जेल में लिखी नाज़िम हिकमत की एक और कविता
इस तरह से
मैं खड़ा हूं बढ़ती रोशनी में,
मेरे हाथ भूखे, दुनियां सुन्दर
मेरी आंखें समेट नहीं पातीं पर्याप्त पेड़ों को -
वे इतने उम्मीदभरे हैं, इतने हरे.
एक धूप भरी राह गुज़रती है शहतूतों से होकर
मैं जेल-चिकित्सालय की खिड़की पर हूं.
सुंघाई नहीं दे रही मुझे दवाओं की गन्ध -
कहीं पास ही में खिल रहे होंगे कार्नेशन्स.
यह इस तरह है:
गिरफ़्तार हो जाना अलग बात है
ख़ास बात है आत्मसमर्पण न करना.
सर, कवित बहुत ही अच्छी लगी.. कल जो आपने नज्म सुनाया था और उससे संबंधित जो भी मैंने नेट पर पाया था उसका पता मैंने ढूंढ लिया है.. चाहें तो एक बार आप भी देख लें.. अमिर खुसरो जी से संबंधित ढेर सारी जानकारी है उसमें.. http://tdil.mit.gov.in/coilnet/ignca/amir0001.htm :)
ReplyDeleteaap behtreen cheezen padhvaa rahey hain..aabhaar
ReplyDeleteगिरफ़्तार हो जाना अलग बात है
ReplyDeleteख़ास बात है आत्मसमर्पण न करना.
इस ब्लॉग पर मैंने हमेशा सब अच्छा ही पाया। खासतौर पर नाजिम हिकमत की कविताओं ने कई कमजोर पलों को हिम्मत दी। शुक्रिया ।
शुक्रिया प्रशान्त भाई अमीर ख़ुसरो साहब से संबंधित साइट का पता बताने का. बहुत ज्ञानवर्धक जानकारियों के अलावा वहां बहुत सारा संगीत भी सुनने को मिला. आपकी डिमांड वाली अद्भुत क़व्वाली की नुसरत साहब की वाली मेरी सीडी कोई सज्जन ले गए हैं. वापस मिलते ही उसे यहां पाएंगे आप. पारुल जी और शायदा जी आप दोनों का धन्यवाद!
ReplyDeletepriya ashok,
ReplyDeletenazim ko is tarah yaad dilane ka shukriya.ab main aur bhi anuvaad karoonga zaroor.
ei mire nikammepan!tojh pe laanat hai.
paanv jura?