से तो मुहब्बत करता था ...
ज़िया उल हक़ की सत्ता ने नागरिक अधिकारों पर सेंसरशिप थोप दी. उन्होंने कट्टरपंथियों को पटा लिया और बाकायदा इस्लामी क़ानून संहिता लागू कर दी. वामपंथ का रुझान रखने वाले नेता या तो निर्वासन में चले गए या उन्हें गुप्तचर सेवाओं द्वारा ठिकाने लगा दिया गया. इनमें पाकिस्तानी कम्यूनिस्ट पार्टी के सेक्रेटरी जनरल नज़ीर अब्बासी शामिल थे. ज़िया सरकार ने सार्वजनिक जीवन के हर पहलू को अपने दमन का शिकार बनाया. कवियों को हिदायात जारी की गईं कि वे किस तरह की शायरी लिखें.     
ऐसे में हबीब जालिब ने लिखा-
ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
पत्थर को गुहर, दीवार को दर, कर्गस को हुमा क्या लिखना

इक हश्र बपा है घर घर में, दम घुटता है गुंबद-ए-बेदर में
इक शख्स के हाथों मुद्दत से रुसवा है वतन दुनिया भर में
ऐ दीदा-वरो इस ज़िल्लत को क़िस्मत का लिखा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 

ये अहल-ए-हशम, ये दारा-ओ-जिस्म, सब नक्श बर-आब हैं ऐ हमदम
मिट जाएँगे सब परवरदा-ए-शब, ऐ अहल-ए-वफ़ा रह जाएँगे हम
हो जाँ का ज़ियाँ पर क़ातिल को मासूम अदा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 

लोगों पे ही हम ने जाँ वारी, की हम ने उन्हीं की ग़म-ख़ारी
होते हैं तो हों ये हाथ क़लम, शा'इर न बनेंगे दरबारी
इब्लीस-नुमा इंसानों की ऐ दोस्त सना क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 

हक़ बात पे कोड़े और ज़िन्दां, बातिल के शिकंजे मैं है ये जाँ
इंसां हैं कि सहमे बैठे हैं, खूँ-ख़ार दरिन्दे हैं रक्साँ
इस ज़ुल्म-ओ-सितम को लुत्फ़-ओ-करम, इस दुख को दवा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 

हर शाम यहाँ शाम-ए-वीराँ, आसेब-ज़दा रस्ते गलियाँ
जिस शहर की धुन में निकले थे वो शहर दिल-ए-बर्बाद कहाँ
सहरा को चमन, बन को गुलशन, बादल को रिदा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना

ऐ मेरे वतन के फ़नकारो ज़ुल्मत पे न अपना फ़न वारो
ये महल-सराओं के बासी क़ातिल हैं सभी अपने यारो
विरसे में हमें ये ग़म है मिला, इस ग़म को नया क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना

(अगली क़िस्त में समाप्य)

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