मित्रो मैं देवताले जी स्त्री केंद्रित कविताओं के संचयन पर काम कर रहा हूँ, जो "एक सपना यह भी " नाम से २००९ के आरम्भ में प्रकाशित होगा। ये कवितायें उसी संचयन से। इस किताब को तैयार करना मेरे लिए एक अलग अनुभव रहा है , जिसे मैं किताब की भूमिका में आपके साथ बांटूंगा ........
औरत
वह औरत आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है
पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है
वह औरत
आकाश और धूप और हवा से वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूंध रही है?
गूंध रही है मनों सेर आटा
असंख्य रोटियां सूरज की पीठ पर पका रही है
एक औरत दिशाओं के सूप में खेतों को फटक रही है
एक औरत वक़्त की नदी में दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गई, एड़ी घिस रही है
एक औरत अनन्त पृथ्वी को अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है
एक औरत अपने सिर पर घास का गट्ठर रखे कब से
धरती को नापती ही जा रही है
एक औरत अंधेरे में खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वसन जागती शताब्दियों से सोई है
एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूंढ रहे हैं
उसके पाँव जाने कब से सबसे अपना पता पूछ रहे हैं।
एक सपना यह भी
सुख से पुलकने से नहीं
रचने-खटने की थकान से सोई हुई है स्त्री
सोई हुई है जैसे उजड़कर गिरी सूखे पेड़ की टहनी
अब पड़ी पसर कर
मिलता जो सुख वह जागती अभी तक भी
महकती अंधेरे में फूल की तरह
या सोती भी होती तो होठों पर या भौंहों में
तैरता-अटका होता
हँसी - खुशी का एक टुकड़ा बचा-खुचा कोई
पढ़ते-लिखते बीच में जब भी नज़र पड़ती उस पर कभी
देख उसे खुश जैसा बिन कुछ सोचे
हँसना बिन आवाज़ में भी
नींद में हँसते देखना उसे मेरा एक सपना यह भी
पर वह तो
माथे की सिलवटें तक नहीं मिटा पाती
सोकर भी
वह औरत आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है
पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है
वह औरत
आकाश और धूप और हवा से वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूंध रही है?
गूंध रही है मनों सेर आटा
असंख्य रोटियां सूरज की पीठ पर पका रही है
एक औरत दिशाओं के सूप में खेतों को फटक रही है
एक औरत वक़्त की नदी में दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गई, एड़ी घिस रही है
एक औरत अनन्त पृथ्वी को अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है
एक औरत अपने सिर पर घास का गट्ठर रखे कब से
धरती को नापती ही जा रही है
एक औरत अंधेरे में खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वसन जागती शताब्दियों से सोई है
एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूंढ रहे हैं
उसके पाँव जाने कब से सबसे अपना पता पूछ रहे हैं।
एक सपना यह भी
सुख से पुलकने से नहीं
रचने-खटने की थकान से सोई हुई है स्त्री
सोई हुई है जैसे उजड़कर गिरी सूखे पेड़ की टहनी
अब पड़ी पसर कर
मिलता जो सुख वह जागती अभी तक भी
महकती अंधेरे में फूल की तरह
या सोती भी होती तो होठों पर या भौंहों में
तैरता-अटका होता
हँसी - खुशी का एक टुकड़ा बचा-खुचा कोई
पढ़ते-लिखते बीच में जब भी नज़र पड़ती उस पर कभी
देख उसे खुश जैसा बिन कुछ सोचे
हँसना बिन आवाज़ में भी
नींद में हँसते देखना उसे मेरा एक सपना यह भी
पर वह तो
माथे की सिलवटें तक नहीं मिटा पाती
सोकर भी
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कवि की तस्वीर अनुनाद से
बहुत सुन्दर रचनाएं प्रेषित की हैं।
ReplyDeleteदेवताले जी मेरे भी प्रिय कवि हैं। आप बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। बधाई।
ReplyDeleteनींद में हँसते देखना उसे मेरा एक सपना यह भी
ReplyDeleteपर वह तो
माथे की सिलवटें तक नहीं मिटा पाती
सोकर भी
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एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूंढ रहे हैं
उसके पाँव जाने कब से सबसे अपना पता पूछ रहे हैं।
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इन कविताओं के लिए कवि को और प्रस्तुति के लिए आपको बधाई !
अपना पता पूछती
ReplyDeleteएक अधूरी दुनिया पर
पूरी नज़र का सुबूत है यह पेशकश.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
औरत को देखना और औरत होना दोनों ही जुदा चीजें हैं। कविताएं अच्छी हैं।
ReplyDeleteहिंदी के इस अप्रतिम कवि की कविताएं मुझे हर बार छूती हैं और खासकर वे कविताएं जो स्त्रियों पर हैं। यहां एक बार फिर पढ़ीं और इस कवि के भीतरी संसार से फिर फिर परिचय हुआ।
ReplyDeleteशानदार, जानदार कविताएं। धन्यवाद।
ReplyDeleteइस संकलन का इंतजार है!
ReplyDeletekitab ke roop mai in kavitao ka basabri se intzaar hai.....
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
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