
फ़्रांसीसी कवि पॉल एलुआर (१४ दिसम्बर १८९५-१८ नवम्बर १९५२) आन्द्रे ब्रेतॊ और लुई अरागों के साथ सर्रियलिस्ट आन्दोलन के संस्थापकों में से एक थे. उनका वास्तविक नाम यूजीन एमीले पॉल ग्रिन्देल था. निम्न मध्य वर्ग में एक बुककीपर के घर जन्मे एलुआर को बचपन में टीबी हो गई थी जिसके कारण १६ की आयु में उन्हें स्विटज़रलैण्ड के एक सेनेटोरियम में भेजना पड़ा था. इन्हीं दिनों उन्होंने कविता लिखना शुरू कर दिया थी.अगले साल उन्होंने फ़ौज में काम किया जहां जहरीली गैसों के सम्पर्क में आने के बाद उनका स्वास्थ्य और बिगड़ गया. फ़ौज से लौटने के बाद १९१७ में उनका पहला काव्य संग्रह छपकर आया.
सर्रियल आन्दोलन से जुड़ जाने के बाद उनके जीवन में एक विचित्र घटना घटी. १९२४ के आसपास वे सार्वजनिक जीवन से कुछ समय ग़ायब हो गए थे. पहले अफ़वाहें उड़ीं और बाद में सच मान लिया गया कि उनकी मौत हो चुकी है. सात माह बाद वे वापस लौट आए और उन्होंने लोगों को बताया कि वे ताहिती, इन्डोनेशिया और श्रीलंका की यात्राओं पर निकल गए थे. यह बात बाद में पता लगी कि उनकी यात्राओं की वजह यह थी कि उनकी पत्नी गाला उन्हें छोड़ कर कलाकार साल्वादोर दाली के साथ चली गई थी.
१९४३ में उन्होंने फ़्रांस की कम्यूनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली जिसके बाद उन्होंने सर्रियलिस्ट आन्दोलन से अपने सम्बन्ध तोड़ लिए.
अन्तर्राष्ट्रीय कम्यूनिस्ट आन्दोलन के सांस्कृतिक मोर्चे पर लगातार काम करते हुए एलुआर ने ब्रिटेन, बेल्जियम, चेकोस्लोवाकिया, मैक्सिको और रूस की यात्राएं कीं. वे चाह कर भी अमरीका नहीं जा सके क्योंकि उनकी वीज़ा की अर्ज़ी ख़ारिज कर दी गई थी.
पाब्लो पिकासो के घनिष्ठतम मित्रों में से एक थे एलुआर. उनका मानना था कि कविता का उद्देश्य भाषा का नवीनीकरण होना चाहिये ताकि मानव अस्तित्व के हर क्षेत्र में उसका अर्थवान योगदान हो सके. उनकी कविता में सामाजिक चेतना, प्रेम, बिछोह और दर्द के सूत्र इस कदर आपस में गुत्थमगुत्था रहते है कि यह तय कर पाना मुश्किल होता है कि उनका कौन सा कवि रूप अधिक बड़ा है.
आज उनकी तीन कविताएं - अलग अलग मूड्स कीं:
सत्य
दुख के पंख नहीं होते
न ही प्यार के
न कोई चेहरा
वे बोलते नहीं.
मैं हिलता-डुलता नहीं
मैं उनकी ओर टकटकी लगाए नहीं देखता
मैं उनसे बात नहीं करता
लेकिन मैं अपने दुख और प्यार की तरह वास्तविक हूं.
नदी
मेरी जीभ ने नीचे वो नदी
अकल्पनीय जल, मेरी नन्ही नाव
और खिंचे हुए परदे, चलो बातें करें
कर्फ़्यू
इसके अलावा और क्या कर सकते थे हम, क्योंकि दरवाज़ों पर पहरेदार थे,
इसके अलावा और क्या कर सकते थे हम, क्योंकि उन्होंने क़ैद कर लिया था हमें,
इसके अलावा और क्या कर सकते थे हम, क्योंकि हमें निषिद्ध था सड़क पर जाना,
इसके अलावा और क्या कर सकते थे हम, क्योंकि शहर सोया हुआ था,
इसके अलावा और क्या कर सकते थे हम, क्योंकि वह भूखी थी और प्यासी थी,
इसके अलावा और क्या कर सकते थे हम, क्योंकि हम निहत्थे थे,
इसके अलावा और क्या कर सकते थे हम, क्योंकि रात हो चुकी थी,
इसके अलावा और क्या कर सकते थे हम, क्योंकि हम मुब्तिला थे मोहब्बत में?
(जल्द ही उनकी एकाध लम्बी कविताएं लगाऊंगा)
Dhanyavad.Aur ka intajaar rahega.
ReplyDeleteA very eventful life indeed unlike most of our desi poets!Here the best ones are usually found in Films & instead of writing poems they write lyrics.
ReplyDeleteअशोक भाई आपसे अनुरोध है की मयखाने पे जारी चर्चा में अपनी राय हम सभी को दें । भाई अनिल यादव के सस्नेह आदेश से ये गुज़ारिश आपसे की जाती है । नियम के मुताबिक आलोच्य विषय पर फ़ोन -कॉल या ई -मेल का इस्तेमाल वर्जित है वरना अब तक कई फ़ोन आ लिए होते आपके पास।
ReplyDeleteअशोक भाई....थोड़ा जल्दी प्लीज़ ! इस से पहले के मेरा आइडिया हाई -जैक हो ! मैं चाहता हूँ के इस अभियान में शामिल लोगों का नाम कम से कम हिन्दी ब्लॉग जगत में जलन से लिया जावे। हा..हा..!
ReplyDeletebahut sundar kavitayen. nayi kavitaon ka intzar hai....
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ReplyDeleteakhiri kavita padhkar `romeo juliet aur andhera` novel yaad aa raha hai..
ReplyDeleteकवितायें बेहतरीन लग रही हैं ! आगे का इंतज़ार रहेगा! आपका ब्लॉग विविधता भरा है - बधाई !
ReplyDeleteकर्फ्यू कविता खासतौर से अच्छी लगी।
ReplyDelete...still waiting Ashok bhaee. An ideal destination for Blogger's bike brigade. pls let us know.
ReplyDeleteकबाड़ नही , सोना है
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