अपनी प्रियतम पुस्तकों में एक श्रीलाल शुक्ल जी की कालजयी क्लासिक कृति राग दरबारी से पेश है एक पसन्दीदा टुकड़ा:
साइंस का क्लास लगा था। नवाँ दर्जा। मास्टर मोतीराम, जो एक अरह बी.एस-सी . पास थे, लड़कों को आपेक्षिक घनत्व पढ़ा रहे थे। बाहर उस छोटे-से गाँव में छोटेपन की, बतौर अनुप्रास , छटा छायी थी। सड़क पर ईख से भरी बैलगाड़ियाँ शकर मिल की ओर जा रही थीं। कुछ मरियल लड़के पीछे से ईख खींच-खींचकर भाग रहे थे। आगे बैठा हुआ गाड़ीवान खींच-खींचकर गालियाँ दे रहा था। गालियों का मौलिक महत्व आवाज़ की ऊँचाई में है, इसीलिए गालियाँ और जवाबी गालियाँ एक- दूसरे को ऊँचाई पर काट रही थीं। लड़के नाटक का मज़ा ले रहे थे, साइंस पढ़ रहे थे।
एक लड़के ने कहा , "मास्टर साहब, आपेक्षिक घनत्व किसे कहते हैं ?"
वे बोले, "आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी।"
एक दूसरे लड़के ने कहा, "अब आप, देखिए , साइंस नहीं अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं।"
वे बोले, "साइंस साला अंग्रेजी के बिना कैसे आ सकता है?"
लड़कों ने जवाब में हँसना शुरु कर दिया। हँसी का कारण हिन्दी -अंग्रेजी की बहस नहीं , 'साला' का मुहावरेदार प्रयोग था।
वे बोले, "यह हँसी की बात नहीं है। "
लड़कों को यक़ीन न हुआ। वे और ज़ोर से हँसे। इस पर मास्टर मोतीराम खुद उन्हीं के साथ हँसने लगे। लड़के चुप हो गये।
उन्होंने लड़कों को माफ कर दिया। बोले, "रिलेटिव डेंसिटी नहीं समझते हो तो आपेक्षिक घनत्व को यों-दूसरी तरकीब से समझो। आपेक्षिक माने किसी के मुक़ाबले का। मान लो, तुमने एक आटाचक्की खोल रखी है और तुम्हारे पड़ोस में तुम्हारे पड़ोसी ने दूसरी आटाचक्की खोल रखी है। तुम महीने में उससे पाँच सौ रुपया पैदा करते हो और तुम्हारा पड़ोसी चार सौ। तो तुम्हें उसके मुक़ाबले ज़्यादा फायदा हुआ। इसे साइंस की भाषा में कह सकते हैं कि तुम्हारा आपेक्षिक लाभ ज़्यादा है। समझ गये?"
एक लड़का बोला, "समझ तो गया मास्टर साहब , पर पूरी बात शुरु से ही ग़लत है। आटाचक्की से इस गाँव में कोई भी पाँच सौ रुपया महीना नहीं पैदा कर सकता।"
मास्टर मोतीराम ने मेज़ पर हाथ पटककर कहा , "क्यों नहीं कर सकता ! करनेवाला क्या नहीं कर सकता!"
लड़का इस बात से और बात करने की कला से प्रभावित नहीं हुआ। बोला, "कुछ नहीं कर सकता। हमारे चाचा की चक्की धकापेल चलती है, पर मुश्किल से दो सौ रुपया महीना पैदा होता है।"
"कौन है तुम्हारा चाचा?" मास्टर मोतीराम की आवाज़ जैसे पसीने से तर हो गयी। उन्होंने उस लड़के को ध्यान से देखते हुए पूछा, "तुम उस बेईमान मुन्नू के भतीजे तो नहीं हो?"
लड़के ने अपने अभिमान को छिपाने की कोशिश नहीं की। लापरवाही से बोला, "और नहीं तो क्या?"
बेईमान मुन्नू बड़े ही बाइज़्ज़त आदमी थे। अंग्रेज़ों में, जिनके गुलाबों में शायद ही कोई ख़ुशबू हो, एक कहावत है: गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो , वह वैसा ही ख़ुशबूदार बना रहेगा। वैसे ही उन्हें भी किसी भी नाम से क्यों न पुकारा जाये, बेईमान मुन्नू उसी तरह इत्मीनान से आटा-चक्की चलाते थे, पैसा कमाते थे, बाइज़्जत आदमी थे। वैसे बेईमान मुन्नू ने यह नाम ख़ुद नहीं कमाया था। यह उन्हें विरासत में मिला था। बचपन से उनके बापू उन्हें प्यार के मारे बेईमान कहते थे, माँ उन्हें प्यार के मारे मुन्नू कहती थी। पूरा गाँव अब उन्हें बेईमान मुन्नू कहता था। वे इस नाम को उसी सरलता से स्वीकार कर चुके थे, जैसे हमने जे.बी.कृपलानी के लिए आचार्यजी, जे.एल .नेहरु के लिए पण्डितजी या एम.के. गांधी के लिए महात्माजी बतौर नाम स्वीकार कर लिया है।
मास्टर मोतीराम बेईमान मुन्नू के भतीजे को थोड़ी देर तक घूरते रहे। फिर उन्होंने साँस खींचकर कहा, "जाने दो!"
उन्होंने खुली हुई किताब पर निगाह गड़ा दी। जब उन्होंने निगाह उठायी तो देखा, लड़कों की निगाहें उनकी ओर पहले से ही उठी थीं। उन्होंने कहा, "क्या बात है?"
एक लड़का बोला,"तो यही तय रहा कि आटा-चक्की से महीने में पाँच सौ रुपया नहीं पैदा किया जा सकता?"
"कौन कहता है?" मास्टर साहब बोले, "मैंने ख़ुद आटा-चक्की से सात-सात सौ रुपया तक एक महीने में खींचा है। पर बेईमान मुन्नू की वजह से सब चौपट होता जा रहा है।"
बेईमान मुन्नू के भतीजे ने शालीनता से कहा , "इसका अफ़सोस ही क्या , मास्टर साहब! यह तो व्यापार है। कभी चित, कभी पट। कम्पटीशन में ऐसा ही होता है।"
"ईमानदार और बेईमान का क्या कम्पटीशन? क्या बकते हो?" मास्टर मोतीराम ने डपटकर कहा। तब तक कॉलिज का चपरासी उनके सामने एक नोटिस लेकर खड़ा हो गया। नोटिस पढ़ते-पढ़ते उन्होंने कहा, "जिसे देखो मुआइना करने को चला आ रहा है---पढ़ानेवाला अकेला, मुआइना करने वाले दस- दस!"
एक लड़के ने कहा , "बड़ी खराब बात है !"
वे चौंककर क्लास की ओर देखने लगे। बोले , "यह कौन बोला?"
एक लड़का अपनी जगह से हाथ उठाकर बोला , "मैं मास्टर साहब! मैं पूछ रहा था कि आपेक्षिक घनत्व निकालने का क्या तरीका है !"
मास्टर मोतीराम ने कहा , "आपेक्षिक घनत्व निकालने के लिए उस चीज़ का वजन और आयतन यानी वॉल्यूम जानना चाहिए -उसके बाद आपेक्षिक घनत्व निकालने का तरीका जानना चाहिए। जहाँ तक तरीके की बात है, हर चीज के दो तरीके होते हैं। एक सही तरीका, एक गलत तरीका। सही तरीके का सही नतीजा निकलता है, ग़लत तरीके का गलत नतीजा। इसे एक उदाहरण देकर समझाना जरुरी है। मान लो तुमने एक आटा -चक्की लगायी। आटा-चक्की की बढ़िया नयी मशीन है, खूब चमाचम रखी है, जमकर ग्रीज लगायी गयी है। इंजन नया है, पट्टा नया है। सब कुछ है , पर बिजली नहीं है , तो क्या नतीजा निकलेगा ?"
पहले बोलने वाले लड़के ने कहा, "तो डीजल इंजिन का इस्तेमाल करना पड़ेगा। मुन्नू चाचा ने किया था!"
मास्टर मोतीराम बोले, "यहाँ अकेले मुन्नू चाचा ही के पास अक्ल नहीं है। इस कस्बे में सबसे पहले डीजल इंजिन कौन लाया था ? जानता है कोई?"
लड़को ने हाथ उठाकर कोरस में कहा, "आप ! आप लाये थे!" मास्टर साहब ने सन्तोष के साथ मुन्नू के भतीजे की ओर देखा और हिकारत से बोले , "सुन लिया। बेईमान मुन्नू ने तो डीजल इंजिन मेरी देखा-देखी चलाया था। पर मेरी चक्की तो यह कॉलिज खुलने से पहले से चल रही थी। मेरी ही चक्की पर कॉलिज की इमारत के लिए हर आटा पिसवानेवाले से सेर-सेर भर आटे का दान लिया गया। मेरी ही चक्की में पिसकर वह आटा शहर में बिकने के लिए गया। मेरी ही चक्की पर कॉलिज की इमारत का नक्शा बना और मैनेजर काका ने कहा कि, 'मोती, कॉलिज में तुम रहोगे तो मास्टर ही, पर असली प्रिंसीपली तुम्हीं करोगे। ' सबकुछ तो मेरी चक्की पर हुआ और अब गाँव में चक्की है तो बेईमान मुन्नू की! मेरी चक्की कोई चीज ही न हुई !"
लड़के इत्मीनान से सुनते रहे। यह बात वे पहले भी सुन चुके थे और किसी भी समय सुनने के लिए तैयार रहते थे। उन पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा। पर मुन्नू के भतीजे ने कहा , "चीज तो मास्टर साहब आपकी भी बढ़िया है और मुन्नू चाचा की भी। पर आपकी चक्की पर धान कूटनेवाली मशीन ओवरहालिंग माँगती है। धान उसमें ज्यादा टूटता है।"
मास्टर मोतीराम ने आपसी तरीके से कहा, "ऐसी बात नहीं है। मेरे-जैसी धान की मशीन तो पूरे इलाके में नहीं है। पर बेईमान मुन्नू कुटाई-पिसाई का रेट गिराता जा रहा है। इसीलिए लोग उधर ही मुँह मारता है।"
"यह तो सभी जगह होता है," लड़के ने तर्क किया।
"सभी जगह नहीं, हिन्दुस्तान ही में ऐसा होता है। हाँ--" उन्होंने कुछ सोचकर कहा,
"तो रेट गिराकर अपना घाटा दूसरे लोग तो दूसरे लोग तो दूसरी तरह से- ग्राहकों का आटा चुराकर-पूरा कर लेते हैं। अब मास्टर मोतीराम जिस शख़्स का नाम है, वह सब कुछ कर सकता है, यही नहीं कर सकता।"
एक लड़के ने कहा , "आपेक्षिक घनत्व निकालने का तरीका क्या निकला ?"
वे जल्दी से बोले , "वही तो बता रहा था।"
उनकी निगाह खिड़की के पास, सड़क पर ईख की गाड़ियों से तीन फीट ऊपर जाकर, उससे भी आगे क्षितिज पर अटक गयी। कुछ साल पहले के चिरन्तन भावाविष्ट पोजवाले कवियों की तरह वे कहते रहे , "मशीन तो पूरे इलाके में वह एक थी; लोहे की थी, पर शीशे-जैसी झलक दिखाती थी--?"
अचानक उन्होंने दर्जे की ओर सीधे देखकर कहा , "तुमने क्या पूछा था ?"
लड़के ने अपना सवाल दोहराया, पर उसके पहले ही उनका ध्यान दूसरी ओर चला गया था। लड़कों ने भी कान उठाकर सुना, बाहर ईख चुरानेवालों और ईख बचानेवालों की गालियों के ऊपर, चपरासी के ऊपर पड़नेवाली प्रिंसिपल की फटकार के ऊपर- म्यूजिक-क्लास से उठनेवाली हारमोनियम की म्याँव-म्याँव के ऊपर-अचानक ' भक-भक-भक' की आवाज होने लगी थी। मास्टर मोतीराम की चक्की चल रही थी।
यह उसी की आवाज थी। यही असली आवाज थी। अन्न-वस्त्र की कमी की चीख पुकार , दंगे-फसाद के चीत्कार , इन सबके तर्क के ऊपर सच्चा नेता जैसे सिर्फ़ आत्मा की आवाज सुनता है, और कुछ नहीं सुन पाता ; वही मास्टर मोतीराम के साथ हुआ। उन्होंने और कुछ नहीं सुना। सिर्फ़ 'भक-भक-भक ' सुना।
वे दर्जे से भागे।
लड़कों ने कहा, " क्या हुआ मास्टर साहब? अभी घण्टा नहीं बजा है।"
वे बोले, " लगता है , मशीन ठीक हो गयी। देखें, कैसी चलती है। "
वे दरवाजे तक गये , फिर अचानक वहीं से घूम पड़े। चेहरे पर दर्द-जैसा फैल गया था, जैसे किसी ने ज़ोर से चुटकी काटी हो। वे बोले, " किताब में पढ़ लेना। आपेक्षिक घनत्व का अध्याय जरुरी है।" उन्होंने लार घूँटी। रुककर कहा , "इम्पार्टेंट है।" कहते ही उनका चेहरा फिर खिल गया।
भक ! भक! भक! कर्तव्य बाहर के जटिल कर्मक्षेत्र में उनका आह्वान कर रहा था। लड़कों और किताबों का मोह उन्हें रोक न सका। वे चले गये।
ये तो हिंदी साहित्य की वो क्या कहते हैं 'शोले ' है 'शोले' ! भारत के एक बड़े -भूभाग की ये बेहतरीन केस-स्टडी भी है और इसका कुल-जमा निष्कर्ष ये है कि हम जहाँ रहते हैं वो दरअसल शिवपाल-गंज एक्सटेंशन के सिवा कुछ भी नहीं है ।
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ReplyDeleteकुछ तो बदला है ।
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन टुकड़ा चुना है आपने ।
ReplyDeleteअपनी इस रचना में श्रीलाल शुक्ल ने कंगूरे पर बैठकर समाज को देखा है, मानवीय सरोकार और करुणा के साथ नहीं। उनकी एक और रचना सूनी घाटी का सूरज अपने समाज के मनुष्यों के साथ जिस तरह का संपृक्तता का भाव रखती है, इस कालजयी रचना में वैसा कुछ नहीं। कहीं पर भी दलित-शोषित जन के प्रति करुणा और अपनेपन का भाव नजर नहीं आती, निरपेक्ष केस स्टडी।
ReplyDelete@chandan --No nothing has changed . My address is Shivpal Ganj Extension Part-2 and therefore i say it with conviction .
ReplyDeleteइस प्रस्तुति के लिए धन्यवाद अशोक जी.
ReplyDeleteराग दरबारी में आप कहीं से भी गोता लगाइए, एक से एक मोती मिल जायेंगे. उपन्यास के करीब मध्य में एक बस स्टैंड का वर्णन है - ऐसी सटीक चीज कहीं और नहीं मिली मुझे. कमाल!
श्रीलाल शुक्ल का व्यंग संकलन - जहालत के पचास साल - भी काफी बढ़िया है.
@"अपनी इस रचना में श्रीलाल शुक्ल ने कंगूरे पर बैठकर समाज को देखा है"
ReplyDeleteबल्कि मैं तो कहूँगा पाखाने में घुसने से भी परहेज़ नहीं किया है . इस से बड़ी कोई और कालजयी गद्य रचना मेरे पढ़े हिंदी साहित्य में नहीं है और बे-शक़ सारा हिंदी साहित्य मैंने नहीं पढ़ा है.
राग दर्बारी जिन्कू पची और जिन्कू नही पची उन्के लिये बकौल रुप्पन बाबु--एक डाल पे दो फ़ूल खिले.....किस्मत जुदा जुदा......
ReplyDeleteतुम कौन हो abcd ? इस से पहले भी तुम्हारे कमेन्ट करारे रहे हैं . कौन हो छलिये , सामने आओ , न शरमाओ ?
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