बाबूजी इस दुनिया मे नही हैं। रहते तो पता नही खुश होते या अपना सिर पीटते जब उन्हे पता चलता कि मै कबाड़ी हो गया हूं। कबाड़ी, बचपन से सुनता आ रहा हूं और जब शैतानी करता बाबूजी कहते इसके लक्षण ठीक नही है, लगता है कबाड़ी बनेगा। पता नही वे ऐसा क्यों कहते थे मगर आज लगता है कि उनकी बात खरी हो रही है। वे अपने कहे को आशीर्वाद मे बदलते देखने के लिये आज मौजूद नही है,मगर मुझे लग रहा है कहीं न कहीं से वे मुझे कबाड़ी बनते देख रहे होंगे और मन ही मन मुस्कुरा रहे होंगे।
कबाड़ी और कबाड़खाना मेरे लिये नया कुछ भी नही है। थोड़ा बहुत समझने लायक हुए तो खुद को कबाड़ियों से घिरा हुआ पाया। हम लोग रायपुर के मौदहापारा मे रहा करते थे। मौदहापारा नाम मूलतः उत्तर प्रदेश के महोबा ईलाके के बारह गांव के लोगो के यंहा आकर बस जाने के कारण पड़ा था। सारे के सारे मुस्लिम और अधिकांश लोगों का एक ही धंधा, कबाड़ी का। मेरे घर के आसपास तीन-चार हिंदू परिवार रहते थे और उसके अलावा दोनों ओर कबाड़ी बसे थे। घर से चंद कदमो की दूरी पर था एक चौक जिसका नाम था कबाड़ी चौक। बाहर से आने वालों के लिये रेफ़रेंस से लेकर पोस्टल एड्रेस तक़। उस समय टैक्सियां या आटो नही होते थे, रिक्शे और तांगे चला करते थे उनको भी पता बताया जाता था कबाड़ी चौक के पास।
समय तो जैसे उड़ता चला गया। हम लोग थोड़ा बड़े होने लगे थे और नये दोस्त बनाने की गरज से घर के आसपास खिंची लक्ष्मण रेखा पार कर मुहल्ले की ओर जाने लगे थे। पतंग से लेकर क्रिकेट तक़ सभी के लिये टीम वहीं बन पाती थी। बाबूजी को जब पता चला तो उन्होने फ़रमान जारी कर दिया कि उधर नज़र आये तो बिना मुरव्वत के धुनाई होगी। स्कूल तक़ पाबंदी जारी रही। कालेज मे प्रवेश लेने की बात आई तो मैने आई (मां) से कहा कि मै दुर्गा कालेज मे पढना चाहता हूं। दुर्गा कालेज उस समय छात्र राजनीति और दादागिरी दोनो के लिये मशहूर था। मां ने सीधे सीधे इस माम्ले से हाथ खींच लिये और कहा कि तू जान तेरे बाबूजी जाने। लाख चिरौरी के बावजूद जब मां नही मानी तो बाबूजी से डरते-डरते खुद ही कहने की हिम्मत जुटाई और जैसे ही कहा तो जवाब ये मिला कबाड़ी बनना है क्या? वहां पढना था तो काहे कान्वेंट की फ़ीस भरते रहे। सरकारी स्कूल वालो को भी वहां एडमिशन मिल जाता है। मेरे स्कूल के सारे साथियो ने वहां प्रवेश ले लिया था। बाबूजी अंत तक़ राजी नही हुए और मुझे बगल के कालेज को छोड़ कई किलोमीटर दूर स्थित साईंस कालेज मे जाना पड़ा। सिर्फ़ कबाड़ी ना बनूं इस लिये बाबूजी की इच्छा के अनुरूप एम एस सी तक़ वहां पढाई की। हालांकि ग्रेजुयेशन के तत्काल बाद हमारे एक भैया ने मेरे तेवर देख कर पत्रकार बनाने की पूरी तैयारी कर ली थीं नौकरी भी तय हो गई थी मगर तब मुझे पत्रकार बनना स्तर का नही लगता था।
पता नही क्यों जो जो नही बनना चाहा वही बनता गया। पत्रकार नही बनना चाहता था बना और वैसे ही कबाड़ी भी। एम एस सी करने के बाद लगा कि राजनीति ही अपने लिये ठीक रहेगी। तब तक़ साईंस कालेज मे अपने कबाड़ी भाईयों की दादागिरी की साख से रिकार्ड तोड़ते हुये विश्वविद्यालय प्रतिनिधि के पद पर निर्वाचित हो चुके थे। साईंस कालेज और उस इलाके मे ब्राम्हण पारा की दादागिरी चलती थी और सारे पदाधिकारी उनकी पसंद के होते थे। मै उनके विरोध के बावज़ूद चुनाव जीत गया क्योंकी 38 मे से 30 वोटर मेरे कब्जे मे थे। वो रोमांच मुझे राजनिती की ओर खींचने लगा और मां ने जब इसकी शिकायत बाबूजी से कि तो उन्होने कहा बड़ा हो गया है। अपना भला बुरा समझता है। जाने दो जो जी मे आये करे कुछ नही कर सकेगा तो कबाड़ी बन जायेगा।
राजनीति से ज़ल्द ही मोहभंग हो गया।यहां छत्तीसगढ मे उस समय शुक्ल बंधुओं का जलवा था और वीसी याने विद्याचरण शुक्ल तो जो चरण स्पर्श नही करते थे उन्हे देखते तक़ नही थे। उनका तो समझ मे आता था मगर हर कोई ऐरा गैरा नत्थू खैरा पैर पड़वाने मे विश्वास रखता था। अपने से ये होना ही नही था और हुआ भी नही दो एक बार बहस भी हुई। एस एफ़ आई, फ़िर विद्यार्थी परिषद और युवक कांगेस को बारी बारी से बारीकी से देखा और सबको नमस्ते कह दिया। तब तक़ बाबूजी से खर्च लेकर शान बघारा करते थे। मां अक्सर कहती थी कुछ कर रे। फिर ठेकेदारी की और साब लोगो को मुर्गा-दारू उप्लब्ध कराने की टेण्डर की पहली शर्त पूरी नही कर पाने के कारण डिबार हो गये। तभी पब्लिक हेल्थ इंजिनीयरिंग डिपार्ट मे भूजलवैज्ञानिकों का पंजियन शुरू हुआ और मै रजिस्टर्ड हाईड्रो जिओलाजिसट बन गया। टेण्डर सारे साथियों ने मिल कर डाले और बोरिंग ठेकेदार को अपने दस्तखत किये हुये सर्टिफ़िकेट देने के बदले फ़ीस लेने का नया खेल समझ मे आया। मीटर लगाकर आंय बांय शांय रीडिंग लेकर अंदाज़ से पानी का स्त्रोत बताने के मायाजाल मे मै फ़ंस नही पाया और तभी अचानक़ एक अख़बार मे रिपोर्टर की नौकरी हाथ लग गई।
ऐसा लगा कि सब सैटल हो जायेगा मगर हुआ नही। अड़ियल स्वभाव आड़े आता रहा। नौकरी लगने के साथ ही छोड़ने का सिलसिला जो तब शुरू हुआ वो आज भी जारी है। कहीं कुछ समय के लिये काम करना शुरू होता नही है कि लोग पूछने लगते है कब छोड़ रहा है। कभी दोपहर को थक कर घर जाकर सो जाओ तो मां पूछ लेती है छोड़ दिया क्या रे। ये इमेज हो गई है अपनी। खैर बाबूजी से मिलने वाली आर्थिक मदद के दम पर मै भी पाकिस्तान कि तरह निरंकुश होता चला गया। पत्रकारिता मे कुछ साल मौज करने के बाद एक दिन अचानक बाबूजी हम सब को बिलखता छोड़ कर चले गये। मै चाह कर भी उस दिन रो नही पाया। मै अचानक से जवान और ज़िम्मेदार हो गया था। मेरे नाज़ुक कंधो पर दो छोटे भाई और एक बहन का बोझ भी आ गया। मैने तत्काल कलम तोड़ी और नौकरी छोड़ कर परिवार को उसी स्तर पर चलाने के लिये दुनियादारी की चक्की मे पिसने लगा। मकान भी बिक गया, किराये के मकान मे पहुंच गये और बस चलाने मे ईमानदारी बरतने का खामियाज़ा भारी नुकसान के रूप मे उठाना पड़ा।
शुरू मे तो नये पार्टस खरीदता रहा मगर बाद मे हर पार्ट को कबाड़खाने मे ढूंढता रहा। तब कबाड़ियों ने मुझे काफ़ी मदद की। मुझे कबाड़खाने और मुहल्ला छूट जाने के बाद कई सालो तक़ कबाड़ी चौक जाने की ज़रूरत नही पड़ती थी। फ़िर से कबाड़ी चौक रोज़ जाने लगा। मौदहापारा मे रहने के कारण उस समय भी बहुत से दोस्त मौधईया और कबाड़ी कह कर चिढाते थे। बसो का काम अजीत जोगी की सरकार मे उनसे अनबन के चक्कर मे बंद ही हो गया था और एक बार फ़िर कबाड़ी चौक, कबाड़खाना और कबाड़ियों से दूरी बन गई थी। एक दिन अचानक मेल मे अशोक पाण्डे जी का संदेश देखा, उन्होने फ़ोन नम्बर मांगा था। मैने दे दिया। उसी रात अचानक एक नये नम्बर से आये फ़ोन पर आवाज़ आई मै अशोक पाण्डे। मैने कहा बोलो महाराज कहां भटक रहे हो। मै उन्हे राजनांदगांव ज़िले का पत्रकार समझ बैठा था। वे समझ गये थे कुछ गलत फ़हमी है सो उन्होने कहा कबाड़खाने वाला। अरे रे रे अशोक जी गलती हो गई। और उसके बाद बातो का सिलसिला चल पड़ा। उन्होने जब कहा कि मै आपको कबाड़खाने मे आमंत्रित कर रहा हूं और यहां लिखने वाले कबाड़ियो मे आपको शामिल करना चाहता हूं, तो समय चक्र एकदम से उल्टा घूम गया। मुझे बाबूजी के कहे शब्द याद आ गये कि कुछ नही कर पायेगा तो कबाड़ी बन जायेगा और उनका ये आशीर्वाद मुझे आज प्राप्त हो रहा है।
लो मै आज कबाड़ी बन गया।
स्वागत है अनिल भाई!
ReplyDeleteज़बरस्त एन्ट्री ली है आपने.
उत्तम लेखन.
अनिल भाई, स्वागत है। जबर्दस्त गाथा है आपके कबाड़ी बनने की। बल्कि कबाडखाने के असली कबाड़ी तो आप ही पाए गए हैं।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...शुक्रिया अशोक पंडज्जी।
आशा है इस दुकान पर आपसे मुलाकात बराबर होती रहेगी अनिल जी और चित्रकोट में तो खैर होगी ही !
ReplyDeleteashok bhai apka ye foto kahan ka hai ?
ReplyDeleteतो जनाब बचपन से ही मंडरा रहे हैं हमारे खजाने के आसपास। फिर तो भटकन के बाद घर वापसी है। स्वागत।
ReplyDeleteबिलकुल कबाड़खाने के खालिस कबाड़ी की तरह एकदम कबाड़ लेखन।
ReplyDeleteबधाई हो भाई साहब आखिरकार बन ही गए कबाड़ी ;)
जिन खजानों की दुनिया वाले कदर नहीं करते वे अमुल्य धरोहरें कबाड में ही रहती हैं अनिल जी।
ReplyDeleteआपने कबाड को इतना उंचा उठा दिया है अब आपके पापा भी इसे हल्का नहीं लेंगें।
स्वागत
स्वागत! स्वागत!! स्वागत!!!
ReplyDeletepitaji ke paise se mauj ke alawa sab kuchh theth kabaadiyo.n jaisa hi hai.
ReplyDeleteAshok bhai, ...karwa.n banta gaya wala sher
ummeed hai yahan se nahi jaoge bandhu. Khushaamadeed!!!!
ReplyDeleteबारहठ, रोटी को तोती कहना बंद करो।
ReplyDeleteजब बड़े हो कर ब्लागगीरी करने लगते हैं तो अपनी बातों के बीच मम्मी-पापा को नहीं लाते।
swagat hai!
ReplyDeleteAnil ji ki kabaadigaatha jabardast h, preranadayak h. baki kabadiyo ke liye nazir h
ReplyDeletesvagatam,svagatam,svagatam
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ReplyDeleteबाबू जी मुस्कुरा तो ज़रूर रहे होंगे। आखिर उनका आशीर्वाद काम आ ही गया।
ReplyDeleteकबाड़ी बनने पर बधाई, अनिल जी।
कबाड़खाने में वह मिलता है जो ऊँची दुकानों में नहीं मिल पाता।