Thursday, February 28, 2008

अगर मरूं कभी तो वहीं जहां जिया गुमनाम लाश की तरह

दिल्ली और अन्य महानगरों के क्षुद्र जीवन पर कमेन्ट करतीं इब्बार रब्बी की दो कविताएं पढ़िए: 'सड़क पार करने वालों का गीत' और 'इच्छा'। बतौर व्यक्ति और बतौर कवि रब्बी जी बेहद सादा और संवेदनशील हैं। उनसे मिलना एक पूरे इन्सान से मिलना होता है। कबाड़ख़ाना के पाठक उनकी आवाज़ में एक कविता 'पड़ताल' पहले सुन चुके हैं। गौरतलब है कि उक्त पोस्ट में इरफ़ान ने उन्हें कबाड़ी महासंघ का आजीवन महासचिव भी नियुक्त कर दिया था।

इच्छा

मैं मरूं दिल्ली की चलती हुई बस में
पायदान पर लटक कर नहीं
पहिये से कुचल कर नहीं
पीछे घिसटता हुआ नहीं
दुर्घटना में नहीं
मैं मरूं बस में खड़ा खड़ा
भीड़ में पिचक कर
चार पांव ऊपर हों
दस हाथ नीचे
दिल्ली की चलती हुई बस में मरूं मैं

अगर कभी मरूं तो
बस के बहुवचन के बीच
बस के यौवन और सौन्दर्य के बीच
कुचलक्र मरूं मैं
अगर मरूं कभी तो वहीं
जहां जिया गुमनाम लाश की तरह
गिरूं मैं भीड़ में
साधारण कर देना मुझे हे जीवन!

सड़क पार करने वालों का गीत

महामान्य महाराजाधिराजाओं के
निकल जाएं वाहन
आयातित राजहंस
कैडलक, शाफ़र, टोयोटा
बसें और बसें
टैक्सियां और स्कूटर
महकते दुपट्टे
टाइयां और सूट

निकल जाएं ये प्रतियोगी
तब हम पार करें सड़क

मन्त्रियों, तस्करों
डाकुओं और अफ़सरों
की निकल जाएं सवारियां
इनके गरुड़
इनके नन्दी
इनके मयूर
इनके सिंह
गुज़र जाएं तो सड़क पार करें

यह महानगर है विकास का
झकाझक नर्क
यह पूरा हो जाए तो हम
सड़क पार करें
ये बढ़ लें तो हम बढ़ें

ये रेला आदिम प्रवाह
ये दौड़ते शिकारी थमें
तो हम गुज़रें।


(इब्बार रब्बी जी ने भी सारे ब्लॉगरों को अपनी सारी रचनाएं किसी भी रूप में इस्तेमाल कर लेने की छूट दी है। इस्तेमाल करने पर यदि सन्दर्भ का ज़िक्र कर दिया जाए तो और भी अच्छा।)

8 comments:

  1. kya khoob kavitayen, bilkul different subject aur emotions liye

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  2. बहुत पहले इलाहाबाद में सुनी थी, इब्‍बार रब्‍बी की कविताएं, उनके ही मुंह से। जितना अच्‍छा लिखते हैं, उतना ही अच्‍छा पढ़ते भी हैं। इन्‍हें पढ़वाने का शुक्रिया।

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  3. इन उम्दा रचनाओं को पढवाने के लिये शुक्रिया ।

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  4. महानगरों का अच्छा खाका खींचा है ।

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  5. सुंदर कविता । सुंदर प्रस्‍तुति । आभार आभार

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  6. बच्चे बड़े हो गए हैं

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  7. बहुत खूब। रब्बी जी जितनी सरल कविताएं लिखते हैं , उतने ही सरल भी हैं। 1988 के दिनों में सुबह दस बजे की शिफ्ट में नई दिल्ली के टाइम्स हाऊस में ख़बरें बनाना याद आ गया।

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