Saturday, September 27, 2008

चांद चुरा के लाया हूं, चल बैठें चर्च के पीछे


चोरी कभी-कभी इतनी खूबसूरत होती है कि कई बार जीवन को, उसमें धड़कते रिश्तों को नए मानी दे जाती है। लगता है जैसे यह चोरी न की होती तो इस योनि में मिला जीवन कितना अकारथ चला जाता। चोरी ने इसे मायने दे दिए। कुछ रंगत दे दी। कुछ खुशबू दे दी। दिल चुराना, नजरें चुराना, काजल चुराना जैसे मुहावरे तो हमारे यहाँ खूब चलते हैं लेकिन यदि कोई अपनी माशूका के लिए चाँद चुरा के लाए तो क्या कहने। यूँ तो चाँद और चाँदनी को लेकर हजार गीतों की रचना की गई है लेकिन चाँद को चुराना और उसके बाद माशूका के साथ चर्च के पीछे और किसी पेड़ के नीचे बैठने की बात करना, कुछ नया है। यानी चर्च के पीछे बैठने को, पेड़ के नीचे बैठने को यह चाँद कोई मायने दे रहा है। सरगोशियों में कुछ रंगत घोल रहा है, जो उसे और भी खूबसूरत बनाती है, और भी मुलायम। जैसे चाँदनी का स्पर्श पाकर ये सरगोशियाँ फूलों की तरह झरती हुईं हमेशा-हमेशा के लिए दिल की गहराइयों में उतर जाएँगी। और यह चाँद ऐसे ही नहीं आ गया है, उसे आशिक ने हासिल किया है, अपनी नाजुक कल्पना से, वह यूँ ही नहीं चला आया है। यह कहने का एक अंदाजभर नहीं है, आशिक की एक अदा भी है। चाहें तो शरारत कह लें, चाहें तो गुस्ताखी। इसमें मजा भी है। गुलजार हमारे लिए कई तरह से चाँद को करीब लाते हैं। चाँद को चुराकर लाते हैं। यूँ तो चुराने को दुनिया में कई चीजें हैं, मगर चाँद को चुराना कुछ अनोखा है। चंद्रमा की कलाएँ हैं, लेकिन चंद्रमा को चुराकर लाना भी चोरी की एक आला दर्जे की कला है।
यह अदा भी है और इस पर मन फिदा हो जाता है। यह गीतकार अपनी माशूका के लिए इस कायनात की सबसे खूबसूरत चीज चुराकर लाया है। हमारे यहाँ चंद्रमा को मन का कारक माना गया है। सुंदर मुखड़े का प्रतीक माना गया है। चाँद-सी मेहबूबा, चाँद-सी दुल्हन, चाँद सी बहू, चाँद-सा मुखड़ा लेकिन यहाँ बात कुछ निराली है। यहाँ कोई उपमा नहीं, कोई मिसाल नहीं, खुद एक पूरा चाँद है। यह चाँद अपने होने से एक जोड़े के होने को, उनके एकांत को, रात की नीरवता को धड़कता हुआ बना रहा है। गीत इन पंक्तियों से शुरू होता है :

चाँद चुरा के लाया हूँ
चल बैठें चर्च के पीछे
जरा गौर फरमाइए। पहली लाइन बहुत सादा है और इसमें एक खबर दी जा रही है। खबर में एक रहस्योद्घाटन है, लेकिन कहने का ढंग चौंकाने का नहीं है बल्कि बात कुछ इस अदा से कही गई है कि यही वक्त है जब इत्मीनान से बैठकर मन की बातें की जा सकें। राहत के पल बिताए जा सकें। कोई नहीं, शोर नहीं, बस रात है और मैं जिसे चुराकर लाया हूँ, वह चाँद है। दूसरी पंक्ति में चर्च के पीछे बैठने की बात है। इस पर भी थोड़ा ध्यान दें। मंदिर नहीं, मस्जिद नहीं, चल बैठें चर्च के पीछे। आज की तारीख में यह कल्पना करना ही एक दहशत से भर देता है कि कोई प्रेमी जोड़ा रात में मंदिर के पीछे, पेड़ के नीचे बैठकर बात कर सके। उन्हें वहाँ से धकेला जा सकता है, भगाया जा सकता है, पीटा जा सकता है और मुँह काला किया जा सकता है। और मस्जिद के पीछे बैठना भी मुश्किल - लाहौलविलाकुवत। इसलिए शायर चर्च के पीछे बैठने की बात करता है। एक तो चर्च प्रेमियों के लिए वह स्पेस है जहाँ वे अपने हाथ में हाथ पकड़े, निगाहों से एक-दूसरे को थामते हुए चलते हैं, आते हैं और बुदबुदाते हुए प्रार्थना करते हैं। मोहब्बत का इजहार करते हैं, कन्फेशन करते हैं। (हिंदी फिल्मों के ऐसे कई सीन और प्रसंग आप यहाँ याद कर सकते हैं) । फिर चर्च एक तरह के एकांत का, नीरवता का स्थापत्य बनाते हैं। एकदम शांत।
वहाँ चारों तरफ एक सात्विक खामोशी पसरी रहती है। प्रकृति की छोटी सी गोदी में धड़कती यह स्पेस प्रेमियों के लिए एक निरपेक्ष जगह हो सकती है। वहाँ पेड़ है जिसके नीचे बैठकर दिल से दिल की बात की जा सकती है। और फिर वहाँ न कोई देखने वाला है और न ही पहचानने वाला। इसीलिए ये पंक्तियाँ हैं-

न कोई देखे, न पहचाने

बैठें पेड़ के नीचे

इसके ठीक बाद माशूका की आवाज आती है और लगता है कि यहाँ बातचीत का एक सिलसिला शुरू हो चुका है। इस हसीन सिलसिले में माशूका एक आशंका व्यक्त कर रही है और लापरवाह प्रेमी से कहा जा रहा है कि- कल बापू जाग गए थे मेरी लाज की सोचो। इस गीत में बापू ही जाग सकते थे क्योंकि शायर यह जानता है कि इस भारतीय समाज में बापू को ही अपनी बेटियों की सबसे ज्यादा चिंता होती है कि बेटी जवान हो गई है।उसका ब्याह करना है, कहीं उसे किसी से मोहब्बत न हो जाए और आखिर में वह दारूण आशंका भी कि कहीं बेटी किसी के साथ भाग न जाए लेकिन प्रेमी में बेपरवाही है और कल की चिंता न करने की और इस इक पल के बारे में, इस पल को जी लेने के बारे में मस्ती से कहता है कि

अरे, जो होना था कल हुआ था

आज तो आज की सोचो

( यहाँ गुलजार साहब का एक और गीत भी याद किया जा सकता है जिसके बोल हैं- आने वाला पल जाने वाला है, हो सके तो इसमें जिंदगी बिता तो, वरना ये पल जाने वाला है।) चांद चुरा के लाया हूं गीत में जब प्रेमिका अपने प्रेमी की बेपरवाह और प्रेम का इसरार करती आवाज सुनती है तो आशंका के बादल छँटते हैं और वह प्रेमी की बात को दोहराती है चाँद चुरा के लाई हूँ चल बैठें चर्च के के पीछे लेकिन दोनों की ख्वाहिश कुछ ज्यादा है, कुछ ज्यादा हसीन है, कुछ ज्यादा रोमांटिक है। वे बस्ती से कहीं दूर निकल जाना चाहते हैं, जहाँ सिर्फ वे दोनों हों। एक दरिया, एक कश्ती, रात और प्रेम करते हुए अपने धड़कते दो दिल। ये एक माहौल है जिसमें दो दिल रहना चाहते हैं। लेकिन यह सब एक ख्वाहिश ही है फिर भी कितनी खूबसूरत। गुलजार जो चाँद लाते हैं, जो दरिया और कश्ती की बात करते हैं, ख्वाहिश की बात करते हैं, वे सब हमारी ही ख्वाहिशें हैं। इस तरह वे चाँद को चुराकर हमारी ख्वाहिशें पूरी करते हैं। यह सिर्फ गुलजार के बूते की बात है कि वे चाँद चुरा के लाते हैं और हमें सौंप जाते हैं। एक हसीन रात हमारे जीवन में उस चाँद के साथ हमेशा के लिए ठहर जाती है। उसी एक रात में, किसी पेड़ के नीचे बैठकर मैंने उस चाँद को एकटक निहारा है। बस उसे ही इस पेंटिंग में चुराकर लाने की एक कोशिश की है। मैं इसे वापस गुलजार साहब को सौंपता हूँ।

18 comments:

  1. भाई, आनंद आ गया इस पोस्ट को देख-पढ़ कर.एक कतरे में क्या से किया समो दिया.ये गीत तो अब समझ में आया.गद्य जानदार-पेंटिंग शानदार!!

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  2. एक तो चर्च प्रेमियों के लिए वह स्पेस है जहाँ वे अपने हाथ में हाथ पकड़े, निगाहों से एक-दूसरे को थामते हुए चलते हैं, आते हैं और बुदबुदाते हुए प्रार्थना करते हैं। मोहब्बत का इजहार करते हैं, कन्फेशन करते हैं। (हिंदी फिल्मों के ऐसे कई सीन और प्रसंग आप यहाँ याद कर सकते हैं) । फिर चर्च एक तरह के एकांत का, नीरवता का स्थापत्य बनाते हैं। एकदम शांत।...bajrangee jahil naraj ho jayenge

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  3. रवींद्र जी पेंटिंग बहुत सुंदर और चांद की बात तो क्‍या कहना। हां धीरेश का कमेंट पढ़कर चिंता भी हो गई कि.....। ख़ैर आप तो लिखते रहिए।

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  4. बहुत ही बढ़िया पोस्ट है ..उतनी ही शानदार पेटिंग

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  5. बढिया सी बात । गुलज़ार का साहस देखिए जब उन्‍होंने कहा- चौदहवीं रात के इस चांद तले । दूधिया जोड़े में जो आ जाये तू । तुझको बर्दाश्‍त ना कर पाये खुदा । ईसा के हाथ से छूट जाये सलीब । बुद्ध का ध्‍यान भी टूट जाये ।
    आज के ज़माने में इस रचना को बजा दें कहीं चौराहे पर । तो शहर सुर्खियां बन जायेगा ।
    और शायर इतिहास ।
    वक्‍त बदलता है और ऐसी चीज़ों की तरफ नज़र नहीं पड़ती । धूल समा जाती हैं आंखों में ।

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  6. यूनुस भाई, आपने बिलकुल ठीक लिखा है। आपने जिस नज्म का जिक्र किया है उस पर भी मैं पेंटिंग बना चुका हूं। जल्द ही आपको कहीं देखने को मिलेगी।

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  7. क्या बात कही आपने युनुस जी..
    ये पोस्ट मैंने सहेज कर रख ली है.. बहुत कम पोस्ट ऐसी है जिसे मैंने सहेजा है.. :)

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  8. गोया अब चर्च भी सेफ नही रहा कुछ और सोचना होगा
    बहुत सुंदर पोस्ट है

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  9. शानदार और अवाक कर देने वाली एक दुर्लभ पोस्ट. कबाड़ख़ाने पर रवीन्द्र व्यास जी की नियमित उपस्थिति हम सब को लगातार समृद्ध बनाती जा रही है. और पढ़ने-देखने-समझने के अपूर्व आनन्द का तो क्या ज़िक्र किया जाए.

    बने रहें रवीन्द्र भाई.

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  10. रवीन्द्र भाई आप जब भी क़लम या कूँची चलाते हैं,एक अलग समाँ रच जाते हैं.आपकी शख़्सियत का चोखापन आपके लेखन में भी नमूदार होता है. जिस गीत का हवाला देकर आपने अपनी बात कही वह पेंटिंग के उन्वान को समझने की आसानी को फ़राहम कर देता है.

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  11. सबके प्रति गहरा आभार। पता नहीं था कि लोगों की इतनी मोहब्बत मिलेगी।
    अशोकजी, मैं लगातार कुछ चित्र बनाते हुए कबाड़खाने पर बना रहूंगा।

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  12. Guljar saheb ke kya kahne , we to shabdon ke bade kartabee hi. unke likhe shabd kaan se sidhe aatma me utar jate hain aur fir bar-bar chintan-patal par pratidhwanit hote rahte hain. Chand, chori, church aur piche. yeh sadharan shabd, aapas me milkar jo darshan banate hain wah chamatkari hi.
    Sir, Aapne Guljar saheb ke giton ke piche ke darshan ka jo vyakhya kiya hai, wah kabile tarif hi. main to aalekh ko thoda aur lamba dekhna chah raha tha.
    Kripya Gulzar saheb kee pankti- kis mod se jate hain ; par kuch likhiye
    Ranjit

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  13. रंजीतजी, मैं पूरी कोशिश करूंगा। शुक्रिया।

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  14. तुम्हारी पोस्ट पढ़कर अपनी एक पुरानी गजल का एक शेर याद आ गया-
    चांद इक ख्वाब है, वादा है इरादा भी है
    वो चमकता है मगर, साथ में सादा भी है
    .................
    चमकती हई सादगी के लिए बधाई

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  15. वाह क्या बात है! बहुत सुंदर पोस्ट और उसके मिजाज से मेल खाती शानदार पेंटिंग।

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