जेलखाने में तानाशाह
-आदेलिया
प्रादो
कविता लिख
रहा है तानाशाह,
बेचारा,
बेचारे हम
जो
कह रहे
उसे बेचारा,
क्योंकि
उसके पास भी एक स्मृति है
संतरे के
पेड़ों
खीर की
नन्ही कटोरियों
हंसी और
खुशनुमा बातचीत की कल्पना करने के वास्ते –
क्षुद्र
प्रसन्नताओं के एक स्वर्ग की.
इम्पेशन्स
के फूल बमुश्किल खिलना शुरू हुए हैं
और अभी से
व्यस्त हो गयी हैं उनके बीच मधुमक्खियाँ,
दिन को
सम्पूर्ण बनाती हुईं.
खून के
प्यासे उस आदमी का मज़ाक न उड़ाया जाये
जो,
पहरेदारों की आँखों तले
अपनी किसी
भी और आदमी की इच्छा जैसी
अपनी इच्छा
को
एक नोटबुक
में उड़ेल रहा है:
मैं खुश
होना चाहता हूँ, मैं चाहता हूँ एक लोचदार देह,
मुझे एक
घोड़ा, एक तलवार और एक उम्दा युद्ध चाहिये!
एक भक्त
है तानाशाह,
वह
सामूहिक धर्मगीत गायकों के समूह के किसी भिक्षु की तरह
अपने बंधे
बंधाये घंटों का पालन करता है
और कुरआन पढ़ता
हुआ सो जाता है
मैं जो
रहती हूँ दीवारों के बाहर
काँप उठती
हूँ उस शख्स के भाग्य के बारे में सोचकर
जिसने
धरती को
लोहे के अपने
बूटों तले कुचला था.
न डाले
कोई भी उसकी प्रार्थना में खलल
न मखौल उड़ाए
उसकी कविता का.
अजीब होता
है ईश्वर,
और दमनकारी
उसका रहस्य.
किसी अकल्पनीय कारण से
किसी अकल्पनीय कारण से
मैं नहीं
हूँ क़ैदी.
मेरी अपनी
होने के हिसाब से
बहुत
विशाल है मेरी सम्वेदना.
वह जिसने
ईजाद किया दिलों को
प्रेम
करता है इस बेचारे गरीब को मेरे दिल के साथ.
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