Thursday, March 11, 2010

एक पुरानी यात्रा की यादें - अन्तिम हिस्सा



बीच में एक दिन हम लोग जागेश्वर हो आए। भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक ऐतिहासिक जागेश्वर मन्दिर समूह हिन्दुओं के लिए बहुत महात्म्य रखता है। सरकार द्वारा इसका प्रबन्धन अपने हाथों में लिए जाने और इस जगह का काफी प्रचार हो जाने के बाद अब यहां भी अच्छी लूट होती है। मैं जानबूझ कर भीतर नहीं जाता क्योंकि धार्मिक लूट देख कर मुझे अपने फट पड़ने का डर है। ड्राइवर बालम सिंह उनके साथ जाता है जबकि मैं उनसे वादा करता हूं कि उन्हें कम प्रसिद्ध वृद्ध जागेश्वर दिखा कर लाऊंगा।



मुख्य मन्दिर में वही होता है जिसका मुझे भय था। पूजापाठ के नाम पर भोलेभाले चार्ली और वेरनर से पूरे हजार रूपये ऐंठ लिए जाते हैं। उल्टे वहां फोटो खींचने पर भी पाबन्दी है। आम तौर पर पर्यटक वृद्ध जागेश्वर नहीं जाते क्योंकि वहां जाने के लिए अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है। वृद्ध जागेश्वर का पुजारी अपने युवा बेटे के साथ एक कोठरी में रहता है। वहां हमें गरमागरम चाय तो मिलती ही है पुजारी कहता है : “आप को जहां जहां जो जो फोटो खींचनी हैं खींच लीजिए।”



मन्दिर के भीतर सदियों से ठहरी हुई हवा और अगरबत्ती की ठोस गन्ध से जमी हुई नमी है। एक पुराने त्रिशूल को बस छू कर वेरनर कहता है: “मुझे झुरझुरी सी हो रही है। असल में यहां समय को छुआ जा सकता है।” सुबह मुख्य मन्दिर के अनुभव के बाद यह एक अद्भुत बदलाव है। हम वृद्ध जागेश्वर के सालाना भण्डारे के लिए बाकायदा अच्छी रकम दे कर आते हैं और चार्ली पुजारी को अपनी बेशकीमती ‘पेरिसिएन’ सिगरेटों का नया पैकेट और लाइटर दे आता है।



इधर के दिनों में मैंने इन दोनों को खूब जम कर नुसरत सुनाया है और दोनों नुसरत के भीषण फैन बन चुके हैं। वेरनर तो नुसरत की बात करने पर कहता है : “लैट्स लिसन टू गॉड”। नुसरत को सुनने के बाद हमेशा चार्ली ऐला फिट्जेराल्ड के संगीत को बेतरह याद करता है। बाद में जब मैं विएना पहुंचा था तो उसने मेरे वास्ते ऐला का समूचा कलेक्शन मंगवा कर रखा हुआ था।



हरिद्वार में उन दिनों पोस्टेड मेरे अजीज़ दोस्त रमेश ने आग्रह किया था कि मैं दोनों को उस से मिलाने जरूर लाऊं। वेरनर की पत्नी अपने भारत प्रवास के दौरान रमेश से दो बार मिली थी जब वह रूद्रप्रयाग में था। बिनसर से हरिद्वार हम लोग् नैनीताल होते हुए गए। सड़कों पर फैले कचरे और गन्दी नालियों को एक पल को भूल जाएं तो नैनीताल काफी कुछ आस्ट्रिया के कैरिन्थिया प्रान्त के किसी भी नगर जैसा लगता है। भाई के बच्चे उन से मिलने होटल आए तो उनके जाने के बाद बहुत प्रभावित होकर चार्ली बोला : “दिस इज़ द यंग इन्डिया दैट विल रूल द वल्र्ड टुमॉरो”



हरिद्वार में गंगा की आरती का दृश्य देखने और उसे अपने कैमरे में कैद कर चुकने के बाद चार्ली तकरीबन पगला गया था। मेरे कलक्टर मित्र ने अपने हाथों से उसे शूटिंग परमिट दिया था। रात को गंगा किनारे बैठे हम तीनों ऐसे ही बातचीत कर रहे थे। वेरनर ने बहुत दिनों बाद अपने झोले से भारत का नक्शा बाहर निकाला और दार्शनिक अन्दाज में बोला : “हम लोग तीन हफ्तों से लगातार सफर कर रहे हैं और यह सारा इस नक्शे का कुछ सेन्टीमीटर भी नहीं है। मैं अब 2008 में कम से कम तीन महीने के लिए आऊंगा तब कहीं जाकर शायद भारत को थोड़ा बहुत जान सकूंगा।



खैर हरिद्वार से वापस दिल्ली के रास्ते में हम एक जगह सड़क किनारे एक छोटा सा कोल्हू देखने को ठहरे। ताजा गुड़ बन रहा था भैंसागाड़ी गन्ना उतारने के बाद वापस खेतों की तरफ जा रही थी। छोटे बच्चे गन्ना चूस रहे थे एक औरत सूखे गन्नों को भट्टी में ईंधन के तौर पर ठूंस रही थी। जनरेटर धकधका रहा था और बड़े से कढ़ाव में गुड़ बन रहा था। यह हमारे आजाद भारत के गरीब किसान की अर्थव्यवस्था का जीता जागता दृश्य था। गुड़ बनाने में लगे हुए सारे लोग एक ही परिवार के सदस्य थे। वे सब शायद पहली बार किन्ही विदेशियों को इतनी नजदीक से देख रहे थे। कोल्हू का स्वामी बार बार हमें गांव चलकर एक गिलास दूध पी लेने का आग्रह कर रहा था। हमें देर हो रही थी पर हम उस जगह पर पूरा एक घन्टा रूके रहे। चार्ली को अपनी फिल्म के लिए थोड़ी और फुटेज मिल गई थी।

दिल्ली पहुंचने से ठीक पहले चार्ली ने मुझसे पूछा कि इतने सारे लोगों से बने इस कदर विषमताओं से भरे समाज में कोई एक सरकार काम कैसे कर लेती है। वेरनर की दिलचस्पी यह जानने में थी कि अमरीकी साम्राज्यवाद से लड़ने की हमारी क्या तैयारी है।

सवाल बहुत जटिल थे और उनके जवाब बहुत मुश्किल।



खैर पहले हम दिल्ली में थे उसके बाद आगरा के हॉलीडे होम में। ताजमहल देखने जाने से मैंने मना कर दिया और उन दोनों के लिए गाइड की व्यवस्था करा दी।



ताजमहल वैसा ही रहा होगा जैसा वह था क्योंकि उसके बारे में दोनों में से किसी ने बात तक नहीं की।

वापस दिल्ली आए तो दोनों ने अपना सामान बांधना शुरू करना था। बेहद इत्तफाक से बस्तर में रहने वाले मेरे मित्र भूपेश तिवारी का उसी दिन दिल्ली आना हो गया। बस्तर में ‘साथी’ नाम की स्वयंसेवी संस्था चलाने वाले भूपेश को उसी देर रात शायद भूटान की फ्लाइट पकड़नी थी। पिछले साल मैं छत्तीसगढ़ के कोन्डागांव स्थित उनकी संस्था में कोई दो सप्ताह रह आया था। मैंने उन्हें अपने होटल ही में बुला लिया।

शाम को हमें भूपेश ने अपने लैपटॉप पर ‘साथी’ पर बनी एक छोटी सी डाक्यूमेन्ट्री दिखाई। भूपेश ने बहुत उत्साह से हमें अपनी संस्था द्वारा आदिवासी बच्चों के लिए चलाए जा रहे स्कूल के बारे में भी बताया।

भूपेश रात को भूटान के लिए रवाना हो गए। अगली रात चार्ली और वेरनर विएना के लिए।

करीब दो हफ्तों बाद मेरे पास विएना से एक पार्सल पहुंचा। गुड़ बनाने वाले परिवार को देने के लिए फोटो का एक अल्बम और गन्ना चूस रहे बच्चों के लिए एक एक जोड़ी कपड़े। साथ ही ‘साथी’ संस्था के स्कूल में पचास बच्चों की साल भर की पढ़ाई आदि का खर्च। अपनी संक्षिप्त चिठ्ठी के अन्त में दोनों ने लिखा था : “यह भेजते हुए हम अपने को बहुत क्षुद्र भी महसूस कर रहे हैं पर फिलहाल यह एक निशानी है कि हम दोबारा और उसके बाद भी यहां आते रहेंगे। आमीन।”

2 comments:

मुनीश ( munish ) said...

"वेरनर की दिलचस्पी यह जानने में थी कि अमरीकी साम्राज्यवाद से लड़ने की हमारी क्या तैयारी है।"
American imperialism will die of self-inflicted wounds.The problem will be from barbaric Arabian-imperialism or heinous Chinese imperialism.

Udan Tashtari said...

शानदार...करीने से सजाया है.