Friday, August 8, 2008

अवधू मेरा मन मतवारा


हम लोग बचपन से ही कबीर की कवितायें पढ़ते-सुनते आ रहे हैं। मेरे खयाल में छोटी कक्षाओं से लेकर विश्वविद्यालय स्तर की कोई ऐसी हिन्दी पाठ्यपुस्तक नहीं होगी ,जहां कबीर मौजूद न हों. हमारे सामने कबीर के कई रूप हैं- संत कबीर का रूप, कवि कबीर का रूप, कबीर साहब का रूप, हिन्दू-मुसलमान दोनो को उनकी कमियों और कमजोरियों को बताने ,बरजने और सुधर जाने की चेतावनी देने वाले बुजुर्ग का रूप, रहस्यवादी और हठयोगी कबीर का रूप आदि-इत्यादि. साथ ही कबीर का एक ऐसा रूप भी है जो भारतीय संगीत की लोकोन्मुखी धारा से जुड़ा है.'बीजक' की अधिकांश रचनायें रागों पर आधारित हैं. कमाल है 'मसि कागद' न छू सकने वाले एक 'इश्क मस्ताना' की कारीगरी!
संगीत के साधकों के लिये कबीर के क्या मायने हैं , यह तो उन्हीं से पूछिये- शायद कहें कि एक निकष ,एक चुनौती ! और सुनने वालों के लिये तो आनंद-आर्णव में अवगाहन ! आज सुनते हैं कबीर के शब्द और हमारे समय की सबसे सुमधुर आवाजों की जादूगरनी शुभा मुदगल के स्वर का एक संगम- 'अवधू मेरा मन मतवारा'

14 comments:

  1. वाह साब वाह.
    कोटि-कोटि धन्यवाद इस मनमोहक, कर्णप्रिय गीत के लिए.
    सुनते हुए लगा जैसे आनंद की वृष्टि हो रही है. बहुत खूब.
    एक बार फ़िर आभार.

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  2. कमाल है जवाहिर चा !
    सिर्फ मेरे जवाहिर चा !!

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  3. कमाल है जवाहिर चा !
    सिर्फ मेरे जवाहिर चा !!

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  4. बेहतरीन! क्या बात है सिद्धेश्वर बाबू!

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  5. ग़ज़ब ! वाह ! शायद "मसि-कागद" न छूने / या न छू पाने के कारण ही.

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  6. बहुत खूब सिद्धेश्वर भाई, आपने और मीत भाई ने तो आज की सुबह बना दी।

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  7. भई वाह वाह। आनंद की सृष्टि हुई। जमाये रहिये।

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  8. प्रणाम ! प्रणाम !! प्रणाम !!!
    पहली बार आकर ही "उनमुनी चढ़ा
    गगन रस पीवै" का रस चखवा
    दिया ! धन्यवाद !

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  9. ahaa! kya masti hai...shabd hi nahi ....bas bahut aabhaar

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  10. सिध्देश्वर दा.
    शुभा दी (हाँ वे मुझे बड़ी बहन सा निश्छल स्नेह रखती हैं)को मैं कुमार गंधर्व के निर्गुण गान परम्परा का सबसे सशक्त प्रतिनिधि मानता हूँ.
    वे इतनी विनम्र हैं कि इस तरह का कोई श्रेय नहीं लेतीं.मूलत: नृत्यांगना रहीं शुभाजी ने कड़ी मेहनत में अपना मुकाम बनाया है.वे प्रयोगधर्मी कलाकार हैं.

    एक जगह लगता है छंद गड़बड़ा गया है....
    काम क्रोध दोई किया बलीता(जलाने की लकड़ी)
    छूट गई संसारी की जगह यदि होता छूट गया संसारा तो बेहतर होता ...टेक एकदम ठीक मिलती...मालूम नहीं कैसे हो गया...कहीं मैं ही छोटे मुँह बड़ी बात नहीं कह गया.

    पर हाय क्या बंदिश ढूँढ़ी दादा आपने.
    मन रंग गया इस अवधूती रचना से.

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