Saturday, August 30, 2008

कबाड़ख़ाने की एक और सूक्ति

इमरजेन्सी अक्सर आती रहती है. सभी भाईलोग इस विषम विपत्ति से अक्सर दोचार रहा ही करते हैं. कभी ऐसा भी होता है कि कुछ भी दिखाई देना बन्द हो जाता है. तब यारों का सहारा सबसे मुफ़ीद और ग्रान्टीवाला माना गया है. मंज़िल तक जाने वाली किसी पगडंडी की एक ज़रा सी कोई झलक दिखा दे, कोई ज़रा सा हाथ थाम कर चौराहा पार करा दे.

चीज़ें जल्दी नॉर्मल होने की मूलभूत प्रवृत्ति रखती हैं. आदमी को क्या चाहिये: बस ज़रा सा धैर्य, और कम लालच.

अपने स्कूली सहपाठी और हरसी बाबा के शिष्य दीपक पांडे उर्फ़ माइकेल होल्डिंग उर्फ़ उस्ताद-ए-जमां अरस्तू की एक महान कहावत को कबाड़ख़ाना अपनी अमर सूक्तियों में जगह देता हुआ गौरवान्वित है:

अंधा क्या चाहे, एक आंख

9 comments:

  1. सत्य वचन जी सत्य वचन
    बिल्कुल नहीं असत्य वचन ! !

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  2. काने के बारे में उस्ताद-ए-जमां अरस्तु क्या फ़रमाते हैं? :)

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  3. जानदार और समझदार
    ख़बरदार करती हुई प्रस्तुति.
    =====================
    डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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  4. घणी चोखी लागी केनावत...

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  5. महेन का सवाल दिलचस्‍प है.

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  6. अंधे की कोई और चाहत आँखों से भी बड़ी हो सकती है, इस पर कोई क्यों नहीं सोचता?

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  7. महेन जी
    काने को क्या चाहिए?
    दुकान (दो कान)

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