Saturday, July 25, 2009

बस एक ही बार इशारा कर देना मेरी आँखों के फैल गये काजल की ओर


एक शख़्स है जिसकी गहरी और कदाचित तीख़ी टिप्पणियों की भाषा मुझे अपने प्रिय मरहूम शायर हरजीत के एक शेर की याद दिला जाती है:

कुछ तो तुर्शी बयान में रखिये
एक लज़्ज़त ज़बान में रखिए


उनके बारे में और जानने की उत्सुकता हुई तो उनसे सम्पर्क किया. जनाब कहते हैं कि अगर मेरे बारे में कुछ बताना ही लोगों को चाहें अपरिहार्य रूप से इस शेर का ज़िक्र किया जाए:

अपने गुनाहों की सज़ा ढूँढ़ता हूँ
दुनिया में अपना पता ढूँढ़ता हूँ


यह जानकर अच्छा लगा कि साहब कविताएं भी लिखते हैं. और बढ़िया कविताएं. इनकी दो कविताओं पर ज़रा ग़ौर करें. मुझे तो पसन्द आईं.:

इस जनम में सुहाग

हे कंत!
इस जनम में एक बार,
मुझे कोई शि़कायत कोई पछतावा नहीं
पिछले कई जनमों का,
पर इस जनम में एक बार, एक क्षण के लिए, क्षण के सौवें हिस्से के लिए
मुझे अपने पथ पर लिए चलना अपने साथ
एक बार टोकना मुझे कि मेरे वस्त्र अस्त-व्यस्त हैं
बस एक ही बार मेरे सुहाग की बिंदिया को ललाट के ठीक बीचों-बीच कर देना
मेरे हाथों से ग्रहण करते हुए अपने साजो-सामान
एक बार देख लेना मेरी ओर
बस एक ही बार इशारा कर देना मेरी आँखों के फैल गये काजल की ओर
इस जनम में तो झिड़क देना मुझे मेरी लापरवाही के लिए

हे कंत!
इस जनम में तो दिखाना एक झलक
अपनी प्यारी सूरत की
पिछले कई जनमों का तो कोई पछतावा नहीं
पर इस जनम में एक बार, एक क्षण के लिए, एक क्षण के सौवें हिस्से के लिए
मुझे सुहाग देना।


पत्नी से विदा

जनम-जनम से मैंने तुम्हें कराया है इंतज़ार
तुमने ख़ामोशी से देखा-सुना है मेरा कारबार

अब एक उपकार और करो
मेरे क़रीब आओ और मेरे सीने से लगकर
मुझे एक बार और विदा करदो
मुझे चूमने दो अपनी पेशानी कि मेरी शक्ति क्षीण हो गई है
मुझे थोड़ी शक्ति और उठा लेने दो अपनी आँखो से
मुझे अभी और रहना है तुमसे दूर

शायद मेरा यह भटकाव भी आखिरी नहीं हो
अपनी आत्मा का आखिरी हीरा भी मुझे ही देदो तुम
मैं बढ़ रहा हूँ दुःलंघ्य पर्वत श्रृंगों की ओर
मैं गिरने जा रहा हूँ अनन्त में
अपनी झपकियाँ भी मेरे साथ करदो
कुछ मत रखो अपने पास
तुम खुद ही रख दो सब कुछ मेरे सामने
मुझे डर है
शायद मैं फिर तुमसे कुछ माँगने न आ सकूं
मेरे और करीब आ जाओ
मैं जा रहा हूँ हमेशा के लिए, अभी कभी नहीं लौटूँगा
लेकिन इसी उम्मीद के साथ जा रहा हूँ
कि तुम मेरा इंतज़ार करोगी और पलक तक नहीं झपकाओगी
मैं इसी विश्वास से भरा हुआ जा रहा हूँ
कि तुमने सब कुछ दे दिया है मुझे और कुछ नहीं बचा रखा है अपने पास
ओह! मेरे आगोश में समाओ पहली और आखिरी बार
तुम्हारे बालों को सहलाऊँ, देखो छूट ही रहा था अधरों में कुछ रस
इसे भी दे दो, अब तो मुझे तुम्हारी याद भी नहीं आयेगी

ना, अभी कुछ मत कहो
मुझे अभी वक्त नहीं है तुम्हारी बात सुनने को
किसी और के विषय में भी नहीं, तुम खुद ही सम्भालो सब

लो शीघ्रता करो, मुझे तिलक दो
बहुत विलम्ब हो रहा है तुमसे विदा लेने में
अभी मुझे यह भी तय करना है कि जाना कहाँ है!
अभी तो लेनी है तुमसे विदा
और तुमसे विदा लेने में भी इतना विलम्ब कि उफ्फ!....?

ये रचनाएं जयपुर में रहने वाले प्रीतीश बारहठ की हैं. अपने को "राजस्थान सरकार का एक छोटा सा कर्मचारी" बतलाते हैं और "अनपढ़ता की हद तक कम पढ़ा-लिखा". उन्हीं के शब्दों में: " साहित्य के प्रति झुकाव बचपन से ही है, लेकिन बहुत पढ़ने का अवसर नहीं मिल पाता है। ग़ज़ल के प्रति अधिक झुकाव है। अपने खर्चे पर अपनी एक पुस्तक "सयानी बातें " ग़ज़ल संग्रह के रूप में छपवाई थी, लेकिन उसे देखने वाला मैं या मेरे एक-दो मित्र ही हैं। जयपुर से प्रकाशित लघु पत्रिका "समय माजरा" के किसी अंक में बहुत पहले एक कहानी "रणखेत" प्रकाशित हुई है। बस !

मेरी डायरियों में बहुत सी कवितायें ऐसी भी हैं जो आपत्तिजनक भी हो सकती हैं।

स्कूल, कॉलेज के दिनों में अभिनय भी किया करता था। आज भी यही समझता हूँ कि मैं कविता या कहानी के बजाय अभिनय अच्छा कर सकता हूँ।"

उम्मीद करनी चाहिये कि प्रीतीश अपनी रचनाओं को डायरियों की कैद से शीघ्र मुक्ति दिलाएंगे. और अपनी ग़ज़लें भी लोगों तक पहुंचाएंगे. उनकी अभिनय की आकांक्षा भी शीघ्र पूरी हो, हम कामना करते हैं.

(ऊपर लगी पेन्टिंग मार्गरेट फ़ेन की कृति 'फ़ेयरवैल')

21 comments:

  1. APNI GUNAAHON KI SAJAA DHUNDHATAA HUN...
    DUNIYA ME APNAA PATAA DHUNDHATAA HUN..


    KYA KHOOB SHE'R KAHEN HAI JANAAB NE BAHOT BAHOT BADHAAYEE


    ARSH

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  2. हरजीत साहेब के दोनों शेर बेमिसाल लगे और प्रीतेश जी की कवितायेँ लाजवाब. इतनी कम उम्र में इतनी गहरी संवेदनाएं बहुत कम देखने को मिलती हैं. मेरी और से उन्हें बधाई दीजियेगा. जो इन्सान इतनी खूबसूरत कवितायेँ लिख सकता है वो यकीनन बेहतरीन ग़ज़लें भी लिखता होगा. उन्हें कहें की निराश न हों अपनी किताब मुझे इस पते पर भेज दें मैं उसके बारे में अपने ब्लॉग पर "किताबों की दुनिया" के अर्न्तगत,जरूर पोस्ट लिखूंगा.

    Neeraj Goswamy
    C/O Bhushan Steel Ltd.
    608,Regent Chambers,
    Nariman Point
    Mumbai-400021
    Tel:022-22855520
    9860211911

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  3. आज ही सुना है नाम हालाँकि मैं कोई दुनिया की खोज पर निकला यात्री नहीं हूँ प्रीतीश के ही राज्य में सीमा पर बैठा दुनिया को जवान और लोगों को बूढा होते देख रहा हूँ और कबाड़ को पढ़ता रहता हूँ, अशोक भाई आपकी पसंद ठीक है वैसे ठीक तो कई आदरणीय लेखक भी हैं.
    आपके दोस्त का शेर वजनी है और अपनी पहचान का शेर भी.

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  4. नीरज जी

    सिर्फ़ पहला वाला हरजीत का शेर है. दूसरा प्रीतीश ने भेजा था, वही बता सकेंगे किसका है.

    सादर.

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  5. प्रीतीश का परिचिय प्रीतिकर रहा।
    हरजीत हमारे भी प्रिय शायर थे। उनका एक संग्रह भी मेरे पास है। छोटी बहर पर कमाल की पकड़ थी...

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  6. अशोक जी,

    आपका और बाकी सब मित्रों का आभार!

    नीरज जी,

    "अपने गुनाहों की सज़ा ढूँढ़ता हूँ
    दुनिया में अपना पता ढूँढ़ता हूँ"

    ये लाइनें इसी नाचीज की हैं। इसी ग़ज़ल में यह कहने की जुर्रत भी कर बैठा हूँ----

    काफ़िर, फ़रिश्ता या वो ख़ुदा हो
    आँखों में सबकी ख़ता ढूँढ़ता हूँ

    आप सबका पुनः-पुनः आभार !

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  7. प्रिय अशोक जी,
    अशिष्टता के लिये क्षमा करें। आपके बड़प्पन को सिर-माथे पर रखकर एक बात और सभी साथियों को स्पष्ट करना जरूरी समझता हूँ, वह यह कि इन कविताओं को कबाड़खाना पर लगाने के लिये मैंने स्वयं आपसे आग्रह किया था। आपने जब सम्पर्क किया था वह भी मेरी ही गुजारिश पर ही किया था, और वह संदर्भ भी भिन्न था।

    कबाड़खाना पर अपनी कविताये पोस्ट करने की मेरी तीव्र लालसा तभी से थी जब से इस ब्लाग को पढ़ने लगा था। मैं अपने ब्लाग "सुनिये - समझिये" लिंक pritishbarahath.blogspot.com पर अपनी कविता/ग़ज़ल पोस्ट करता रहता हूँ।

    सभी साथियों और आने वाली टिप्पणियों का शुक्रिया!

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  8. बहुत ही संजीदगी से लबरेज़ है आपकी यह पोस्ट साहब। आँखें नम हो आईं। बहुत शुक्रिया आपका इसके लिए।

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  9. प्रीतीश का लम्बा आलेख आपने पहले लगाया था जिसे लम्बाई और गहराई दोनों नापने की अपनी असमर्थताओं के कारण मैंने गुज़र जाने दिया था.अब इन्हें जानने का बेहतर मौका दिया है जिसके लिए शुक्रिया.
    प्रीतीश जयपुर में रहते हैं पर दिल्ली की तरह जयपुर भी लोग जाते हैं और एक अरसे तक, लौट लौट कर अपनी जड़ों की ओर आते है. कहीं आप मेरे और पडौस के तो नहीं?

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  10. अशोक भाई

    कविता ने काफ़ी प्रभावित किया।
    छोटे शहरों का ही भविष्य है।

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  11. इतनी गहरी संवेदनाएं...इनको मेरा सलाम

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  12. बेशक़ आप अभिनय अच्छा करते होंगे प्रीतिश जी लेकिन आप लिखते भी बहुत अच्छा हैं।आभार अशोक जी प्रीतिश जी को पढने का मौका देने का।

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  13. बहुत संवेदनशील कविताएं। स्वागत है बंधु कबाङखाने पर।

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  14. आभार! आभार!आभार!

    मुनीश जी!
    उम्मीद नहीं थी लेकिन आपकी टिप्पणी का इंतज़ार था। आखिर आपने मेरी कविता-फविता पढ़ ही ली! शुक्रिया

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  15. कहाँ छिपे बैठे थे बाबूजी ?
    या कि अपन ही नहीं पहुँच सके थे आप तक!
    बोफ़्फ़ाईन!!

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  16. सुन्दर कवितायें। पढ़वाने का शुक्रिया।

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  17. अब तक कहां छिपे बैठे थे प्रीतिश? या कि यह हमरा ही अज्ञान था कि आपकी रचनात्मक प्रतिभा से अपरिचित रहे. वह भी एक ही शहर में रहते हुए. बहुत संवेदनपूर्ण और गहरे तक उतरने वाली कविताएं. बधाई.

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  18. काफ़िर, फ़रिश्ता या वो ख़ुदा हो
    आँखों में सबकी ख़ता ढूँढ़ता हूँ

    - in paktoyo ke shayar ka kayal hua

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  19. महानुभाव,

    प्रयास करूंगा आप सबका व्यक्तिगत रूप से आभार प्रगट कर सकूं!

    प्रिय रंगनाथ जी,

    हम फक़ीरों से बेअदाई क्या
    आन बैठे जो तुमने प्यार किया
    -मीर तक़ी मीर
    आपको कायल करने के लिये मेरे पास पर्याप्त सामग्री है। और क्रोधित करने के लिये भी! संवेदना और विचार का भेद आपको पहले निवेदन कर चुका हूँ।

    शुक्रिया

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