Thursday, May 1, 2008

फ्यूज बल्बों का शहर

पेड़ जितने हरे थे तिरस्कृत हुए
ठूंठ थे जो यहां पर पुरस्कृत हुए
दंडवत लेटकर जो चरण छू गया
नाम उसका हवा में उछाला गया।

सूर्य की अब किसी को जरूरत नहीं
जुगनुओं को अंधेरों में पाला गया
फ्यूज बल्बों के अद्भुत समारोह में
रोशनी को शहर से निकाला गया।

9 comments:

  1. क्या कहने - मज़ा आया - समकालीन कविता या समकालीन कविता की कविता ?

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  2. अच्‍छी कविता है ।

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  3. ये भी एक अंदाज है जनाब.......

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  4. मजेदार। सटीक।

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  5. एक शब्द में कहे तो "INDIA"

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  6. एक दम सटीक भाव है. जहा चाहो वह फिट कर लो. लाजवाब
    -राजेश रोशन

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  7. bahut badhiya aur aaj ka sach!

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  8. सच्ची शिकायत . लाजवाब कविता .

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