Saturday, March 20, 2010
एक जीनियस के संगीतकार के रूप में विकसित होने का इतिहास
विख्यात फ़्रांसीसी लेखक रोम्यां रोलां (29 जनवरी १९६६ - ३० दिसम्बर १९४४)को १९१५ में साहित्य के नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित किया गया था. एक मानवतावादी के रूप में उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी के कार्यों का गूढ़ अध्ययन किया. वे भारत के वेदान्त दर्शन से गहरे प्रभावित रहे और स्वामी विवेकानन्द की रचनाओं ने उनके बौद्धिक विकास पर बहुत प्रभाव डाला.
जनता के थियेटर के पक्षधर रोलां ने अपने जीवन में कई विषयों पर कई पुस्तकों की सर्जना की. इन सारी पुस्तकों में उनका विशाल उपन्यास ज्यां क्रिस्तोफ़ एक अलग जगह रखता है. उन्हें साहित्य का नोबेल भी मूलतः इसी पुस्तक को ध्यान में रख कर दिया गया था. इत्तेफ़ाक़न मैं पिछले कई महीनों से क़रीब दो हज़ार पन्नों की इस पुस्तक के अनुवाद में लगा हुआ हूं. क्यों न आपको इस क्लासिक के कुछ हिस्सों का रसास्वादन करवाया जाए.
बल्कि उस से भी पहले आप पढ़िये गिल्बर्ट कैनन द्वारा लिखी गई इस किताब की भूमिका. अगले एकाध दिन तक आपको इस किताब के कुछ अंश पढ़वाऊंगा.
‘ज्यां क्रिस्तोफ’ एक जीनियस के संगीतकार के रूप में विकसित होने का इतिहास है. इस खण्ड में चार हिस्से हैं : भोर¸ सुबह¸ यौवन और विद्रोह. पहले और दूसरे भाग में ज्यां क्रिस्तोफ़ के जन्म से लेकर पन्द्रह की वय में स्त्री के साथ उसके पहले सम्पर्क तक की कथा है. तीसरे और चौथे हिस्से में अगले पांच सालों का विवरण है जब बीस की आयु तक पहुंचते पहुंचते अपनी अतिशय ईमानदारी और चारित्रिक मजबूती के कारण अपनी पैदाइश के छोटे से शहर राइन में उसका जीना तकरीबन असम्भव हो चुका होता है. जर्मन सैन्यवाद का खुला विरोध करने के कारण उसे सीमा पार कर पेरिस की शरण लेनी पड़ती है. किताब का बाकी हिस्सा उसके जीवन के जोखिमों पर केन्द्रित है.
उसके सर्जक का कहना था कि इस नायक के जीवन के विचार और स्वयं इस किताब को उन्होंने किसी नदी की तरह कन्सीव किया था. जहां तक इस किताब के किसी संयोजन का सवाल है तो यही इसका संयोजन है. इसमें कोई सहित्यिक तिकड़मबाजी नहीं है और न ही कोई ‘प्लॉट'. व्याकरण के सिद्धान्तों के विरोध में टंगे हुए इसके शब्द ठीक उसी तरह मौजूद हैं जिस तरह एक दूसरे का पीछा करते इसके विचार दर्शनशास्त्र के हर सिद्धान्त के विरोध में नज़र आते हैं किताब के हर वाक्यांश के गर्भ में अगले वाक्यांश के बीज छिपे होते हैं. किताब खुद जीवन की तरह सीधी और सपाट है क्योंकि सत्य को जान लेने के बाद जीवन आसान हो जाता है. और ज्यां क्रिस्तोफ़ ने सत्य को जान लिया था. इस नदी की खोजबीन इस तरह की गई है मानो उसके भौगोलिक अस्तित्व के बारे में लोगों को कुछ मालूम ही न हो. जीवन के बारे में आज तक जो भी कहा और सोचा गया है उसे ज्यां क्रिस्तोफ़ के जीवन की कसौटी पर परखे बगैर स्वीकार कर लिया गया है. उसके लिए हर उस चीज का अस्तित्व नहीं है जो सच्ची नहीं. मनुष्य के विकास और उसके पतन की ऐसी बहुत कम प्रकियाएं हैं जिनका विश्लेषण नहीं किया गया है. पाठक के सम्मुख जिस तरह की सम्पूर्णता के साथ आधुनिक जीवन की व्याख्या प्रस्तुत की गई है वह इस पूरी शताब्दी में प्रकाशित हुए किसी भी कृतित्व से महत्तर है.
रोम्यां रोलां द्वारा इस्तेमाल की गई नदी की उपमा को एक पल के लिए अलग रखूं तो स्वयं मुझे यह किताब एक मजबूत पुल जैसी लगी है जो आपको उन्नीसवीं सदी के विचार-संसार से बीसवीं सदी के विचार-संसार तक लेकर जाता है. ऐसा लगता है मानो उन्नीसवीं सदी के सारे विचारों को इकठ्ठा करने के बाद ज्यां क्रिस्तोफ़ के भविष्य में उड़ान भरने के लिए प्रस्थान बिन्दु का निर्माण किया गया है. उस विचार के भीतर जो भी सबसे ज्यादा धार्मिक था वह ज्यां क्रिस्तोफ़ में सघनित हो गया प्रतीत होता है और जब आप किताब के इतिहास के बारे में जानकारी खोजने लगते हैं तो आपको लगने लगता है कि यह किताब रोम्यां रोलां को सीधे उत्तराधिकार में मिली थी.
रोम्यां रोलां का जन्म 1866 में फ़्रांस के बीचोबीच क्लैमैन्सी मे एक उच्चकुलीन परिवार में हुआ था. पेरिस और रोम में उनकी शिक्षा दीक्षा हुई. 1890 के वर्ष में रोम में उनकी मुलाकात माल्दीवा फान मेसेनबर्ग नाम की एक जर्मन महिला से हुई जिन्होंने 1848 की क्रान्ति के बाद से इंग्लैण्ड में पनाह ले रखी थी. वहां इस महिला के परिचितों में कोसुथ ¸ मैज़िनी ¸ हर्ज़ेन ¸ लेडिन ¸ रोलिन और लुई ब्लान्क शामिल थे. बाद में इटली में उसके परिचतों में वागनर¸ लिस्ज़्ट¸ लेन्बाख¸ गैरीबाल्डी और इब्सेन भी जुड़े. 1908 में उनकी मृत्यु हुई. जब रोलां की उनसे मुलाकात हुई वे ताल्सताय के विचारों से बहुत प्रभावित थे. माल्दीवा फान मेसेनबर्ग के दोस्तों और उनकी गतिविधियों की संपर्क में आने के बाद रोलां को स्वयं अपने विचारों को जानने और खोजने का अवसर मिला. 'मैमोयर्स दून इदियालिस्ते' नामक अपनी किताब में माल्दीवा फान मेसेनबर्ग ने रोलां के बारे में लिखा : "इस नौजवान फ़्रांसीसी के भीतर मुझे वही आदर्शवाद¸ वही महत्वाकांक्षा और वही महान बौद्धिकता नज़र आती है जैसी कि हमारे समय के विभिन्न देशों के महानतम व्यक्तियों में देखी जाती है."
ज्यां क्रिस्तोफ़ की शुरूआत के बीज इसी काल में पनपे: यानी रोलां के जीवन की आवारगी के सालों में. पेरिस लौटने के बाद वे एक आन्दोलन से जुड़ गए जो रंगमंच के सामाजिक पुनर्जागरण के विषय पर कार्यरत था. रोलां ने कई नाटक लिखे. उसके बाद वे सोरबोन में एक संगीत आलोचक और संगीत अध्यापक का काम करते रहे. उन्होंने बीथोवन ¸ माइकेल एन्जेलो और ह्यूगो वूल्फ की जीवनियां लिखीं उनका उद्देश्य हमेशा 'हीरोइक' चीजों को खोजना होता था. उनके हिसाब से सम्पूर्ण सत्य ही महान लोगों के जीवन का आधार होता है. ज्यां क्रिस्तोफ़ ने न सिर्फ सत्य को जानना था बल्कि उसे किसी भी कीमत पर औरों तक पहुंचाना भी था: कैसी भी परिस्थिति के बावजूद¸ स्वयं खुद की कीमत पर¸ जीवन की कीमत पर. यही उसका कानून है. यही रोलां का भी कानून है. पूरी किताब में जो संघर्ष है वह ज्यां क्रिस्तोफ़ की शुद्ध जीवनशैली और व्यक्तिगत नैतिकता के स्थानापन्न के रूप में दोयम दर्ज़े की सामाजिक और वैधानिक नैतिकता के बीच चलता रहता है. इसका मतलब यह हुआ कि हर आदमी को अपनी आत्मा के अभेद्य निर्णय के सामने स्वयं को पेश करना ही होगा. ज्यां क्रिस्तोफ़ को हर जगह समझौतों और झूठ के रूबरू होना पड़ता है: व्यक्तिगत स्तर पर भी और देश के स्तर पर भी. वह जर्मन फरेब को बहुत जल्दी पकड़ लेता है और पेरिस में पैर रखते ही फ़्रांसीसी झूठ अपना बदसूरत चेहरा उसे दिखाता है. किताब खुद जर्मनी और फ़्रांस के बीच की सीमा को तहसनहस करती है. अगर एक सीमा टूटती है तो बाकी अपने आप टूट जाती हैं. हरेक चीज का सत्य सार्वभौमिक सत्य होता है और ज्यां क्रिस्तोफ़ के अनुभव और उसकी आत्मा द्वारा उठाए गए जोखिम (जिनके अलावा और कोई जोखिम हैं ही नहीं) किसी न किसी स्तर पर हर मनुष्य के होते हैं जिनसे उसे गुजरना ही होता है : बीते समय की तानाशाही और भविष्य की चाकरी करने के बीच.
किताब ऐसे कई चरित्र हैं जो पाठक के दोस्त बन जाते हैं या कम से कम दिलचस्प पड़ोसी. अपनी विकासयात्रा के दौरान ज्यां क्रिस्तोफ़ लोगों को इकठ्ठा करता चलता है और जब वे ज्यां क्रिस्तोफ़ के जीनियस के सामने इम्तहान में खड़े होते हैं तो आप उन्हें ठीक वैसे ही देखते हैं जो वे असल में हैं. उनमें जो सबसे नीच भी होता है वह कम से कम मनुष्य तो होता ही है और आपकी सहानुभूति की दरकार रखता है.
विकास के एक नए आयाम के तौर पर फ़्रांस में ‘ज्यां क्रिस्तोफ’ को तुरन्त लोकप्रियता और पहचान हासिल हुई. अभी तक इसके प्रभाव का ठीकठाक विश्लेषण नहीं हो पाया है. इसकी जीवन से सराबोर ऊर्जा को नकारा नहीं जा सकता. इसका 'अस्तित्व' है. ज्यां क्रिस्तोफ़ उतना ही वास्तविक है जितना वे महानुभाव होते हैं जिनके पोट्रेर्ट क्वीन्स हाल के बाहर लगे रहते हैं और वह उनमें से कईयों से ज्यादा वास्तविक है. यह पुस्तक हवा को शुद्ध करती है. इस किताब तक पहुंचने वाला कोई भी खुला दिमाग एक मनुष्य के जीवन की नदी की यात्रा से तरोताजा और अधिक शक्तिशाली बन कर बाहर आएगा और अगर इस यात्रा का आखिर तक अनुसरण किया जाए तो कोई भी यात्री ज्यां क्रिस्तोफ़ के साथ इस तथ्य को खोज पाएगा कि दुख के तले आनन्द होता है और आनन्द तक दुख से होते हुए ही पहुंचा जा सकता है.
‘ज्यां क्रिस्तोफ़ के दोस्तों के लिए’ नाम से सातवें भाग की भूमिका में रोलां लिखते हैं :
"मैं अलग थलग पड़ा हुआ था: फ़्रांस में कई और लोगों की तरह एक एक संसार में घुटता हुआ जो नैतिक रूप से मेरे लिए हेय था. मुझे हवा चाहिए थी. मैं एक बीमार सभ्यता के खिलाफ प्रतिक्रिया करना चाहता था : धोखेबाज कुलीनवर्ग द्वारा भ्रष्ट कर दिए गए विचारों के खिलाफ. मैं उनसे कहना चाहता था "तुम झूठ बोलते हो! तुम फ़्रांस का प्रतिनिधित्व नहीं करते!" ऐसा करने लिए मुझे एक नायक की दरकार थी जिसका दिल शुद्ध हो और दृष्टि स्पष्ट, जिसकी आत्मा इस कदर बेदाग हो कि उसे बोल पाने का अधिकार हो; ऐसा कोई जिसकी आवाज में इतना जोर हो कि हर कोई उसकी बात सुने. मैंने बहुत श्रम के साथ इस नायक को पाया है. लिखना शुरू करने से कई वर्ष पहले से मैंने बाकायदा इस पर लगातार काम जारी रखा. ज्यां क्रिस्तोफ़ ने अपना सफर तब शुरू किया जब मैं उसके इस सफर के अन्त को देख पाने लायक हो गया था."
अगर रोलां ने ‘ज्यां क्रिस्तोफ’ को लिखते समय केवल फ़्रांस को ध्यान में रखा होता और अगर इसकी निष्ठा दुनिया भर में फैली बुराई के खिलाफ न होती तो इसके अनुवाद किए जाने का कोई मतलब नहीं था. लेकिन जरथुष्ट्र की तरह यह किताब हर किसी के लिए भी है और किसी के लिए भी नहीं. रोलां ने वही लिखा जो उन्हें सच लगा और जैसा कि डॉ॰ जॉनसन का मत है : " हर आदमी को यह कहने का हक है कि उसकी निगाह में सत्य क्या है. और हर दूसरे आदमी को हक है कि वह उसकी धज्जियां उड़ा दे ..."
अपने सत्य और सम्पूर्ण निष्ठा के चलते और स्पष्टता के – जैसा मुझे ताल्सताय के बाद किसी में नज़र नहीं आया है – ‘ज्यां क्रिस्तोफ’ निस्सन्देह बीसवीं सदी की पहली महान रचना है. एक तरह से देखा जाए तो यह बीसवीं सदी की शुरूआत है. यह एक पुल की तरह कार्य करती हुई हमें बताती है कि हम किस जगह खड़े हैं. यह भूत और वर्तमान को निरावृत्त करती हुई हमारे वास्ते भविष्य के दरवाजे खोलती है …
(फ़ोटो: रोम्यां रोलां महात्मा गांधी के साथ स्विटज़रलैण्ड में, १९३१)
आप अज्ञेय और रघुवीर सहाय की कोटि का काम कर रहे हैं. रोमां रोला द्वारा लिखी विवेकानन्द की जीवनी का तर्जुमा इन दोनों ने साथ मिल कर किया है .
ReplyDeleteशैशव जी ने बिलकुल ठीक कहा..आपको मेरी शुभकामनायें...!
ReplyDelete: " हर आदमी को यह कहने का हक है कि उसकी निगाह में सत्य क्या है. और हर दूसरे आदमी को हक है कि वह उसकी धज्जियां उड़ा दे ..."
ReplyDeleteक्या कहें……
आप साधूवाद के हकदार है इतनी महान कृति को हिन्दी में अनुवाद करने के लिये । आभार
abhaar ! sudar jaankariyaan !
ReplyDelete"कबाड्खाना"-- साहित्य की MISSED HEARTBEATS या skipped heartbeats के मिल्ने का स्थान है /
ReplyDeleteअस्ली जीवन की skipped heartbeats भी कबाड्खाने के ही पते पर मिले शायद.......
अनुवाद तो अनुवाद उस्का कारन भी इत्ना अच्छा की--"अगर इसकी निष्ठा दुनिया भर में फैली बुराई के खिलाफ न होती तो इसके अनुवाद किए जाने का कोई मतलब नहीं था"--इस्से अनुवाद के प्रती निष्ठा द्र्ड हो गयी !
पता नही आप्का पता क्या है अशोक भाई लेकिन ये तय रहा कि साहित्य की बह्ती और सुखी नदियो के पुल पर आप से मिला जा सक्ता है /
इश्वर से प्रार्थना है की जो भी लिख रहे हो और जो भी लिखोगे ....वो अन्मोल है और......उस्की गती वो कभी न हो जैसी राहुल सान्क्रत्यानन के इकट्टा किये दस्तवेजो की हुई......
कही पडा हुआ उद्ग्रत------for कबाड्खाना------
In this case a missed heartbeat is that which makes us aware of life through its exciting,offbeat,unexpected, and sudden ,rollicking refocusing of our beating and breathing on the unjustly ignored territories of sound and art.
आप शायद यकीन न करें किंतु अभी पिछले ही दिनों मैं अपने एक मित्र से रोम्या रोलां के बारे में बात कर रहा था तब इसी वार्ता के दौरान उनकी ज्यां क्रिस्तोफ नावेल पर चर्चा हुई थी। और उन्होने मुझे यह कह कर कि ये उपन्यास मैं आपको जल्द उपलब्ध करवाउंगा, मुझे इंतजार में लगा दिया था। आज शाम ही उनका फोन आया और मुझे बताया कि नावेल आ गया है, मिलने पर देता हूं। तब की खुशी और अब जब आपके द्वारा इससे सम्बन्धित पोस्ट देख रहा हूं तो खुशी दुगुनी हो गई है। भूमिका पढी तो मन में बेचैनी बढ गई है जल्द से जल्द नावेल पढ्ने के लिये। यह भी क्या बेहतरी है कि आप अनुवाद में रत हैं। आहा..सच क्या आनन्द है इस कार्य में और इस तरह पढते रहने की बीमारी का। इधर धीरे धीरे मैं कायल होता जा रहा हूं आपके सतत चल रहे इस अध्ययन और कार्यों का। कहीं ऐसा न हो जाये कि आपको दुख देने लग जाऊं किताबों और किताबों के बारे में चर्चा करते रहकर। यह आप जानें, किंतु मैं बडा ही नकटा हूं इस मामले में..खैर। अब प्रतिक्षा है आपकी अगली पोस्ट की।
ReplyDeleteकाफ्का के बाद रोमा रोलाँ !
ReplyDeleteधन्य भए महराज। पढ़ रहे हैं।
एक अनुरोध है, अगर हो सके तो उपन्यास के वातावरण और तत्कालीन समाज के वातावरण के बारे में संक्षिप्त सा बता दें तो पढ़ने के दौरान कनेक्ट करने में आसानी रहेगी। भइ, घोषित आलसी हूँ, इतनी सी मदद की दरकार है।