Wednesday, December 9, 2009

काने तिवाड़ी के धानः अंतिम

(सात दिन लंबी दबोच, तैंतीस करोड़ देवता और पांच अप्रेंटिस, बैल की पूंछ, ग्यारह दिन दैत्याकार पहलवानों की कुलेल और धर्माथ निर्मित स्वीट डिश और प्राइवेट बलिदान की परंपरा। क्या ठाठ बांधा है धन्य कबाड़ी अशोक पांडे ने इस गल्प में। यहां परंपरा, पुरखे और लोकदेवता इस सहजता से पहाड़ की बदलती जिंदगी में आवाजाही करते हैं कि कहानी अपने समय का अतिक्रमण कर कहीं और ले जाती है। यह किस्सागोई मुझे कुछ बड़े लतीन अमरीकी लेखकों की याद दिलाती है, कह कर मैं अपनी ईर्ष्या का विस्तार नहीं करना चाहता। ...तो पढ़िए यह दूसरी किश्त)
















...धूलि छंटी तो सामने मार बड़े-बड़े चार दैत्याकार पहलवान निर्मित हो चुके थे. पंचदेवों ने उनसे कुश्ती खेलकर उनका मनोरंजन करने का आदेश दिया. पहलवानों का कद लगातार बढ़ता गया और ग्यारह दिन ग्यारह रात बिना खाए-पिये चारों पहलवान पंचदेवों का मन बहलाते रहे. और जब उनका मन बहल गया तो वे थैंक्यू कहकर जाने लगे जब चारों पहलवालों ने उनका रास्ता रोक कर कहा कि ग्यारह दिन भूखे प्यासे उनका मनोरंजन करने की फीस के एवज़ में कुछ खाने का प्रबन्ध तो किया जाना चाहिये. जब पंचदेवों ने अपनी थैलियों, पोटलियों का मुआयना किया तो उनमें समीर के अतिरिक्त कुछ न था.

वे सोच ही रहे थे जब आसमान तक पहुँचने को तैयार कद वाले पहलवानों ने धमकाते हुए कहा कि अगर भोजन नहीं मिला तो एक लंच के लिए उन्हीं को जीमने से भी हिचकेंगे नहीं. जान बचाने के चक्कर में पंचदेवों ने उन्हें भरपूर भोजन मिलने का आश्वासन देकर काणत्याड़ि के घर का रास्ता बता दिया. पहलवानों का जाना था और पंचदेव अपने अपने शॉर्टकटों से अपने अपने ठीहों को रवाना हुए.

काणत्याड़ि की बारहवीं पीढ़ी इन दिनों मन्दिर के मैनेजमैन्ट पर काबिज़ थी. पहलवान लम्बे रूट से आ रहे थे जबकि तब तक काफ़ी नाम कमा चुके पंचदेव उनसे कहीं पहले वहाँ पहुंच चुके थे. पंचदेवों ने काणत्याड़ि के वंशजों को पहलवानों का भय दिखाकर अपनी जान बचाने के वास्ते उनसे कुछ दिन कहीं और जाकर रहने को पटा लिया.

इधर काणत्याड़ि के वंशजों का जाना था उधर पंचदेवों ने काणत्याड़ि के खानदानी बक्से में से बैल की पूंछ निकाल ली. पंचचूली से गगास तक का लम्बा रास्ता तय करते हुए यदा-कदा यात्रियों वगैरह से अपनी मंज़िल का पता पूछते पहलवानों को काणत्याड़ि के बारे में जितनी बातें पता लगीं उन से वे इतना तो जान ही गए कि पंचदेवों ने उन्हें फंसा दिया है. एक जगह बहुत से लोग आराम कर रहे थे – बगल में उनके लिए खाना बन रहा था. खाने की खुशबू ने पहलवानों की भूख को ऐसा भड़काया कि वे इस भोजन पर टूट पड़े. आराम कर रहे लोगों ने जान गंवाने के बजाय चुपचाप पड़े रहना उचित समझा. सारा पका हुआ भोजन जैसे पहलवानों की ऐड़ियों में कहीं उतर गया. कच्चे अनाज की बोरियां उनके घुटनों तक पहुँच सकीं. और भूख के अतिरेक से क्रुद्ध पहलवानों ने एक एक कर सारे लोगों को भी खा लिया.

पहलवानों की भूख शान्त हो गई और काणत्याड़ि का पूरा कुनबा उजड़ गया.

जब तक पहलवान काणत्याड़ि के घर पहुंचे पंचदेवों को पता लग चुका था कि बालों का वह गुच्छा भिसौणे की चुटिया नहीं बैल की पूंछ थी. और यह भी कि पहलवान समूचे काणत्याड़ि वंश को सूत आए हैं. स्त्रियों का वेश धारण किए पंचदेवों ने पहलवानों का टीका लगाकर स्वागत किया और उनसे आंगन में बैठने का अनुरोध किया. भीतर रसोई में बड़े बड़े भांडों में हलवा पक रहा था जो पहलवानों को बतौर स्वीट डिश प्रस्तुत किया गया.

सुबह चारों पहलवान आंगन में चित्त मरे पाए गए – गले में बालों का गुच्छा अटकने से.

काणत्याड़ि का वंश समाप्त हो चुका था. काणत्याड़ि का मन्दिर पहलवानों की विराट देहों के बोझ से सपाट हो चुका था.

पंचदेवों में से एक ने वहीं रहने की इच्छा व्यक्त की तो बाकी चार ने उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए स्वीकार कर लिया और चम्पावत की तरफ़ निकल पड़े.

मुंड मुंडे-कान फड़ाए इन पंचदेव गुरुभाइयों को आजीवन ब्रह्मचारी रहने का कौल दिलाया गया था. सो बहादुरी और अक्लमन्दी का प्रदर्शन करते करते ही इनकी ज़िन्दगानियाँ कटीं. जाहिर है इस चक्कर में कई साधारणजन लाभान्वित भी हुए. पहलवान अलबत्ता उन्होंने फिर कभी नहीं बनाए. गगास किनारे रह रहे गुरुभाई की मृत्यु के बाद ग्रामीणों ने काणत्याड़ि की ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया और मृतक की याद में एक मन्दिर स्थापित कर दिया.

अब वहाँ दिन में काले बकरे की और रात को प्राइवेट में दारू की बोतल की बलि देने की अनूठी परम्परा चल निकली है. कहते हैं इस से इष्टदेव खुश रहते हैं. भूतहूत तो खैर अब भी नहीं आते. काने तिवारी के धान के खेत अब बंजर हो चुके हैं क्योंकि गगास में पानी हर दिन कम होता जाता है. गाँव में बचे खुचे ज़्यादातर लोगों के रिश्तेदार शहरों से आते हैं तो नॉस्टैल्जिया को खुजाने की रस्म के तौर पर झुंगरे के चावल या मडवे के आटे की डिमान्ड करते हैं.

“खेती पर कब का बजर गिर चुका” कहती हुई घर की बूढ़ी स्त्रियां पाव पाव भर आटा और चावल अहसान की तरह देती कहा करती हैं: “काणत्याड़ि के धान हैं बेटा. सम्हाल के ले जाना. इतने ही हैं बस. हमारा तो देवता बिगड़ा हुआ है इस साल.”

4 comments:

  1. बहुत अच्छी लगी यह रचना।

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  2. अनिल यादव सही कह रहे हैं और यह अनिल यादव ही नहीं कह रहे हैं, बातचीत में कई बड़े लेखक अशोक पांडे की प्रतिभा को क़ुबूल फरमाते हैं. ये बात अनिल यादव पर भी लागु होती है.

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