Sunday, December 30, 2007

जंगली घोड़े की सवारी करो

पिछले ४-५ दिनों से अजीब असमंजस की मन:स्थिति से दोचार हूं. एक ज़रा सी बात पर एक सज्जन ने मेरी चूलें हिला दीं और मुझे लगा था कि मुझे ब्लाग की इस नई दुनिया से निकल जाना चाहिए. थोड़ा सा स्वार्थी होने का मेरा हक़ तो है ही कि मैं अपने लिए अपनी तरह से एक स्पेस बचाए रख सकूं. पहले भी लिखा था, डरपोक नहीं हूं बस थोड़ा संवेदनशील हूं (दिलीप मंडल कहेंगे इसीलिए मिसफ़िट हूं). जिस तरह से आप सब ने तमाम टिप्पणियों और टेलीफ़ोन द्वारा मुझे अधिकारपूर्वक यहीं बने रहने का आदेश दिया है, उस की अनदेखी करना स्वार्थ की पराकाष्ठा माना जाएगा. उन्हीं का आदेश मान कर लौट आया हूं.

हमारे समय के बड़े कवि-कथाकार श्री उदय प्रकाश ने कबाड़ख़ाने का सदस्य बनने का मेरा आग्रह स्वीकार किया है. उनका धन्यवाद.

अमरीका की मशहूर कवयित्री हाना कान (१९११-१९८८) की एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूं :

जंगली घोड़े की सवारी करो

जंगली घोड़े की सवारी करो
जिस के पंख जामुनी
सियाह -सुनहरी धारियां
बस सिर ही
उसका सुर्ख लाल

जंगली घोड़े की सवारी करो
आकाश की तरफ़ जो उड़ रहा हो
ताकत से थामे रखो उस के पंख

इस के पहले कि तुम्हारी मौत हो जाए
या अधूरा रह जाए कोई काम

जंगली घोड़े की सवारी करो ज़रूर करो एक दफ़ा
और प्रविष्ट हो जाओ सूर्य के भीतर

हाना कान की बात आई है तो उन की कविता 'वंश वट' का अनुवाद यहां पढ़ाने का लोभ नहीं छोड़ पा रहा हूं:

मेरे दादाजी

जूते और वोदका
दाढ़ी और बाइबिल
भीषण सर्दियां
स्लेजगाड़ी और अस्तबल

मेरी दादी

नहीं था उस के पास
अपनी बेटी के लिए दहेज़
सो भेज दिया उसे
पानियों से भरे समुन्दर के पार

मेरी मां

दस घंटे काम करती थी
आधे डालर के लिए
हाड़ तोड़ देने वाली उस दुकान में
मेरी मां को मिला एक विद्वान

मेरे पिता

वे जीवित रहे किताबों,
शब्दों और कला पर;
लेकिन ज़रा भी दिल नहीं था
मकानमालिक के पास

मैं

मैं कुछ हिस्सा उन से बनी हूं
कुछ हिस्से में दूने हैं वो
हालांकि तंग बहुत किया
अपनी मां को मैंने

5 comments:

  1. शुक्रिया कि आपने कबाड़खाने के प्रेमियों के आग्रह को माना।

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  2. साजिश समझ कर सही निर्णय लेने के लिए धन्यवाद! और ये अद्भुत कवितायें पढ़वाने के लिए भी.

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  3. चलिए बहुत अच्छा हुआ - मनुहार का असर आप वापस आए - अब हम लोग चुप चाप पढ़ सकते हैं - प्रोफाइल भी वापस सार्वजनिक कर दी - तीसरा काम बाकी है - सुख्ननसाज़ कहाँ है मान्यवर ? ( संवेदनशील चिंतन ठीक है - संवेदना में वेदना भी होती है)

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  4. शुक्रिया कि आप वापस आए। बेशक, आप आजाद हैं कुछ भी करने के लिए, लेकिन इतने भी आजाद नहीं कि हमें इतनी सुंदर कविताओं और गीतों से वंचित करें, उन चीजों से जो हमें जिंदा रखता है।

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