Wednesday, August 26, 2009

मार्क स्ट्रेंड की कविता

( अंग्रेजी साहित्य के अपने अत्यल्प ज्ञान को साबित कराने की मुझे कोई ज़रूरत तो नही है पर मै सचमुच नही जानता की ये स्ट्रेंड साहब कौन हैं। बस आज एक दोस्त ने यह कविता मेल की और पढ़ने में किक लगी तो अनुवाद कर डाला और अब आपके हुज़ूर में...,हमनाम बड़े भाई से क्षमा याचना सहित)

मैदान में
मैदान की अनुपस्थिति हूँ मै
ऐसा ही होता है हमेशा
मै जहाँ भी होता हूँ
वही होता हूँ
कमी ख़ल रही होती है जिसकी

जब चल रहा होता हूं मै
बांट देता हूं हवा को दो हिस्सों में
और फिर हवा भर देती है उस जगह को
जहां था मेरा शरीर

सबके पास होतीं हैं
चलने की अपनी वज़हें
मैं चलता हूं
चीज़ों को पूरा बनाये रखने के लिये

10 comments:

  1. अशोक पाण्डेय के अनुवाद पर तो कोई शक नही लेकिन अशोक कुमार पाण्डेय के अनुवाद की भी प्रशंसा करने का मन कर रहा है । खैर बड़े भाई हैं तो उनसे 19 रहने में ही बड़प्पन है । रही कविता की बात तो इसकी विशेषता यही है कि इसमे "किक" अगोचर होने के बावज़ूद स्पष्ट दिखाई दे रही है .कवि को सलाम ।

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  2. शुक्रिया भाई साहब
    आप लोगों से क्या बीसी करुंगा…

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  3. का बात है स्ट्रैंड साहब की !!
    अब आपकी मार्फत हम तक पहुंची है तो आपकी ही कहेंगे हम तो इसे। आप तो इत्ती इग्लिश भी जानों हो। कोई हमसे पूछे कि आज भी सौ सौ आंसू निकले हैं मुई के नाम पर।

    अगर ये अनुवाद है तो बहुत खूब है। बधाई...
    कविता समझ आई...

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  4. जबरदस्त!

    आपका बहुत आभार!

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  5. बहुत सुन्दर लगी कविता। अनुवाद भौत अच्छा लगा।

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  6. अनुवाद ही है भाई साहब

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  7. अनुवाद सरस और लयात्मक है।
    काश ! चीज़ो की पूर्णता जैसी कोई चीज़ होती।

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  8. ये बार बार की सफ़ाई तो ठीक नहीं, "अनुवाद ही है भाई साहब"।
    हम तो नहीं मानते।
    कविता की बधाई लेनी हो तो लो।

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  9. आपकी बधाई हो या गाली सब सर माथे पर विजय भाई…

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  10. http://en.wikipedia.org/wiki/Mark_Strand

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