Monday, December 29, 2008

ज़िक्र उस परीवश का, और फिर बयाँ अपना







कल, या परसों था वो ..... सिद्धेश्वर भाई की पोस्ट पढ़-सुन कर मगन हो गया था.... तब से कुछ ग़ालिबमय भी हूँ.


"हमारे ज़ेह्न में इस फिक्र का है नाम विसाल
कि गर न हो तो कहाँ जाएँ, हो तो क्योंकर हो"



मुझे लिखना नहीं आता इस लिए सीधे मतलब की बात करुँ ...... पेश है एक ग़ज़ल ग़ालिब की ... आवाज़ रफ़ी की .... पेश कर रहे हैं कैफ़ी आज़मी .... पसंद आए तो बताइयेगा ....... एक और ग़ज़ल की गुंजाइश है ?






ज़िक्र उस परीवश का, और फिर बयाँ अपना
बन गया रकीब आख़िर, था जो राज़दाँ अपना

मय वो क्यों बहुत पीते, बज़्म-ए-गै़र में या रब
आज ही हुआ मंज़ूर, उन को इम्तिहाँ अपना

मंज़र इक बलंदी पर, और हम बना सकते
अर्श से इधर होता, काश कि मकाँ अपना

दे वो जिस क़दर ज़िल्लत, हम हँसी में टालेंगे
बार-ए-आशना निकला, उनका पासबाँ अपना

दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक, जाऊँ उनको दिखलाऊँ
उंगलियाँ फ़िगार अपनी, खा़मः खूँचकाँ अपना

घिसते घिसते मिट जाता, आपने अबस बदला
नंग-ए-सिज्दः से मेरे, संग-ए-आस्ताँ अपना

ता करे न गम्माज़ी, कर लिया है दुश्मन को
दोस्त कि शिक़ायत में, हम ने हमज़बाँ अपना

हम कहाँ के दाना थे, किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ ग़ालिब, दुश्मन आसमाँ अपना

5 comments:

  1. गुंजाइश एक की नही जरुरत ढेर सारी की है इंतज़ार रहेगा

    ReplyDelete
  2. 'मंज़र इक बलंदी पर, और हम बना सकते
    अर्श से इधर होता, काश कि मकाँ अपना'

    हासिल-ए-ग़ज़ल शेर है जनाब.अश! अश!! क्या बात है!

    ReplyDelete
  3. कितनी बार सुने? मन ही नहीं भर रहा....
    नीरज

    ReplyDelete
  4. भाव और सुर दोनों ने बांध लिया.

    देते रहें ऐसे नगमें. धन्यवाद.

    ReplyDelete
  5. भाव और सुर दोनों ने बांध लिया.

    देते रहें ऐसे नगमें. धन्यवाद.

    ReplyDelete