Saturday, March 8, 2008

हरीशचन्द्र पांडे

हिजड़े

ये अभी अभी एक घर से बाहर निकले हैं
टूट गए रंगीन गुच्छे की तरह
काजल लिपस्टिक और सस्ती खुशबुओं का एक सोता फूट पड़ा है

एक औरत होने के लिए कपडे की छातियां उभारे
ये औरतों की तरह चलने लगे हैं
और औरत नहीं हो पा रहे हैं

ये मर्द होने के लिए गालियाँ दे रहे हैं
औरतों से चुहल कर रहे हैं अपने सारे पुन्सत्व के साथ
और मर्द नहीं हो पा रहे हैं
मर्द और औरतें इन पर हंस रहे हैं

सारी नदियों का रुख मोड़ दिया जाए इनकी ओर
तब भी ये फसल न हो सकेंगें
ऋतू बसंत का ताज पहना दिया जाए इन्हें
तब भी एक अन्कुवा नहीं फूटेगा इनके
इनके लिए तो होनी थी ये दुनिया एक महासिफर
लेकिन
लेकिन ये हैं की
अपने व्यक्तित्व के सारे बेसुरेपन के साथ गा रहे हैं
जीवन में अन्कुवाने के गीत
ये अपने एकांत के लिए किलकारियों की अनुगूंजें इकठ्ठा कर रहे हैं

विद्रूप हारमोनों और उदास वल्दियत के साथ
ये दुनिया के हर मेले में शामिल हो रहे हैं समूहों में

नहीं सुनने में आ रही आत्महत्याएं हिजडों की
दंगों में शामिल होने के समाचार नहीं आ रहे

मर्द और औरतों से अटी पड़ी इस दुनिया में
इनका पखेरुओं की तरह चुपचाप विदा हो जाना
कोई नहीं जानता !

कवि हरिश्चंद्र पांडे ने अपनी कविताओं को ब्लॉग पर लगाने का अधिकार हमें दिया है ............

4 comments:

  1. सचमुच श्रेष्ठ कविता.आजकल बहुत अच्छी कवितायें पस्तुत कर रहे हो शिरीष!आलोक जी वाला लेख देखकर तुम्हारि संवेदन्शीलता वाले एंटीने से रश्क हो रहा है!

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  2. सब आपका प्यार है जवाहिर चा !

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  3. बहुत अच्छी लगी कविता।

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