Wednesday, March 3, 2010

कितनी गवाहियों में मेरी ज़िन्दगी रही

आज आपको अदा जाफ़री की एक ग़ज़ल पढ़वाता हूं. अज़ीज़ जहां उर्फ़ अदा जाफ़री २२ अगस्त १९२४ को बदायूं में जन्मी थीं. नौ साल की आयु में पहला शेर कह लेने के बाद वे अदा बदायूंनी के नाम से ख्यात हो गई थीं. मैं साज़ ढूंढती रही नाम से उनका पहला काव्य संग्रह छप कर आया.

नरेन्द्र नाथ द्वारा सम्पादित एक किताब में उनके हवाले से लिखा गया है - "मुझे अपनी रिवायत जितनी प्यारी है; रिवायतों से बग़ावत भी उतनी ही प्यारी है. मैं साज़ ढूंढती रही अपनी पहचान का पहला लम्हा था. उसके बाद १०-१२ साल का वक़्त ख़ामोशी में गुज़रा. इस लम्बी चुप्पी की वजह मैं ख़ुद भी नहीं जानती. शायद यूं हो कि उस वक़्त मेरे पास कहने को कोई ख़ास बात नहीं थी. या शायद यह वजह हो कि उन दिनों झोली में इतने फूल थे कि ऩज़र उठा कर किसी की तरफ़ देखने का होश न था. फिर मेरा खोया हुआ क़लम मुझे वापस मिला तो भरपूर उजालों की तमन्ना शहर-ए-दर्द तक ले आई. ये किताब १९६८ में शाया हुई."

आप जो ग़ज़ल पढ़ने जा रहे हैं वह अदा के तीसरे संग्रह गज़ालां तुम तो वाकिफ़ हो से ली गई है -



तहरीर हर निगह में किसी ख़्वाब की रही
इतनी तो रास्तों में मेरे रोशनी रही

दर भी नहीं था कोई, दरीचे भी बन्द थे
आंखों में जाने कैसे धनक सी रची रही

ख़ुशबू के साथ साथ न जाने कहां थी मैं
फिर यूं हुआ कि गर्दिश-ए-दौरां थमी रही

पत्तों से छन के आई है आंगन में चांदनी
जैसे किसी ख़ुशी में ख़ुशी की कमी रही

इक सलसबील-ए-दर्द मेरे साहिलों पे थी
दरिया में मौज-मौज मेरी तश्नगी रही

वह इतना मेहरबां है कि अब उस से क्या कहूं
कितनी गवाहियों में मेरी ज़िन्दगी रही

दिल को उदास कर गई जो नौहागर हुआ
कोंपल को एतबार-ए-नुमू सौंपती रही

गुलदान में सजा तो लिये शौक से अदा
फूलों से मुझे बेतरह शर्मिन्दगी रही

(निगह: दृष्टि, सलसबील-ए-दर्द: पीड़ा का अलौकिक तालाब, तश्नगी: प्यास, नौहागर: विलाप करने वाला, एतबार-ए-नुमू: विकसित होने का यक़ीन)

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